यह जरूरी नहीं कि कोई साहित्यकार जिस मिट्टी से जुड़ा है वह अपनी रचनाओं में भी उस मिट्टी की खुशबू को समाहित कर दे, यह भी जरूरी नहीं कि वह साहित्यकार अपनी रचनाओं में ग्रामीण परिवेश को इतनी खूबसूरती से प्रस्तुत करे कि पढ़ने वाला प्रत्येक पाठक खुद को उसी कल्पना लोक में महसूस करे। फिर भी इस लोक पर ऐसे भी साहित्यकार पैदा हुए हैं, जिन्होंने पाठकों का दिल अपनी रचनाओं के जीवंतता से जीता है, इनमें से एक हैं, फणीश्वर नाथ 'रेणु' । आंचलिक उपन्यासकार के तौर पर विख्यात हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकार फणीश्वर नाथ 'रेणु' की रचनाओं में गहरी लयबद्धता है और इसमें प्रकृति की आवाज समाहित है। रेणु का 4 मार्च 1921 को बिहार के पूर्णिया जिले के औराही हिंगना नामक गांव में जन्म हुआ था। रेणु के पिता कांग्रेसी थे, रेणु का बचपन आज़ादी की लड़ाई को देखते समझते बीता । स्वाधीनता संघर्ष की चेतना रेणु में उनके पारिवारिक वातावरण से आयी थी। रेणु भी बचपन और किशोरावस्था में ही देश की आज़ादी की लड़ाई से जुड़ गए थे। 1930-31 ई. में जब रेणु 'अररिया हाईस्कूल' के चौथे दर्जे में पढ़ते थे तभी महात्मा गाँधी की गिरफ्तारी के बाद अररिया में हड़ताल हुई, स्कूल के सारे छात्र भी हड़ताल पर रहे । रेणु ने अपने स्कूल के असिस्टेंट हेडमास्टर को स्कूल में जाने से रोका । रेणु को इसकी सज़ा मिली लेकिन इसके साथ ही वे इलाके के बहादुर सुराजी के रूप में प्रसिद्ध हो गए ।
लेकिन रेणु ने 1936 के आसपास से कहानी लेखन की शुरुआत की । उस समय उनकी कुछ अपरिपक्व कहानियाँ प्रकाशित भी हुई थीं, लेकिन 1942 के आंदोलन में गिरफ़्तार होने के बाद जब वे 1944 में जेल से मुक्त हुए, तब घर लौटने पर उन्होंने 'बटबाबा' नामक पहली परिपक्व कहानी लिखी । 'बटबाबा' 'साप्ताहिक विश्वमित्र' के 27 अगस्त 1944 के अंक में प्रकाशित हुई। रेणु की दूसरी कहानी 'पहलवान की ढोलक' 11 दिसम्बर 1944 को 'साप्ताहिक विश्वमित्र' में छ्पी। 1972 में रेणु ने अपनी अंतिम कहानी 'भित्तिचित्र की मयूरी' लिखी। उनकी अब तक उपलब्ध कहानियों की संख्या 63 है । 'रेणु' को जितनी प्रसिद्धि उपन्यासों से मिली, उतनी ही प्रसिद्धि उनको उनकी कहानियों से भी मिली। 'ठुमरी', 'अगिनखोर', 'आदिम रात्रि की महक', 'एक श्रावणी दोपहरी की धूप', 'अच्छे आदमी', 'सम्पूर्ण कहानियां', आदि उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं। लेकिन प्रमुख रूप से रेणु जी एक आंचलिक उपन्यासकार के रूप में प्रसिद्ध हुए।
अगर फणीश्वर नाथ रेणु को आंचलिक उपन्यासकार के तौर पर रेखांकित किया जाता है तो सिर्फ इसमें ही उनका व्यक्तित्व नहीं समाता । उनके लेखन में मानवीय रसप्रियता झलकती है जिसमें ग्राम्य भोलापन है । उनके लेखन से झलकता है कि वह सुधार के पक्षधर थे लेकिन इसके लिए वह नारे नहीं लगाते सिर्फ गांव के लोगों के मीठे झूठों को पकड़ते हैं।
एक बार बीबीसी के एक पत्रकार ने फणीश्वर नाथ 'रेणु'से पूछा कि आखिर आप अपनी रचनाओं में इतनी जीवंतता कैसे लाते हैं। तब उन्होंने अपने मनमोहक मुस्कान से जवाब दिया था,‘‘अपनी कहानियों में मैं अपने आप को ही ढूढ़ता फिरता हूँ। अपने को अर्थात आदमी को!। दरअसल, अपनी रचनाओं में उन्होंने बिहार के छोटे भूखंड़ की हथेली पर समूचे उतरी भारत के किसान की नियति-रेखा को उजागर किया । रेणु जी की रचनाओं की सबसे खास बात थी कि वह कविता की तरह लयात्मक होते थे, जिसमें देहाती माटी की महक समाहित है। वह आम जनों की भाषा में लिखने वाले साहित्यकार थे । रेणु जी की रचनाओं में महिलाएं बहुत ताकतवर होती थी। उनकी रचनाओं में जितना सीधा-सपाट पुरूष होता है स्त्री वैसी नहीं होती। वह छली होती है, वह बहुत सी तिकड़म को जानती है । रेणु ने अपनी कहानियों, उपन्यासों में ऐसे पात्रों को गढ़ा जिनमें एक दुर्दम्य जिजीविषा देखने को मिलती है, जो गरीबी, अभाव, भूखमरी, प्राकृतिक आपदाओं से जुझते हुए मरते भी है पर हार नहीं मानते। रेणु उपर से जितना सरल थे अंदर से उतने ही जटिल भी। रेणु की कहानियां नादों और स्वरों के माध्यम से नीरस भावभूमि में भी संगीत से झंकृत होती लगती है। रेणु अपनी कथा रचनाओं में एक साधारण मनुष्य, जो पार्टी, धर्म, झंड़ा रहित हो, की तलाश करते नजर आते है । उनका जीवन और समाज के प्रति उनका सरोकार प्रेमचंद की तरह ही है। इस दृष्टिकोण से रेणु प्रेमचंद के संपूरक कथाकार है। इसी वजह से प्रेमचंद के बाद रेणु को ही एक बड़ा पाठक वर्ग मिला।
रेणु की कथा-रचनाएं आंचलिक और राष्ट्रीय कही जाती रही है । रेणु की पहली कहानी ‘बट बाबा’ बरगद के प्राचीन पेड़ के इर्द-गिर्द घूमती है, यह पेड़ पूज्य है गांववालों के लिए । एक पात्र निरधन साहू जो खूद कालाजार बीमारी से कंकाल हो गया है और उसे जानलेवा खांसी भी है जब सूनता है कि ‘‘बड़का बाबा सूख गइले का ? और गांव वाले जब उसे बताते है कि हां पेड़ सूख गया है तो निरधन साहू कहता है - अब ना बचब हो राम ! रेणु बताते है कि हिमालय और भारतवर्ष का जो संबंध है वही संबंध उस बरगद के पेड़ और गांव का था । सैकड़ों वर्षों से गांव की पहरेदारी करते हुए, यही है बटबाबा, पर यह क्या हुआ कि पूरे गांव को अपने स्नेह से लगातार सींचने वाला बट बृक्ष अचानक क्यों सूख गया?बहुत ही मार्मिक ढ़ंग से रेणु एक जीवंत चित्र गढ़ते है ।
रेणु का एक और कहानी ‘पहलवान का ढोलक’ में पहलवान मर जाता है पर चित नहीं होता है अर्थात पराजित नहीं होता है, द्वितीय विश्वयुद्ध के समय यानी आजादी के पहले लिखी गयी इन कहानियों में रेणु अपनी तीक्ष्ण नजरों से विश्वयुद्ध के काल का भयावह चित्र बनाने में सफल हुए है। इसी काल में बंगाल में पडे भीषण दुर्भिक्ष ने संपूर्ण भारत को हिला कर रख दिया था, यह भीषण दुर्भिक्ष इतिहास में दर्ज है परंतु रेणु जैसे साहित्यकार द्वारा गढ़ी गयी कहानी ‘कलाकार’ का पात्र शरदेन्दु बनर्जी, जो एक चित्रकार था। जिसके पूरे परिवार को दुर्भिक्ष ने मार डाला। यही कलाकार दुर्भिक्ष पीडितों के सहायता के लिए पोस्टर बना कर जिंदा रहा, धन-दौलत की लालच से दूर यह कलाकार सौ प्रतिशत आदमी था। रेणु ने इस सौ फिसदी आदमी का चित्रण बहुत ही तन्मयता से किया है। रेणु की एक अन्य कहानी ‘प्राणों में घुले हुए रंग’ बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योकि इस कहानी का मुख्य पात्र एक चिकित्सक है जिसे रेणु के कालजयी उपन्यास ‘‘मैला आंचल’’ में डाक्टर प्रशांत के रूप में देखा जा सकता है। ‘न मिटने वाली भूख’ रेणु की मनोवैज्ञानिक कहानी है जिसकी मुख्य पात्र उषा देवी उपाध्याय उर्फ दीदी जी एक विधवा है जिसका संयम अंत में टूट जाता है। इस कहानी में बंगाल के अकाल की शिकार एक पागल भिखरिन मृणाल नामक पात्र है जिसका शहर के काम-पिपासुओं द्वारा बलात्कार किया जाता है जिसके फलस्वरूप वो गर्भवति हो जाती है और उसकी गोद में एक बच्चा आ जाता है । रेणु ने इस कहानी के माध्यम से काम-पिपासा को न मिटने वाली भूख कहा है और मनुष्य इतना अमानवीय और राक्षसी प्रवृति का हो सकता है, इसकी ओर भी बहुत ही सटीक ढ़ंग से संकेत किया है । रेणु की एक कहानी ‘अगिनखोर’ एक साहित्यकार के कुकृत्य को इस अंदाज में लिखा है कि पढ़ते बनता है. कहानी की एक पात्र आभा का सूर्यनाथ द्वारा गर्भवति करना और फिर बाद में आभा का पुत्र एक ऐसा पात्र है जो अपने नाजायज होने का बदला साहित्यिक ढ़ंग से अपने पिता की हंसी उड़ाते हुए लेता है। वह पात्र अपना कवि नाम ‘आइक्-स्ला्-शिवलिंगा’ बताता है और ‘आइक्-स्ला’ को तकियाकलाम की तरह पूरी कहानी में इस्तेमाल करता है, पूछे जाने पर कि आइक्-स्ला शब्द का क्या अर्थ है बड़े ही निराले अंदाज में कहता है ‘‘ यह मेरे व्यक्तिगत शब्द-भंडार का शब्द है, जिसका अर्थ कुछ भी हो सकता है.’’ साहित्यकारों की कथनी और करनी में अंतर का सटीक नमूना रेणु के कहानी ‘अगिनखोर’ में देख जा सकता है जब इस कहानी का पात्र कहता है ‘‘मैंने कवि कर्म छोड़कर फिलहाल, अपनी रोटी के लिए कामेडियन का काम शुरू किया है.’’यह दिलचस्प बात है कि बॉलीवुड के मशहुर गीतकार शैलेंद्र को फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी 'मारे गए गुलफाम' इतनी अच्छी लगी की उन्होंने इस पर राजकपूर और वहीदा रहमान को लेकर फिल्म 'तीसरी कसम' बना डाली।
रेणु ने अपनी कहानी ‘रखवाला’ में तो एक नेपाली गांव की ऐसी कहानी लिखी है कि इस कहानी में बहुत सारे संवाद नेपाली भाषा में है। रेणु ने एक अन्य कहानी नेपाल के पृष्ठभूमि में ‘नेपाली क्रांतिकथा’ के नाम से लिखा, जो रेणु को हिन्दी का एकमात्र नेपाल प्रमी कहानीकार के रूप मे प्रतिष्ठित करता है। ‘पार्टी का भूत’ नामक कहानी में रेणु अपनी अवस्था का बयान करते हुए कहते है कि उनको जो हुआ है वो तो रांची का टिकट कटाने वाला रोग है। वस्तुत पार्टी का भूत राजनीति पर लिखी गयी राजनीति विरोध की कहानी है। एक अन्य अत्यंत मानवीय कहानी 1946 ई. में रेणु ने ‘रसूल मिस्त्री’ लिखी । इस कहानी का मुख्य पात्र एक ऐसा व्यक्ति है जो दूसरे के लिए जीता है। इस कहानी में प्रसिद्ध रोमन कथाकार दांते की ‘डिवाइन कामेडी’ की याद आती है जब रसूल मिस्त्री कहता है कि दोजख-बहिश्त, स्वर्ग-नरक सब यहीं है। अच्छे और बुरे का नतीजा तो यहीं मिल जाता है। रसूल मिस्त्री के दूकान के साइनबोर्ड पर किसी ने लिख दिया है, ‘यहां आदमी की भी मरम्मत होती है.’ जब सन् 1946 ई. में रेणु बीमार पड़े तो उन्होंने ‘बीमारों की दुनिया में’ नाम से एक कहानी लिखी। रेणु की कहानी आज भी उतनी ही प्रसांगिक है जितनी जब लिखी गयी थी तब थी। ‘बीमार की दुनिया में’ का एक पात्र है वीरेन जो और कोई नहीं खूद रेणु है और वीरेन अपने मित्र अजीत से जो कहता है वो आज के भारत की कहानी लगती है। वीरेन कहता है कि ‘‘ मैंने जिंदगी को आपके जेम्स जॉयस से अधिक पहचाना है। हमारी जिंदगी हिन्दुस्तान की जिंदगी है। हिन्दुस्तान से मेरा मतलब है असंख्य गरीब मजदूर, किसानों के हिन्दुस्तान से। हम अपनी मिट्टी को पहचानते है, हम अपने लोगों को जानते है। हमने तिल-तिल जलाकर जीवन को, जीवन की समस्याओं को सुलझाने की चेष्टा की है। ’’ 1947 ई. में रेणु ने ‘इतिहास, मजहब और आदमी’ नामक कहानी लिखी जिसमें देश का विभाजन, साम्प्रदायिक दंगे, भूखा और बीमार देश की गहरी पीड़ा है। जनवरी 1948 ई. में प्रकाशित ‘रेखाएं-वृतचक्र’ नामक कहानी में स्वतंत्रता, बंटवारा तथा अन्य राजनीतिक घटनाओं का सूक्ष्म वर्णन है परंतु इस कहानी में एक घायल सैनिक के माध्यम से रेणु ने एक फैंटेसी के शिल्प का भी प्रयोग किया है। इसी वर्ष एक अन्य कहानी ‘खंडहर’ आयी जिसमें रेणु लिखते है कि चारों ओर शांति है, स्वराज मिल गया फिर भी एक तनाव है। इस कहानी में रेणु आधुनिक समाज की विशृंखलता की पड़ताल करते हुए भी आशावान दिखते है. इस कहानी में रेणु अपने समकालीन गजानन माधव मुक्तिबोध की तरह मन से लहूलूहान है।
स्वतंत्रता के बाद रेणु पूर्णिया से ‘नई दिशा’ नामक एक सप्ताहिक पत्रिका का संपादन-प्रकाशन करते थे। सन् 1949 ई. में ‘नई दिशा’ का ‘शहीद विशेषांक’ निकाला जिसमें उनकी ‘धर्मक्षेत्रे-कुरूक्षेत्रे’ नामक कहानी प्रकाशित हुयी थी जो कथा और शिल्प में उनकी अन्य कहानियों से भिन्न थी। लतिका राय चौधरी से विवाह उपरांत 1952 ई. में रेणु ने अपनी कालजयी रचना ‘‘मैला आंचल’’ लिखी। 1953 ई. में उनकी दो कहानियां ‘बंडरफूल स्टुडियो’ और ‘टोन्टी नैन’ प्रकाशित हुयी थी।
मैला आंचल के प्रकाशन से पहले रेणु की कहानियों के फेहरिस्त का अंतिम कहानी ‘दिल बहादुर दाज्यु’ है जो एक गोरखा नौजवान पर लिखी शब्द-चित्रात्मक कहानी है.रेणु की हर कहानी में नये शिल्प का प्रयोग इनकी विशेषता है। रेणु एक ढर्रे पर कहानी लिखना पंसद नही करते थे। रेणु के उपन्यासों यथा मैला आंचल, जुलूस, परती परिकथा, ऋणजाल-धनजाल, नेपाली क्रांतिकथा, पल्टूबाबू रोड अलग-अलग भाषा-शैली और शिल्प में गढ़ी गयी कृतियां है।
कथा-साहित्य के अतिरिक्त संस्मरण, रेखाचित्र, और रिपोर्ताज आदि विधाओं में लेखन के अलावा फणीश्वर नाथ रेणु का राजनीतिक आंदोलन से गहरा जुड़ाव रहा था। जीवन के संध्याकाल में वह जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में शामिल हुए, पुलिस दमन के शिकार हुए और जेल गये। 11 अप्रैल 1977 को फणीश्वर नाथ रेणु का देहावसान हो गया।
दीपक कुमार
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लेखक हिन्दुस्थान समाचार से जुड़े हैं।
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