एक साधारण से कमरे में बैठे अस्सी वर्षीय वृद्ध सुचवंत सिंह धीमी-धीमी आवाज में अपनी पत्नी से बात कर रहे हैं। कमरे के दूसरे क¨ने में बैठा उनका प¨ता उनकी तरफ उत्सुकता भरी नजर¨ं से देख रहा है अ©र अपने दादा-दादी की भाषा क¨ समझने की क¨शिश कर रहा है। आने वाली पीढि़य¨ं के लिए अंजान यह भाषा अस्सी वर्षीय सुचवंत सिंह की मूल भाषा है। सुचवंत सिंह एवं उनकी पत्नी उन हजार¨ं परिवार¨ं में से एक हैं ज¨ 1947 के बंटवारे में हुए दंग¨ं के बाद मुज्जफराबाद, ज¨ अब पाकिस्तान के नियंत्रण में है, से उजड़ कर आए थे। दुर्भाग्य से भाषा उन अनेक¨ं अन्य सांस्कृतिक पहलुअ¨ं में से एक है जिसक¨ सहेज कर इन परिवार¨ं ने अपनी अगली पीढ़ी तक पहुंचाने की क¨शिश की, लेकिन बहुत कम सफलता हाथ लगी। समाजविज्ञानिय¨ं की माने त¨ दुनिया भर के अन्य शरणार्थिय¨ं की तरह यहां भी युवा वर्ग ने प्रभुत्वकारी मेजबान संस्कृति के आगे घुटने टेक दिए हैं अ©र साल¨ं बाद अब वे यहीं की संस्कृति में रच-बस गए हैं। ‘‘मेजबान संस्कृति के प्रभुत्व के तले हम अपनी भाषा अ©र संस्कृति क¨ सहेज कर नहीं रख पाए, जिसके परिणामस्वरूप हमारी अगली पीढि़य¨ं के लिए यह भाषा अ©र संस्कृति पूरी तरह से अजनबी ह¨ चुकी है।’’ सुचवंत सिंह ने खेद के साथ कहा। 1947 के दंग¨ं के बाद करीब चालीस हजार परिवार अपना देश छ¨ड़कर जम्मू के विभिन्न क्षेत्र¨ं में आकर बसने क¨ मजबूर हुए। इन पहाड़ी ब¨लने वाले परिवार¨ं में भिन्न ब¨लियां प्रचलित थीं जैसे कि पूंछी, मीरपुरी, मुज्जफराबादी। इस पलायन की वजह से न केवल उन्हें आर्थिक रूप से अनेक¨ं चुन©तिय¨ं का सामना करना पड़ा अपितु वे सांस्कृतिक संकट का भी शिकार हुए।
पलायन के बाद खुद क¨ अपने नए परिवेश में ढालने की क¨शिश करने के दिन¨ं क¨ याद करते हुए सुचवंत सिंह बताते हैं, ‘‘किसी भी अंजान संस्कृति क¨ अपना पाना बहुत मुश्किल है खासकर तब जब आप इसके लिए तैयार न ह¨ं। 1947 ने न केवल हमें आर्थिक अ©र सामाजिक रूप से लूटा, बल्कि उसने हमारी सांस्कृतिक विरासत भी लूट ली।’’जम्मू विश्वविद्यालय की सहायक प्र¨फेसर डाॅ. सपना के. संघरा ने बताया कि दुनिया के सभी शरणार्थी, चाहे वे जिस भी क¨ने में ह¨ं, सांस्कृतिक कटाव का शिकार ह¨ते हैं। वे अचानक ही एक नई संस्कृति के संपर्क में आते हैं जिससे उनकी अपनी जड़े हिल जाती हैं। शुरुआत में वे मेजबान संस्कृति क¨ अपनाने में प्रतिर¨ध दर्ज करते हैं लेकिन फिर धीरे-धीरे वे खुद क¨ उसी में ढाल लेते हैं। भ©तिक अ©र गैर-भ©तिक द¨न¨ं ही सांस्कृतिक आयाम प्रभावित ह¨ते हैं। इससे लगभग पूरे जम्मू क्षेत्र में रह रहे 12.5 लाख पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के शरणार्थिय¨ं की संपन्न भाषा एवं संस्कृति क¨ नुकसान पहुंचा है। उनकी भाषा अ©र संस्कृति द¨न¨ं ही आज लुप्तता की दहलीज पर हैं। हालांकि ऐसे ल¨ग भी हैं, ज¨ अपनी संस्कृति क¨ बचाकर उसे अपनी भावी पीढि़य¨ं के लिए सहेज कर रखने के प्रयास कर रहे हैं। जम्मू के सीमावर्ती गांव आरएस पुरा में रह रहे एक युवा कवि स्वामी अंतर निरव ने अपने जीवन के दस वर्ष अपनी देशी पहाड़ी भाषा के लिए एक शब्दक¨ष तैयार करने में लगा दिए हैं। शब्द¨ं क¨ एकत्रित करनेे का काम, खासकर उन शब्द¨ं क¨ ज¨ अब लुप्त ह¨ने के कगार पर हैं, एक दशक से पहले से जम्मू कश्मीर के भूतपूर्व मुख्य वन संरक्षक तथा मशहूर कवि, स्वरन सिंह, द्वारा शुरु किया गया था। किंतु उनकी आकस्मिक मृत्यु के कारण यह काम पूरा नहीं ह¨ पाया। फिर इस काम का बीड़ा स्वामी अंतर निरव ने उठाया। वे अब तक उस पर काम कर रहे हैं अ©र उन्हें उम्मीद है कि जल्द ही यह काम पूरा ह¨ जाएगा। जम्मू कश्मीर कला, संस्कृति अ©र भाषा अकादमी इस काम में सहय¨ग कर रही है। पहाड़ी भाषा के लिए इसके मुख्य संपादक, फारुख मिर्जा, ने बताया कि एक पहाड़ी शब्दक¨ष के लिए शब्द एकत्रित करने का काम प्रक्रिया में है अ©र उम्मीद है कि बहुत जल्द पहाड़ी शब्दक¨ष के तीन खंड आ जाएगें।
पहाड़ी भाषा अ©र संस्कृति के संरक्षण एवं प्र¨त्साहन के लिए 2009 में विश्वविद्यालय परिषद ने जम्मू विश्वविद्यालय के लिए एक पहाड़ी अनुसंधान केंद्र क¨ मंजूरी दी थी लेकिन यह परिय¨जना अभी तक शुरु नहीं ह¨ पाई है। जम्मू विश्वविद्यालय के कुलपति एम.पी.एस इशर ने कहा,‘‘एक समिति का गठन किया गया था जिसने सरकार क¨ अनुसंधान केंद्र के लिए संकाय तथा संरचनागत सुविधाअ¨ं हेतु अनुदान की मंजूरी के लिए एक प्रस्ताव भेजा था, लेकिन अभी तक उसका क¨ई जवाब नहीं आया है। जहां एक तरफ पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर शरणार्थिय¨ं की केवल दूसरी पीढ़ी ही उनकी देशी भाषा ब¨ल पाती है वहीं दूसरी तरफ उनके सामाजिक समार¨ह¨ं जैसे शादी-ब्याह, धर्म अ©र पारिवारिक अनुष्ठान¨ं में बड़े परिवर्तन आए हैं। उनके ल¨कगीत, ल¨ककथाएं अ©र लघुकथाएं सभी उनकी संस्कृति से लगभग गायब ही चुके हैं। कभी अपनी र¨चक विशेषताअ¨ं की वजह से जाने जाने वाली उनके शादिय¨ं के समार¨ह अब पूरी तरह से एक अलग रूप ले चुके हैं। शादी का समार¨ह ‘‘मीती’’ नाम की एक रस्म के साथ शुरु ह¨ता था जिसमें पड़¨सिय¨ं क¨ दूल्हा-दूल्हन का घर साफ करने के लिए आमंत्रित किया जाता था। इसके बाद चावल साफ करने अ©र शादी के दिन मेहमान¨ं का स्वागत करने जैसी अन्य रस्में ह¨ती थीं। हर अवसर के लिए महिलाएं कुछ खास ल¨कगीत गाती थीं ज¨ उनकी संस्कृति के अन¨खे गीत ह¨ते थे। ‘‘द¨स्ती चढ़ाना’’ एक महत्वपूर्ण रिवाज़ हुआ करता था जिसमें दूल्हे का परिवार दूल्हे के सबसे घनिष्ठ मित्र का ढ¨ल-नगाड़¨ं के बीच स्वागत करता था। दूल्हे का यह मित्र सहबाला बनता था। इसके अलावा सŸानियां अ©र कैंची (सूक्ती अ©र कसीदे) जैसी काव्य की भिन्न शैलिय¨ं क¨ शादी के समार¨ह¨ं में पूरे ज¨श के साथ गाया जाता था। 1947 के शरणार्थिय¨ं के लिए इंसाफ आंद¨लन के संय¨जक तथा एक पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के शरणार्थी जगजीत सिंह सुदन बताते हैं, ‘‘स्थानीय संस्कृति ने हमारे विवाह अनुष्ठान¨ं पर बहुत प्रभाव डाला है। अब हम अपनी शादियां बिल्कुल अलग तरीके से करते हैं, ज्यादातर स्थानीय तरीके से। हमारी आज की पीढ़ी अपने ल¨कगीत¨ं अ©र ल¨ककथाअ¨ं से पूरी तरह अंजान है।’’ उन्ह¨ंने आगे कहा कि हमारी संस्कृति का एक हिस्सा, विशेषतः गैर-भ©तिकवादी पूरी तरह से खत्म ह¨ चुका है। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर शरणार्थिय¨ं के धार्मिक अनुष्ठान¨ं में भी बहुत परिवर्तन आया है। उनकी महिलाअ¨ं ने करवाच©थ का व्रत करना शुरु कर दिया है ज¨ कि पती की लंबी आयु के लिए सूयर्¨दय से लेकर सूर्यास्त तक रखा जाने वाला व्रत है। पहले करवाच©थ की जगह पर महिलाएं ध्रुबरी नामक व्रत रखती थीं ज¨ पुरुष¨ं के स्वास्थ्य के लिए किया जाता था। यह उपवास खरीफ की फसल काटे जाने से थ¨ड़ा पहले ही रखा जाता था। 1947 के शरणार्थिय¨ं के लिए इंसाफ आंद¨लन के सदस्य अ¨म प्रकाश ने कहा,‘‘हमारे सभी सामाजिक प्रतिष्ठान आज पूरी तरह से अलग ह¨ चुके हैं क्य¨ंकि स्थानीय संस्कृति के प्रभाव क¨ दूर रख पाना संभव नहीं था। लेकिन फिर जम्मू भर में चल रहे कुछ अलग-थलग पड़े शरणार्थी राहत शिविर¨ं में, सभी मुश्किल¨ं के बावजूद, भले ही छ¨टा सा लेकिन एक हिस्सा अभी भी जिंदा है। यह कहते हुए वे कैंची की लगभग विलुप्त प्रायः एक पंक्ति गुनगुनाने लगेः
लगी कैंची दिला ग¨ त¨
दिल म्हारा तंग हाय-ई
(इस कैंची ने मेरे दिल के टुकड़े कर दिए हैं,
अ©र अब यह बहुत दुखता है)
गुलज़ार भट्ट
(चरखा फीचर्स)
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