सबकी यही है मनोवृत्ति, दूसरे करें हमारे सोचे काम - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 29 दिसंबर 2013

सबकी यही है मनोवृत्ति, दूसरे करें हमारे सोचे काम

आदमी आजकल अपने पर भरोसा करने लायक नहीं रहा। वह हर काम में चाहता है कि कोई दूसरा कर दे, और उसका आनंद खुद पाए। आजकल परिश्रमी और पुरुषार्थी लोगों की कमी होती जा रही है। ऎसे में कामचोर और कामटालू लोगों का जमघट हर जगह बढ़ता ही जा रहा है। जबसे कामों को लेकर हमारी मानसिकता अर्थ प्रधान और तेरे-मेरे की हो गई है तभी से हमारी मनोदशा भी कुछ विचित्र सी हो चली है। सारी दुनिया की सुख-सुविधाएं हम पाना चाहते हैं लेकिन इसके लिए किसी भी प्रकार की कोई मेहनत नहीं करना चाहते। यह बात भी नहीं है कि हममें दम नहीं रहा। क्योंकि हमारे में से ही कई सारे महान लोग ऎसे-ऎसे कारनामें कर जाते हैं कि उनके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।

आज का आदमी कामकाज के मामले में बहुतरफा सोच वाला हो गया है। वह कोई काम हाथ में आने या लेने से पहले उसके फल की कामना करते हुए यह सोचता है कि मिलेगा क्या।  इस मिलेगा क्या, क्या फायदा होगा, और क्यों करें। इन तीन प्रश्नों के जवाब आने के बाद ही आदमी थोडा कदम बढ़ाता है। उसे फल के रूप में लक्ष्य को पाने का ध्येय नहीं होता बल्कि बीमा कंपनियों की मनी बेक पॉलिसियों की तरह कुछ-कुछ समय बाद अपने लाभ वाले परिणाम पाने की आतुरता ज्यादा रहती है। अपने हर कर्म पर आदमी को आजकल शंका होने लगी है। पहले के जमाने में यह संकीर्ण और घटिया सोच किसी की भी नहीं हुआ करती थी। सभी का लक्ष्य कार्य पूर्णता हुआ करता था न कि प्रतिफल के स्वप्न बुनना। प्रतिफल की कामना से ज्यादा भावना थी समाज के लिए कुछ करने, नया करने और समाज तथा देश को समर्पित कर देने की । अब ऎसी भावना रही नहीं। यही कारण है कि आज आदमी देश, समाज और कुटुम्ब की व्यापकता और उदारतापूर्वक सभी के साथ रहकर जीवन निर्वाह की बजाय अपने आप तक सिमट कर रह गया है जहां उसके घर की दीवारें ही संसार का क्षितिज हो चली हैं और उसका ‘हम दो हमारा एक’ वाला परिवार ही पूरा का पूरा अपना संसार। और इस छोटे से संसार के लिए वह पूरे संसार को अपना बनाने के फेरमें दिन-रात भटकने को विवश है।

इंसान मेहनत से जी चुराता है, वह खुद कुछ करना चाहता ही नहीं। आज खूब सारे लोग हमारे आस-पास ऎसे हैं जो धेला भर काम नहीं करते, और रईसजादों की तरह घूमते हैं। लोगों की निगाह आजकल पराये परिश्रम, माल और पुरुषार्थ पर कुछ ज्यादा ही हो गई है। अपने घर का काम हो, गली-मोहल्ले, गांव-शहर का या फिर किसी भी पेशेवर दफ्तर-दुकान या संस्थान का। सब तरफ यही राग पसरा हुआ है।
किसी भी प्रकार का सकारात्मक हो या नकारात्मक काम। लोग खुद न कुछ करना चाहते हैं, न करने का साहस ही उनमें बचा है। वे लोग और थे जो सीना तानकर खड़े हो जाते थे और हर अच्छाई के लिए संघर्ष करते हुए विजयश्री का वरण करते थे। आज कोई सी समस्या सामने आ जाए, लोग दूसरों से अपेक्षा करेंगे कि कोई इसके निराकरण की पहल करे। हम सभी लोग मार्गदर्शक, सलाहकार और उपदेशकों की भूमिकाओं का निर्वाह आशातीत रूप से करने लगे हैं।

अब तो हालात ये हो गए हैं कि सब कुछ अपने आस-पास होते हुए भी इनके उपयोग के लिए औरों का मुंह ताकना पड़ता है। खूब सारे लोग हमारे पास ऎसे आते हैं जो पूरी दुनिया और समाज के उद्धार का ठेका लेने का दम भरते हैं लेकिन दूसरों से अपेक्षा करते हैं कि वे कुछ करें। ऎसे लोगों से एक बार सिर्फ इतना ही कह दिया जाए आप चलिये, हम साथ में आते हैं। या यों कह दिया जाए कि जो समस्या है लिख कर अपने हस्ताक्षर कर दे दें। इतना कहने भर से ये लोग कपड़े झाड़ कर भाग खड़े होते है। ऎसे लोगों को अपने निशानों के लिए बंदूक रखने मजबूत कंधों की तलाश होती है। आज घर-परिवार की बात हो या समाज की, सबसे बड़ी समस्या यही है कि हम खुद कुछ करना चाहते नहीं, हम चाहते हैं कि हमारे सोचे हुए सारे काम-काज दूसरे लोग कर दें और हमें न उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करनी पड़े, न किसी प्रकार का प्रतिफल देना पड़े, और सामने वाले हमारा अहसान भी मानें। हमारी हद दर्जे की पराश्रित मनोवृत्ति और शोषण ही वह वजह है जिसके कारण समुदाय, परिवेश और देश सब आप्त हैं।





---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com

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