श्रद्धा से लेकर श्राद्ध तक की यात्रा में अब संवेदनशीलता और कौटुम्बिक आत्मीयता की गंध गायब होती जा रही है। अब हम जो कुछ कर रहे हैं उसमें न परंपराओं और विधि-विधानों का पालन हो रहा है, न कोई सा कर्म पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ हो पा रहा है।
कुछ अपवादों को छोड़ कर हम सभी लोग अब दिखावे करने व औपचारिकताओं के निर्वाह को ही फर्ज मानकर चलने लगे हैं जहाँ न किसी कर्म की सुगंध है, न उत्तरदायित्वों का कोई बोध। यही स्थिति आजकल श्राद्ध के साथ हो गई है। करना है इसलिए कर रहे हैं। काफी सारे लोग इसलिए कर रहे हैं कि लोग क्या कहेंगे। कई सारे लोग पितरों के किसी न किसी भय से कर रहे हैं, तो खूब सारे लोग ऎसे हैं जिनको लगता है कि पितरों से प्रसन्न होने से उनकी समस्याओं पर विराम लगेगा और सुकून मिलेगा। बहुत थोड़े लोग ऎसे हैं जिनके मन में पितरों के प्रति अगाध श्रद्धा और आस्था भाव है तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक परंपराओं के निर्वाह के प्रति गंभीर भी हैं।
श्राद्ध की अमावास्या पितरों के प्रति श्रद्धा अभिव्यक्त करने वाले पखवाड़े का अंतिम दिन होता है। यह मान्यता है कि इस दिन श्राद्ध करने से सभी प्रकार के ज्ञात-अज्ञात पितरों का श्राद्ध हो जाता है और उन्हें तृप्ति प्राप्त होती है। पूरे पखवाड़े भर कुछ नहीं कर पाने वाले तथा तिथियों की जानकारी नहीं रखने वाले लोगों के लिए श्राद्ध का अंतिम दिन सर्व पितृ अमावास्या निर्धारित है। इस दिन हर किसी को अवश्य ही श्राद्ध करना चाहिए ताकि पितर ऋण से उऋण होने के अवसर का उपयोग हो सके।
श्राद्ध पक्ष के दूसरे दिनों में जो लोग किसी कारण से पितरों के निमित्त श्राद्ध न कर सकें उन्हें अंतिम दिन का पूरा उपयोग करते हुए विधि-विधान से श्राद्ध करना चाहिए। सिर्फ एक दिन श्राद्ध के नाम समर्पित किए जाने से अपने सभी प्रकार के ज्ञात-अज्ञात पूर्वजों तथा अपने से संबंधित सभी मृतकों के श्राद्ध का विधान पूर्ण मान लिया जाता है।
पितरों के श्राद्ध से कतराने वाले और इसे फिजूल खर्च मानने वाले लोगों को अपने भविष्य की ओर देखना चाहिए। जो लोग पितरों का श्राद्ध नहीं करते हैं उन्हें अपनी संतानों से अपने श्राद्ध की आशा भी त्याग देनी चाहिए। यह पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों भरी वह श्रृंखला है जिसका निर्वाह हर हाल में होना चाहिए।
यह कोई जरूरी नहीं कि श्राद्ध के नाम पर खर्चीला आयोजन हो। आवश्यकता सिर्फ यही है कि श्राद्ध के समस्त विधि-विधान और क्रियाएं अच्छी तरह पूर्ण हों और यथाशक्ति ही श्राद्ध भोजन किया जाए। आजकल श्राद्ध को बेवजह व्यापक और खर्चीला बनाए जाने की परंपरा बन गई है। जबकि इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। दूसरी ओर श्राद्ध को सामूहिक भोज का जो स्वरूप दिया जा रहा है उसमें यह भी ध्यान नहीं रखा जाता है कि श्राद्ध के तर्पण, काक ग्रास और भोजन का एक निर्धारित समय है और इसी अवधि में श्राद्ध कर्म करने से ही पितरों को तृप्ति मिलती है। इस समय के गुजर जाने के बाद अर्थात दोपहर बाद श्राद्ध कर्म और भोजन करना पूरी तरह निरर्थक है।
आजकल श्राद्ध के भोज देर रात तक चलते रहते हैं। इसे किसी भी रूप में श्राद्ध नहीं कहा जा सकता। इन्हें सामूहिक भोज से ज्यादा कुछ नहीं मानना चाहिए। समय पर पितरों को भोज्य सामग्री का समर्पण नहीं होने और बाद में रात तक हजारों लोगों को जिमा देने से श्राद्ध का कोई संबंध नहीं रह जाता। ऎसे में पितर अतृप्त रह जाते हैं और उनके कोप का सामना करना पड़़ सकता है।
श्राद्ध समय पर करें, विधि-विधान से करें। जो लोग पखवाड़े भर में कुछ नहीं कर पाए हैं, अथवा विभिन्न तिथियों में श्राद्ध कर चुके हैं, उन सभी को सर्वपितृ अमावास्या का श्राद्ध करना चाहिए। श्राद्ध में श्रद्धा भावना प्रधान है, सामग्री और आडम्बर नहीं, इस बात का ध्यान हम सभी को हमेशा रखना होगा। कुछ न कर पाएं तो न्यूनतम एवं प्रतीकात्मक ही कर लें।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com
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