"आत्मा की आवाज़" बनाम "लोग क्या कहेंगे?" - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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सोमवार, 16 दिसंबर 2013

"आत्मा की आवाज़" बनाम "लोग क्या कहेंगे?"

दुनिया के सामने दिखावा अधिक जरूरी है या अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर उसे मानना और उस पर अमल करना? यह एक ऐसा ज्वलंत सवाल है, जिसका उत्तर सौ में से निन्यानवें लोग यही देना चाहेंगे कि अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर उसे मानना और उस पर अमल करना ज्यादा जरूरी है, लेकिन अपनी आत्मा की विवेक-सम्मत आवाज़ को सुनकर भी उस पर अमल बहुत ही कम लोग करते हैं।

आखिर ऐसा क्यों होता? इस बारे में मेरा मानना कि बचपन से, जब से हम प्रारम्भिक और प्राथमिक स्तर पर सोचना-समझना शुरू करते हैं, घर-परिवार में हर जगह हमें कदम-कदम पर यही सिखाया जाता है और यही सुनने को मिलता है कि ऐसा मत करो वैसा मत करो नहीं तो "लोग क्या कहेंगे?" अर्थात ये नकारात्मक वाक्य हर दिन और बार-बार सुनते रहने के कारण हमारे अवचेन मन में गहरे में नकारात्मक रूप से ऐसा स्थापित हो जाता है कि हम इसके विपरीत किसी सकारात्मक बात को चाहकर भी सुनना नहीं चाहते। खुद अपनी आवाज़ को भी नहीं सुन पाते हैं, अपनी आवाज़ को भी अनसुना कर देते हैं!

इसके दुष्परिणाम स्वरुप हम हर समय असंतुष्ट और परेशान रहने लगते हैं। हमें अपना घर संसार निरर्थक और नीरस लगने लगता है। हम अपनी आंतरिक खुशी बाहरी दुनिया और भौतिक साधनों में तलाशने लगते हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि हमारी सच्ची और स्थायी खुशी अपने आप के अंदर ही विद्यमान रहती है। क्योंकि-"आंतरिक खुशी ही तो असली खुशी है।" इसे जानते-समझते हुए भी हम सिर्फ और सिर्फ बाहर की दुनिया में वो सब तलाशते रहते हैं, जिसकी प्राप्ति भी हमें अपूर्ण ही बनाये रखती है और इस अपूर्णता को तलाशने में हम अपना असली खजाना अर्थात अपनी जवानी, उम्र और अमूल्य समय लुटाकर हमेशा को कंगाल हो चुके होते हैं।

इस सच्ची बात का ज्ञान होने तक जबकि हम अपना जीवन बाहरी खोज और भौतिकता में गँवा चुके होते हैं, हम इतने थक चुके होते हैं, इतने निराश हो चुके होते हैं कि हम कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं रह पाते हैं, बल्कि इस बात का जीवन भर पछतावा होता रहता कि हम निरर्थक कार्यों में अपनी जवानी, उम्र और अमूल्य समय लुटा चुके हैं। इस पछतावे में भी हम जीवन के शेष बचे अमूल्य समय को रोते बिलखते बर्बाद करते रहते हैं। हम ये दूसरी मूर्खता, पहली वाली से भी बड़ी मूर्खता करते हैं। जिससे अंतत: अधिकतर लोग तनाव तथा अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं। 

इसलिये ऐसे हालात में हमें हमारे पास जो कुछ-समय और जीवन शेष बचा है, उसका बेहतर से बेहतर सदुपयोग करना चाहिए और अपने जीवन को संभालना चाहिए यही सबसे बड़ी समझदारी है। जिसके लिए पहली जरूरत है कि हम सबसे पहले तो इस बात को भुला दें कि-"लोग क्या कहेंगे?" दूसरी बात ये कि हम खुद की जरूरतों का और वास्तविकताओं का आकलन करें फिर पहली बात के साथ ही साथ हम ऐसा कोई अनुचित काम भी नहीं करें, जिससे हमारी खुद की या अन्य किसी की शांति भंग हो। यही जीवन जीने का वास्तविक किन्तु कड़वा सच है।



live aaryaavart dot com---डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'---
-लेखक, जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार पत्र "प्रेसपालिका" के प्रकाशक एवं सम्पादक हैं। दाम्पत्य सलाहकार और होम्योपैथ चिकित्सक हैं। लेखक को पत्रकारिता व लेखन क्षेत्र में योगदान के लिये अनेक राष्ट्रीय सम्मानों से विभूषित किया जा चुका है। इसके अलावा लेखक 21 राज्यों में सेवारत प्रतिष्ठित संगठन ‘‘भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)’’ के मुख्य संस्थापक तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और ‘‘जर्नलिस्ट्स, मीडिया एवं राइटर्स  वैलफेयर एशोसिएशन’’ के भी नेशनल चेयरमैन हैं। 
सम्पर्क सूत्र : 09828502666, E-mail : baasoffice@gmail.com

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