व्यक्ति की जिन्दगी से लेकर परिवेशीय और सम सामयिक परिस्थितियों के बीच अपने आप को श्रेष्ठ साबित करने और समाज के लिए जीने-मरने की भावनाएँ आदि काल से रही हैं और आगे भी बनी रहेंगी। व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं और उच्चाकांक्षाओं का यह खेल हर आदमी की जिन्दगी का वह हिस्सा है जिसे आदमी कभी सीढ़ी मानकर ऊपर चढ़ने की कोशिश करता है और कभी मंजिल समझ कर इनका उपभोग करने में मस्त हो जाता है और तब तक अपनी ही मस्ती में रमा रहता है जब तक कि समय पूरा न हो जाए। हर व्यक्ति, संसाधन और सांसारिक पदार्थ का अपना निश्चित समय होता है जिसके पूरा होने पर कोई इसे रोक नहीं सकता, अपने हाथ से फिसल ही जाता है।
दुनिया के संसाधन और ये भोग, पदों और कदोें का ऎश्वर्य अपने उपभोग करने वाले पात्रों को बदलते रहते हैं और इनका चक्र न्यूनाधिक वेग से हमेशा परिभ्रमण करता रहता है। जीवन और परिवेश की तमाम प्रकार की स्पर्धाओं का आनंद तभी है जब इनमें शुचिता और खेल भावना हो। इसमें सम सामयिक भूमिकाओं का अपना विशिष्ट अभिनय पूरा हो जाने के बाद सब फिर से एकरस हो जाते हैं। प्रतिस्पर्धा का अर्थ यह नहीं कि हम हमारी मानवीयता, मान-मर्यादाओं और गरिमाओं को भुला दें और अपने मामूली स्वार्थों के लिए इंसानियत के बुनियादी तत्वों से पल्ला झाड़ कर आगे दौड़ लें। प्रतिस्पर्धा कोई सी हो, पूरी तरह स्वस्थ हो तभी प्रतिस्पर्धी मस्त रह सकता है तथा औरों को भी मस्ती में रहने का सुख-सुकून दे सकता है।
आज समाज, परिवेश और दुनिया भर की प्रतिस्पर्धाओं में तरह-तरह का प्रदूषण प्रभाव जमाने लगा है और इसी कारण कई समस्याएं पैदा हो गई हैं। समाज और जीवन के किसी भी क्षेत्र में हम रहें, काम करें और आते-जाते रहें, सभी स्थानों पर आगे बढ़ने और मुकाम पाने का प्रयास जरूर करें लेकिन यह हमेशा याद रखें कि जो प्रतिस्पर्धा हो, उसमें इंसानियत का भरा-पूरा समावेश हो तथा हर प्रतिस्पर्धा साफ नीयत से हो, समाज और देश के लिए हो तथा हर दृष्टि से स्वस्थ और शुचितापूर्ण हो, तभी हम प्रतिस्पर्धा के साथ सामूहिक विकास की दिशा में निरन्तर आगे बढ़ सकते हैं।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com
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