लोजपा नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के अपने परंपरागत मित्र लालू प्रसाद यादव या नीतिश कुमार के बजाय भाजपा का दामन थामने पर आश्चर्य भले ही व्यक्त किया जा रहा हो, लेकिन इसके आसार बहुत पहले से नजर आने लगे थे। क्योंकि रामविलास पासवान के पास इसके सिवा कोई दूसरा रास्ता भी नहीं था। लालू यादव के साथ गठबंधन का परिणाण वे एक बार भूगत चुके थे। नीतीश कुमार के साथ दोस्ती में भी उनके सामने जोखिम था। लिहाजा अवसरवादी राजनीति के जीवंत मिसाल रामविलास पासवान के लिए 12 साल बाद फिर राजग में लौटना ही सर्वाधिक सुविधाजनक था। वैसे भी रामविलास पासवान हमेशा धारा के साथ बहने में यकीन करते हैं। मंडल राजनीति की उपज पासवान यदि वीपी सिंह की अंगुली पकड़ कर राजनीति की पगडंडी पर चले, तो देवगौड़ा से लेकर गुजराल और वामपंथी दल और फिर एकदम यू टर्न लेते हुए वाजपेयी सरकार की शोभा बढ़ाने से भी नहीं हिचकिचाए।
एेसे में भारत में घुसे अवैध बंगलादेशियों को भारत की नागरिकता देने की मांग कर चुके पासवान यदि फिर उसी भाजपा के साथ हो गए, जिसे वे पिछले 12 साल तक कोसते रहे, तो इस पर आश्चर्य कैसा। वैसे अवसरवादिता के लिए सिर्फ पासवान को ही क्यों दोष दिया जाए। एक राज्य की मुख्यमंत्री को पूर्व प्रधानमंत्री के हत्यारों को जेल से रिहा करना जरूरी लगा क्योंकि इससे उसे अपने प्रदेश में राजनैतिक फायदा मिलना तय है। देशद्रोह व अन्य जघन्य अपराध में जेलों में बंद रहे पंजाब के भुल्लर और कश्मीर के अफजल गुरु के मामले में पंजाब और कश्मीर में लंबी राजनीतिक पारी खेली जा चुकी है । एक और महिला मुख्यमंत्री ने राजकाज संभालते ही मस्जिदों के इमामों के लिए मासिक भत्ते का एेलान कर दिया। यह जानते हुए भी सरकारी खजाने की हालत खराब है, और इससे दूसरे वर्गों में भी एेसी मांग उठ सकती है। बिहार के कथित सुशासन बाबू कहे जाने वाले मुख्यमंत्री नीतिश कुमार को अचानक अपने प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने का सूझा, और लगे हाथ उन्होंने बंद का ऐलान भी कर दिया। क्योंकि आखिर लोकसभा चुनाव से पहले उन्हें भी तो अपने तरकश में कुछ तीर सजाने हैं। केंद्र सरकार जल्द ही अपने कर्मचारियों के लिए वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने वाली है, यह जानते हुए भी इससे सरकारी खजाने पर अरबों का बोझ बढ़ेगा, साथ ही देश में महंगाई और आर्थिक असमानता भी भयंकर रूप से बढ़ेगी।
लेकिन सरकार मजबूर है क्योंकि सरकार चलाने वालों को जल्द ही चुनावी दंगल में कूदना है, और एकमुश्त वोट पाने के लिए सरकारी कर्मचारियों को खुश करने से अच्छा उपाय और कुछ हो नहीं सकता। केंद्र की देखादेखी राज्यों की सरकारें भी अपने कर्मचारियों का समर्थन पाने के लिए वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने को मजबूर होंगी। इससे देश में कायम अराजकता का और बढ़ना बिल्कुल तय है। लेकिन सवाल है कि देश के उन करोड़ों लोगों का क्या होगा , जो रोज कमा कर खाते हैं। महंगाई के अनुपात में जिनकी कमाई रत्तीभर भी नहीं बढ़ पाती।
तारकेश कुमार ओझा,
खड़गपुर ( पशिचम बंगाल)
संपर्कः 09434453934
लेखक दैनिक जागरण से जुड़े हैं।
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