मुंबई में आयोजित एक गैरराजनैतिक समारोह में मनसे नेता राज ठाकरे और सदी के महानायक अमिताभ बच्चन का पुरानी बातें भूला कर मंच साझा करना जितना अप्रत्याशित था, उतना ही रहस्यमय भी। क्योंकि पांच साल पहले राज ठाकरे अमिताभ बच्चन समेत उत्तर भारतीयों के खिलाफ दुर्व्यवहार और दुर्भावनापूर्ण बातों की सारी सीमाएं लांघ चुके थे। खुद अमिताभ भी तत्कालीन घटनाक्रमों से काफी आहत दिखे थे। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि दोनों भरत मिलाप करने को उद्यत हो उठे। जिसे अमिताभ की पत्नी जया बच्चन की समाजवादी पार्टी भी नहीं पचा पा रही है। लेकिन व्यावहारिक दृष्टिकोण से देखें तो इसके पीछे परिस्थितिजन्य समझौते की गुंजाइश ही ज्यादा नजर आती है। क्योंकि राज ठाकरे हों या अमिताभ बच्चन। दोनों ही कारोबारी है। एक का कारोबार अभिनय है तो दूसरे का राजनीति। और कारोबारी लोग लड़ाई - समझौता सब मतलब से करते हैं।
इस बात का भान मुझे करीब 23 साल पहले दक्षिण भारत की यात्रा के दौरान हुआ । उस दौर में दक्षिण खास कर तामिलनाडु में हिंदी विरोध की बड़ी चर्चा थी। दक्षिणी क्षेत्र में प्रवेश पर ही रेलवे स्टेशनों पर हिंदी में लिखे स्टेशनों के नाम पर पोती गई कालिख से मुझे लोगों की हिंदी के प्रति दुर्भावना का आभास होने लगा। इस स्थिति में साथ गए लोगों के साथ हिंदी में बात करने में भी हमें हिचक होती थी। अव्वल तो लोग हिंदी जानते नहीं थे, या फिर बोलना नहीं चाहते थे। पूरे यात्रा के दौरान चुनिंदा स्थानीय लोग ही ऐसे मिले, जिन्होंने हिंदी में हमारे द्वारा पूछे गए सवालों का किसी प्रकार जवाब देने की कोशिश की। लेकिन हमें हैरानी तब होती थी, जब रेलवे स्टेशनों पर मंडराते रहने वाले तमाम गाइड हमें पहचान कर टूटी - फूटी हिंदी में बातें कर हमारे सामने अपने पेशे से जुड़े आकर्षक प्रस्ताव रखने लगते थे। उन्हें हिंदी बोलने - बतियाने से कोई गुरेज नहीं था। किसी बाजार में जाने पर भी दुकानदार हमें बखूबी पहचान लेते, और किसी प्रकार हिंदी में ही बातें कर हमारी मांग पूछते। यहां तक कि यह भी कहते कि कोई ऐसी खास फरमाइश हो जो अभी उपलब्ध न हो या ले जाने में परेशानी हो , तो हमें अपना पता दे दें, हम डाक से आपके घर भिजवा देंगे। यहीं नहीं उग्र विरोध के दौर में भी स्थानीय उत्पादों के एक कोने पर उस चीज का नाम टूटी -फूटी हिंदी में भी लिखा होता था। जिसे देख कर हमें बड़ी खुशी होती थी। यानी इस वर्ग को राजनैतिक पचड़ेबाजी से कोई मतलब नहीं था । इसलिए नहीं कि वे कोई राष्ट्रभाषा हिंदी के समर्थक थे, या उनकी हिंदी विरोधियों से नहीं पटती थी।
महज इसलिए क्योंकि स्थानीय के साथ ही बाहरी पर्यटक भी उनके लिए खरीदार थे, जिसके माध्यम से उन्हें मौद्रिक लाभ की उम्मीद थी। राज ठाकरे और अमिताभ बच्चन का मिलन भी कुछ ऐसा ही है। राज ठाकरे को जब अपनी राजनीति चमकानी थी, तब उन्होंने अमिताभ पर हमला बोल कर अपना हित साधा, औऱ अब जब परिस्थितयां साथ आने में मुफीद लग रही है, तो उन्होंने उनकी तारीफ के पुल बांधने से भी गुरेज नहीं किया। सदी के महानायक को भी शायद इसी मौके की तलाश थी...
तारकेश कुमार ओझा,
खड़गपुर ( पशिचम बंगाल)
संपर्कः 09434453934
लेखक दैनिक जागरण से जुड़े हैं।
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