- - बाजार के प्रभाव में साहित्य हाशिए पर धकेला जा रहा है..
- - बाजारवाद में साहित्य के लिए स्पेस सिमट गया है ।
- - लघुपत्रिकाएं ’अकाल में सारस’ की तरह हैं !
पटना / १४ दिसम्वर । ’भूमंडलीकरण के दौर में लघुपत्रिकाओं की भूमिका’ विषय प्रगतिशील लेखक संघ की पटना इकाई द्वारा डा. रानी श्रीवास्तव की अध्यक्षता में एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। संचालन राजकिशोर राजन ने किया।
’भूमंडलीकरण के दौर में लघुपत्रिकाओं की भूमिका’ पर कार्यक्रम के मुख्य वक्ता कवि योगेन्द्र कृष्णा ने कहा कि आज के दौर में जब बाजार के प्रभाव में साहित्य हाशिए पर धकेला जा रहा है और उसकी बुनियाद पर ही हमला किया जा रहा है ऎसे में लघुपत्रिकाओं ने आगे बढकर रचनाकारों का हाथ थामा है। श्री कृष्णा ने इस अवसर पर कई लघुपत्रिकाओं का उल्लेख करते हुए कहा कि पहल, दोआबा, सनद, चिंतन दिशा, अक्षर पर्व, कृति ओर और गुफ्तगू जैसी पत्रिकाओं ने बाजार की चुनौतियों को स्वीकार करते हुए हिन्दी पट्टी में लेखकों, कवियों, विचारकों की सामुहिकता को बचाए रखता है..।
डा. रानी श्रीवास्तव ने कहा कि अंतिम जन, समकालीन अभिव्यक्ति, संवदिया, समकालीन सृजन, जैसी लघुपत्रिकाओं के संपादकों ने अपनी गाढी कमाई से पत्रिका निकालते हुए लगभग इस साहित्य विमुख समय में साहित्य को जिलाए रखने का काम किया है..।
कवि शहंशाह आलम ने विमर्श को बढ़ाते हुए कहा कि लघुपत्रिकाएं हथियार की तरह काम करती है वह भी बिल्कुल सूक्ष्म..। विभूति कुमार का ख्याल था कि लघुपत्रिकाएं ’अकाल में सारस’ की तरह हैं।
अरविन्द श्रीवास्तव ने कहा कि लघुपत्रिकाओं का सफ़र साम्राज्यवाद के उपनिवेशवादी प्रभाव को खत्म करने के लिए हुआ था..। बाजारवाद में साहित्य के लिए स्पेस सिमट गया है.., साहित्य कहीं बचा है तो वह लघुपत्रिकाओं में ही..।
कवि राजकिशोर राजन का मानना था कि लघुपत्रिकाएं माचिस की तीली की तरह होती है। राकेश प्रियदर्शी ने कहा कि लघुपत्रिकाओं ने पूंजीवाद का गहरा विरोध किया है। परमानंद राम ने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि जब सबकुछ बाजार में ढह रहा है, ऎसी परिस्थिति में रोशनाई, अभिधा, सांवली, जनपथ, वातायन प्रभात, एक और अंतरीप, शेष आदि छोटी-बड़ी पत्रिकाओं ने प्रगतिशील विचारों को संजोकर रखा है। कार्यक्रम का समापन महान योद्धा व भारतरत्न नेलसन मंडेला को श्रद्धांजलि देने के साथ हुआ।
-अरविन्द श्रीवास्तव / मधेपुरा (बिहार)
मोबाइल- 9431080862.
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