26 नवंबर 2008 को देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में हुए आतंकी हमले को पांच साल हो गये है। निःसंदेह यह हमला भारत में आतंकियों द्वारा की गयी अबतक की सबसे बड़ी घटना थी। खुफिया एजेंसियों की नाकामी, प्रशासनिक अक्षमता, और लचर सुरक्षा व्यवस्था के कारण लगभग 166 से भी अधिक लोगों की जानें गयी। हमले में शामिल एक मात्र जिन्दा आतंकी को फांसी दी जा चुकी है।
कहते है इतिहास हमें सबक सिखाता है लेकिन लाख टेक का प्रश्न यह है कि इन पांच सालों में हमने क्या कुछ सीखा है? क्या हमारी सुरक्षा एजेंसियां पहले से अधिक सतर्क है? क्या मुंबई हमले के बाद देश में आतंकी गतिविधियों और वारदातों में कमी आयी है? क्या अब हमारी समुंद्री सीमाएं सुरक्षित है? क्या हमारे पुलिस की कार्यप्रणाली में कुछ सुधार हुआ है? पहली बार इस हमले में सीधे-सीधे पाकिस्तान के शामिल होने के प्रमाण मिले थे लेकिन क्या इस आधार पर हम पाक को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर घेर सके?
दो पत्रकारों एड्रियन और कैथी द्वारा लिखी गयी एक किताब “द सीज: द अटैक ऑन द ताज” हालिया दिनों में चर्चा में रही है. इस किताब में उन्होंने मुंबई हमलों को लेकर भारत के खुफिया विभाग की नाकामी, पुलिस की अक्षम कार्यप्रणाली और नेताओं में इच्छाशक्ति के अभाव के संबंध में विस्तार से लिखा है।
आंकड़े बताते है कि मुंबई हमले के बाद देश में 15 से अधिक आतंकी हमले हुए है। इन पांच सालों में दिल्ली, पुणे, मुंबई, गुवाहाटी, हैदराबाद, वाराणसी, बंगलुरु, श्रीनगर, बोधगया, पटना जैसे शहरों में आतंकी घटनाएं हुई है। जिसमें सैकड़ों लोगों कि जानें गयी और कई हजारों लोग जख्मी हुए. बड़ी आसानी से शहरों की सूचि देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि कैसे आतंकियों कि पहुँच देश के तक़रीबन सभी हिस्सों में हो गयी है.
लगभग हर बड़ी घटना के बाद टीवी चैनलों पर ये ब्रेकिंग न्यूज़ बनती है और उसके बाद कई दिनों तक प्राइम टाइम में चर्चा कि जाती है. देश के तमाम राजनयिक और सुरक्षा विशेषज्ञ अपनी राय रखते है और पैनल डिस्कशन के चहरा बनते है। पूरे देश में हाई अलर्ट जारी किया जाता है. वाहनों कि चेकिंग की जाती है. खुफियां एजेंसियां सक्रिय हो जाती है। देशभर में हो-हल्ला मचता है और एक आयोग गठित कर दी जाती है। ये बात अलग है कि देश में ऐसे मामलों से जुड़ी सैकड़ों आयोगों की रिपोर्टें आज भी सार्वजनिक नहीं हुई है। तमाम कोशिशों के बाद होता वही है ढ़ाक के तीन पात। कागजों और फाइलों को निपटाने में लगी पुलिस ले देकर माननीयों की सुरक्षा में चौकस रहती है। पिछले दिनों एक दोस्त को मैंने ये कहते हुए सुना कि कुछ सालों बाद आतंकी घटनाएं ब्रेकिंग न्यूज़ तो क्या खबर बनने लायक भी नहीं रहेंगी। बात यही तक ख़त्म नहीं होती देश में घटित किसी भी अप्रिय घटना के बाद नेताओं के बयान चौंकाने वाले होते है और पूरा मुद्दा ही दूसरी तरफ मुड़ जाती है। मुंबई हमले के बाद तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल के लगातार कपड़े बदलने में व्यस्त थे ये बात अलग है कि इसके बाद हुए विवादों के बाद श्री पाटिल को मंत्रिमंडल से हटा दिया गया था.
मामला शांत पड़ने के बाद उन्हें राज्यपाल बनाकर दस जनपथ के प्रति वफादारी का ईनाम दिया गया। वही दूसरी और पटना मे नरेन्द्र मोदी की सभा के दिन हुए विस्फोटों को बाद गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे राज्यों के म्यूजिक लांच में शिरकत करते दिखें। इससे हमारे जनप्रतिनिधियों का आतंकवाद के प्रति अख्तियार किया जाने वाला लापरवाह रवैया नजर आता है।
अब अगर बात की जाए खुफ़ियां एजेंसियों और पुलिस के बीच समन्वय को तो बहुत ही भरमाने वाली स्थिति सामने आती है। हर घटना के बाद केंद्र और राज्य के बीच जिम्मेदारियों को थोपने का खेल शुरु हो जाता है। ताजा मामला पटना ब्लास्ट का है जहां गृह मंत्रालय ने इनपुट भेजे थे। लेकिन राज्य के पुलिस महानिदेशक यह कहते पाये गये कि हमें कोई इनपुट नहीं था। ये बात दीगर है कि खासा विवाद होने के बाद उन्होंने यह माना था कि इनपुट तो मिले थे लेकिन कोई क्लियर इनपुट नहीं थे। इन उदाहरणों से यह साफ हो जाता है कि कैसे अंतराष्ट्रीय मंच पर आतंकी घटनाओं से पुरजोर मुकाबला करने और उसे ख़त्म करने का दावा करने वाला राष्ट्राध्यक्षों में आतंकवाद कितना महत्वपूर्ण मुद्दा है।
अंकित श्रीवास्तव
सिवान
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