गया। यह जगजाहिर है कि हमारे देष के नेताओं के द्वारा बच्चों को कहा जाता है। बच्चे देष के कर्णधार हैं। देष के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी बच्चे को बेहद प्यार किया करते थे। इसी लिए प्रथम प्रधानमंत्री को भी बच्चे चाचा नेहरू कहा करते हैं। ईसा मसीह भी बच्चों को प्यार करते थे।
खैर, मासूम बच्चों के बारे में कहने वाले कहते रहे। अब मिलियन डाॅलर का सवाल है कि बाल दास्ता के दलदल में फंसे इन बच्चियों को कौन मुक्त कराएंगा? इन दिनों बच्चों के द्वारा अगरबर्ती बनाया जा रहा है। इन्हीं अगरबर्तियों को चढ़ाकर श्रद्धालुओं के द्वारा भगवान को खुष किया जाता है। इनकी जिदंगी में कौन खुषी लाएंगे।
जिन बच्चियों के हाथ में किताब और कलम रहना चाहिए था। आज दर्जनभर बच्चियां के हाथ में अगरबर्ती बनाने की जिम्मेवारी थोप दी गयी है। हवादार स्कूल के बदले एक द्वार वाले घर में बैठकर बच्चियां अगरबर्ती बनाती हैं। यह जरूर है कि घर से विभिन्न तरह के रंग के कपड़े पहनकर बच्चियां आती हैं। उनको घर का पावडर लगाने की जरूरत नहीं है। यहां पर अगरबर्ती बनाने में जो ‘डस्ट’ पावडर इस्तेमाल किया जाता है। काम के दौरान उड़कर ‘डस्ट’ बच्चियों के चेहरे और हाथ में उड़कर लग जाता है। इससे साबित होता है कि माहौल में पसरा इस ‘डस्ट’ को बच्चियां सांस के द्वारा ग्रहण भी करती चली जाती हैं। जो बाद में महारोग यक्ष्मा रोग की चपेट में भी आ सकती हैं। इसका ख्याल अगरबर्ती बनवाने वाले व्यापारी भी नहीं करते हैं।
अपने घर से बैठने वाली पीढ़ा को बच्चियां लाती हैं। अगरबर्ती बनवाने वाले व्यापारी अगरबर्ती बनाने के काले और लाल रंग का मसाला देता है। इसके साथ ‘डस्ट’ भी देते हैं। इसके साथ लकड़ी का तिनका भी मिलता है। इतना समान मिलने के बाद बच्चियां अगरबर्ती बनानी शुरू कर देती हैं। कुछ मसाला का पेस्ट लेकर लकड़ी के तिनके में लपेटा शुरू कर देती हंै। पीढ़ा पर पेस्ट सटे नहीं इसके लिए डस्ट को छिड़कते रहते हैं। बिल्कुल रोटी बनाने की तरह ही पतला करना पड़ता है। लकड़ी के तिनके में पेस्ट लगाने के बाद अगरबर्ती को सूखने के लिए चबूतरे पर प्रसार कर सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है।
लकड़ी के तिनके में पेस्ट लगाने के बाद अगरबर्ती को सूखने के लिए चबूतरे पर प्रसार कर सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है। उत्सुकता से देखने जाने पर बाल मजदूरों की दास्तान सामने आ सकी। इस समय प्रदेष में बाल श्रम (निषेध एव विनियमन ) 1986 लागू है। समय समय पर अधिकारियों द्वारा बाल मजदूरी के खिलाफ अभियान भी चलाया जाता है। इसका असर केवल सड़क के किनारे ढांवे तक ही पड़ता है। जहां अधिकारियों की दौड़ती वाहन रोड के किनारे रूके और कागजी कार्रवाई करके जल्दी से जल्दी निकल पड़े। इन अधिकारियों को हिम्मत नहीं है। वे गांवघर में जाकर देंखे किस तरह से व्यापारी आजादी से बाल मजदूरों से कार्य करवा रहे हैं। वह भी एक जगह नहीं परन्तु अधिकांष घरों के द्वार पर बाल मजूदरी की दास्तानों का नजारा देखा जा सकता है। हां, केवल बच्चियों को ही अगरबर्ती बनाते देखा गया। इस साफ जाहिर होता है कि आधी आबादी को ही बाल मजदूरी के दलदल में ढकेल दी गयी हैं।
आलोक कुमार
बिहार
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