विश्व साक्षरता दिवस विशेष : ग्रामीण शिक्षा को सुदृढ़ करने की जरूरत है - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 11 सितंबर 2013

विश्व साक्षरता दिवस विशेष : ग्रामीण शिक्षा को सुदृढ़ करने की जरूरत है

किसी भी सभ्य समाज और राष्ट्र के विकास का आंकलन शिक्षा के स्तर से होता है। जैसी शिक्षा होगी वैसा व्यक्ति और समाज का निर्माण होगा। शिक्षा के इसी महत्व को देखते हुए आजादी के बाद से ही हमारे देश की सभी सरकारों ने विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों की शिक्षा व्यवस्था पर विशेष जोर दिया है। लेकिन वर्तमान परिस्थिती में गांव में प्राथमिक से लेकर हाईस्कूल तक की शिक्षा व्यवस्था चैपट होती जा रही है। ग्रामीण इलाकों के नौनिहालों में खिचड़ी, पोशाक, साइकिल, छात्रवृति आदि योजनाओं से विद्यालय जाने की प्रवृति बढ़ी है। लेकिन बच्चे पठन-पाठन से ज्यादा खिचड़ी के लिए कटोरी पिटते हैं तो दूसरी ओर गुरु जी पढ़ाने से अधिक गप्पे मारते नजर आते हैं। विडंबना है कि शिक्षकों को शिक्षण कार्य से ज्यादा योजनाओं के क्रियान्वयन में भी लगाकर रही-सही कसर पूरी कर दी जा रही है। सरकारी स्कूल की इसी लचर व्यवस्था के कारण गांवों में प्राइवेट स्कूल और ट्यूशन एक बड़ा कारोबार बन गया है। परिणामस्वरूप बिहार जैसे राज्य में प्रति व्यक्ति आय तो अवश्य बढ़ा लेकिन शिक्षा का माहौल हाशिये पर चला गया है। कुल मिलाकर ग्रामीण शिक्षा व्यवस्था बीमारू हो गयी है। करोड़ों के बजट के बाद भी विद्यालयों में पठन-पाठन की स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं हो रहा है। 

बिहार में साक्षरता दर 63.82 फीसदी है। लेकिन तल्ख सच्चाई यह भी है कि यहां शैक्षणिक कुव्यवस्था, बदइंतजामी, गैर-जिम्मेवार पदाधिकारियों और तदर्थ स्कूल समितियों की स्वार्थपरता के कारण प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक की बुनियाद कमजोर हुई है। शिक्षा का व्यावसायीकरण तेजी से हुआ है। गांव के सक्षम और संपन्न लोग शहरों में और निजी विद्यालयों में अपने बच्चों को पढ़ाने लगे हैं। लेकिन जिनके पास पैसे नहीं हैं उनके बच्चे इसी सरकारी विद्यालयों में पढ़ने को मजबूर हैं। राज्य के सरकारी विद्यालयों में पठन-पाठन की स्थिति बहुत ही खराब होती जा रही है। गुरुजी गुरु कम, कर्मचारी और ऐजेंट अधिक बन गये हैं। पढ़ाने से अधिक वह खिचड़ी, साइकिल, पोशाक और छात्रवृति योजनाओं का लेखा-जोखा रखने व राशि वितरण में उलझे रहते हैं। इसी का नतीजा है कि सामाजिक उत्सव के दौरान साइकिल, पोशाक और छात्रवृति राशि वितरण के दौरान गुरु जी को गाली-गलौज व मारपीट तक सहनी पड़ी है। इस संबंध में हाल ही में हुई एक घटना का जि़क्र करना आवश्यक है जिसमें राज्य के एक प्रमुख जि़ला मुजफ्फरपुर के मोतीपुर ब्लाॅक स्थित ब्रह्मपुरा मध्य विद्यालय और उच्च विद्यालय में छात्रवृत्ति में गड़बड़ी के नाम पर सैकड़ों छात्र-छात्राओं और उनके अभिभावकों ने स्कूल में बवाल मचाया। गुरूजनों के साथ अभद्रता की, अंत में पुलिस को बुलानी पड़ी, तब जाकर स्थिती पर काबू पाया जा सका। इसी जिला के सरैंया ब्लाॅक स्थित मध्य विद्यालय में छात्रवृति में हुए घोटाले की बात फैलते ही आसपास की महिलाओं ने हाथ में लाठी, डंडे और मुसल से शिक्षक-शिक्षिकाओं पर हमला बोल दिया। किसी तरह शिक्षकों ने अपनी जान बचायी। पारू ब्लाॅक के धरफरी उच्च विद्यालय समेत लगभग सभी विद्यालयों में शिक्षकों के साथ गाली-गलौज और मारपीट हुई। चांदकेवारी उर्दू विद्यालय (मकतब) में खिचड़ी बनाने को लेकर विद्यालय की शिक्षा समिति के सचिव, अध्यक्ष और कुछ छुटभैये नेताओं ने ताला जड़ दिया, जिससे पठन-पाठन प्रभावित हुआ। इसी प्रकार नालंदा जिला के एक स्कूल की छात्राओं ने साइकिल राशि के लिए अपने ही शिक्षक की जमकर धुनाई की। कई जगह गोली चली, तो कई स्कूलों के फर्नीचर जलाये गये। कुल मिलाकर सामाजिक उत्सव के बहाने असामाजिक कार्य किये गये। गुरु और शिष्य के रिश्ते टूटते जा रहे हंै। विद्यार्थी भी शिष्ट और अनुशासित नहीं रहे तो अभिभावक भी बच्चों को गुरु के महत्व की शिक्षा नहीं दे रहे हैं। विडंबना यह है कि जो सरकारी स्कूलों में शिक्षक पढ़ा रहे हैं स्वंय उनके बच्चे प्राइवेट स्कूल में पढ़ते हैं क्योंकि वह जानते हैं सरकारी स्कूलों में नैतिक मूल्यों का क्या स्तर है। लेकिन कभी उन्हें स्वंय इस नैतिक मूल्य को अपने विद्यार्थियों तक पहुंचाने की चिंता नहीं हुई है। 

12वीं पंचवर्षीय योजना में सरकार ग्रामीण शिक्षा के विकास के लिए साक्षरता दर में वृद्धि के लिए ब्लाॅक स्तर पर 6000 माॅडल स्कूल स्थापना की बात कही है। वित्तमंत्री 2012-13 के बजट में शिक्षा के विकास के लिए माध्यमिक शिक्षा अभियान के लिए 3124 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं। माध्यमिक शिक्षा के सुदृढ़ीकरण, राष्ट्रीय व्यावसायिक शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, बालिका शिक्षा, नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के लिए विशेष योजना चलाने की पहल की है। 2009 में सरकार ने शिक्षा का अधिकार कानून लागू किया। जिसमें 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों को कक्षा 8 वीं तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने का प्रावधान है। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत शिक्षा का अधिकार मौलिक अधिकार बन गया है। अब माता-पिता का दायित्व बन गया है कि अपने बच्चों को स्कूल भेजें। आरटीई के अनुसार सरकार को बच्चों के घर से 1 किमी की दूरी में स्कूल की व्यवस्था करनी पड़ेगी। बच्चों को न तो अगली कक्षा में जाने से रोका जायेगा, न ही स्कूल से निकाला जायेगा, न उसे स्कूल या बोर्ड की परीक्षा अनुत्र्तीण किया जायेगा। 40 बच्चों के पढ़ाने के लिए दो प्रशिक्षित शिक्षक होंगे। निःशक्त, मंदबुद्धि बच्चों के लिए अलग से ट्रेंड शिक्षक की व्यवस्था की जायेगी। शिक्षक जनगणना, आपदा और चुनावी ड्यूटी के अलावा किसी कार्य में नहीं लगेंगे। लेकिन जमीनी स्तर पर यह कितना अमल में आ रहा है साफ झलकता है। 

केवल बड़े-बड़े स्कूल भवन और योजनाओं से शिक्षा की मशाल नहीं जल सकता। इसके लिए शिक्षा का अधिकार कानून को लागू करने वाला तंत्र के नुमाइंदों को अपने दायित्वों का निर्वहन करना होगा। शिक्षकों की नियुक्ति, उनके प्रशिक्षण और कक्षा में उपस्थिति सुनिश्चित करनी होगी। शिक्षकों के कार्य-दशाओं, उनके रहन सहन पर ध्यान देना होगा। जनगणना, चुनाव ड्यूटी, योजनाओं के क्रियान्वयन, शिक्षकों पर दोष मढ़ने की प्रवृति से बचते हुए ग्रामीण शिक्षा के विकासात्मक परिभाषा को गढना होगा। कंप्यूटर शिक्षा, अंग्रजी शिक्षा, नैतिक शिक्षा, व्यवसायिक शिक्षा देते हुए इसे रोजी-रोटी से जोड़ना होगा। इसके लिए सरकार के साथ-साथ आम जनता को भी अपने इलाके के स्कूल की स्थितियों पर पैनी नजर रखनी पड़ेगी। तब ग्रामीण भारत में सर्वत्र जलेगा शिक्षा का लौ और सुशिक्षित होगा समाज। 


अमृतांज इंदीवर 
(चरखा फीचर्स) 

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