क्रासरः घोरावल विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से सपा विधायक रमेश चंद्र दुबे ने कोल समुदाय के एक परिवार को किया बेघर। प्रशासन के बल पर जमीन पर हो रहा अवैध निर्माण।
सोनभद्र। बहुजन समाज पार्टी के शासनकाल में मिर्जापुर के गुलाबी पत्थरों को जयपुर का बताकर करोड़ों रुपये के राजस्व का बंदरबाट करने के आरोपों का सामना कर रहे घोरावल विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र के सपा विधायक रमेश चंद्र दुबे का एक और अवैध कारनामा सामने आया है। उन्होंने कानूनी प्रावधानों की धज्जियां उड़ाते हुए जिला प्रशासन की सह पर कोल समुदाय के एक परिवार को बेघर कर दिया है। हालांकि उन्होंने इसे अंजाम देने के लिए बेचीनामा को आधार बनाया है।
रॉबर्ट्सगंज नगर स्थित चकबंदी कार्यालय के पास अराजी संख्या-66 एवं 67 राजस्व विभाग के दस्तावेजों में आबादी दर्ज है। इस भूमि पर कोल समुदाय के करीब आधा दर्जन परिवारों का कच्चा मकान और छोपड़ियां हैं। कोल समुदाय की रजवन्ती नाम की एक महिला का मकान भी इसी भूमि पर है जो अपने परिवार के साथ वहां रह रही है। शनिवार को कुछ व्यक्तियों ने रजवन्ती और उसके आस-पास की भूमि पर निर्माण कार्य शुरू कर दिया जिससे वहां अफरा-तफरी मच गई। पूछताछ में पता चला कि यह निर्माण कार्य घोरावल विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र के विधायक रमेश चंद्र दुबे की ओर से कराया जा रहा है जो सोमवार को भी जारी रहा। रजवन्ती के मुताबिक उसने अपनी आबादी वाली भूमि घोरावल के विधायक रमेश चंद्र दुबे को चार लाख रुपये में बेच दी है। जब उससे पूछा गया कि क्या उसके पास रहने के लिए अन्य जमीन अथवा घर है तो उसने उसका जवाब 'नहीं' दिया। हालांकि इस दौरान बेघर होने का दर्द उसकी आंखों और आवाज में साफ झलक रहा था। जागरुकता और शिक्षा के अभाव में रजवन्ती और उसके परिवार को यह अहसास नहीं हो रहा था कि करीब 10 लाख रुपये की उसकी बेशकीमती जमीन सत्ता की हनक दिखाकर विधायक उससे चार लाख रुपये में खरीद रहे हैं। साथ ही उसकी भूमि की आड़ में आस-पास की अन्य भूमि पर भी कब्जा कर रहे हैं और उनके इस धंधे में प्रशासन के नुमाइंदे भी साथ दे रहे हैं।
गौरतलब है कि प्रावधानों के अनुसार अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति वर्ग के किसी भी व्यक्ति की जमीन किसी उच्च जाति वर्ग के व्यक्ति को उस समय तक बेची नहीं जा सकती है जब तक यह सुनिश्चित नहीं हो जाता कि बेचने वाले व्यक्ति के पास रहने के लिए घर और कम से कम साढ़े सात बीघा जमीन शेष रहेगा। उच्च जाति के व्यक्ति को इसके लिए जिला प्रशासन से अनुमति भी लेनी पड़ती है लेकिन रजवन्ती की जमीन पर निर्माण करा रहे विधायक अथवा उनके परिजन द्वारा इस प्रकार की कोई कार्रवाई नहीं की गई। इस संदर्भ में जब रॉबर्ट्सगंज के उप-जिलाधिकारी राजेंद्र प्रसाद तिवारी से बात की गई तो उन्होंने कहा कि रजवन्ती की जमीन खतौनी की जमीन नहीं है। वह आबादी है। ऐसी भूमि की बिर्की राजीनामे के आधार पर होती है। इसकी रजिस्ट्री नहीं होती और ना ही कोई व्यक्ति इसकी अनुमति लेता है। अब सवाल उठता है कि आखिरकार यह कानून क्यों बना है? क्या इस कानून के उद्देश्यों की पूर्ति हो रही है? क्या उप-जिलाधिकारी और प्रशासन का यह दायित्व नहीं बनता कि कानून के प्रावधानों के तहत किसी आदिवासी अथवा दलित को भूमिहीन होने से बचाए?
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