संसार का सबसे बड़ा सच यही है कि भौतिकवादी भटकते रहते हैं और अध्यात्मवादी लोग आनंद में मग्न रहते हैं। भौतिकता की चकाचौंध और भरपूर मोहमाया में नहाते रहने वाले लोग भी आनंद प्राप्त नहीं कर पाते हैं और इस वजह से उन्हें हर क्षण यही लगता है कि आनंद पाने के लिए और कुछ नया-नया किया जाए, ज्यादा डूब कर किया जाए। और इसके लिए जो रास्ते अपनाए जाते हैं वे सारे के सारे वे होते हैं जिन्हें अच्छे इंसान के लिए वर्जित माना गया है।
भौतिक विलासिता और भोग, चरम लोकप्रियता और वैश्विक प्रतिष्ठा पा जाने के बाद भी कोई आदमी न संतुष्ट हो पाया है, न आनंद की प्राप्ति ही कर पाया है। उसे इस मुकाम पर पहु ंच कर भी लगता है कि वह नितान्त अधूरा है और अभी कुछ कमी रह गई है जिसे प्राप्त करना शेष है। और ऎसे ही सोच-विचार के साथ उसकी आत्मा देह का साथ छोड़कर चली जाती है।
भोग-विलासिता और भौतिक चकाचौंध इंसान कभी अपने लिए नहीं करता । जो लोग भौतिक माया में पड़ते हैं या घनचक्कर बन कर घूमते रहते हैं उन सभी लोगों का उदाहरण देख लिया जाए तो वे जो कुछ करते हैं दूसरों को दिखाने और अपने आपको महान दर्शाने तथा स्थापित कराने के लिए ही करते हैं और उनकी सारी वृत्तियां बाहरी हलचलों पर केन्दि्रत होती हैं। इनकी हर गतिविधि अपनी न होकर परायों पर आश्रित होती है। फिर चाहे कपड़े-लत्तों और आभूषणों का शौक हो, वाहनों और आलीशान भवनों या फॉर्म हाउसों को शौक हो या फिर ऎसे शौक जो रात के अंधेरों की तलाश में रहा करते हैं या कि दैहिक सुख से संबंधित हों, इन सभी में इंसान कोई सा कार्य स्वयं के लिए नहीं करता। उसे अपने प्रत्येक कर्म में दूसरों लोगों की वाहवाही और प्रशंसा सुनने की लत पड़ जाती है और यही लत उससे दुनिया के तमाम उल्टे-सीधे काम करा लिया करती है जिससे उसका पूरा जीवन मकड़ी की तरह होकर रह जाता है। और जब कभी तेज हवाओं के झौंके आते हैं, धमाकों के साथ रौशनदान खुल जाते हैं तब तंतुओं का बिखरना शुरू हो जाता है और अन्ततः उनका जो हश्र होता है, वह अपने आप में संसार का सर्वोत्तम सत्य ही कहा जा सकता है।
पूरी दुनिया को अपनी मुट्ठी कर लेने के आकांक्षी ये लोग मरते दम तक श्वानों की तरह जीभ लपलपाते हैं, गिद्धों की तरह पैनी निगाह से वार करते हैं और लोमड़ों की तरह अपने ही अपने गोरखधंधों में रमे रहकर उदरपूर्ति और दूसरे अंगों की भूख तथा प्यास बुझाने में रमे रहते हैं।
इन्हीं हालातों में इनका अहंकार भी परिपक्व हो उठता है और कालान्तर में इनके अधःपतन के सारे पिछले दरवाजे भगवान अपने आप खोलता रहता है। भौतिकता में आनंद तलाशने वालों का यही हश्र होता आया है। इसके विपरीत जो लोग अपने सम्पूर्ण जीवन में लौकिक होते हुए भी अध्यात्म को अंगीकार कर लिया करते हैं वे ईश्वरीय अनुकंपा से अनासक्त होकर सारे भोग भी भोगते हैं और सम्पूर्ण आनंद को भी प्राप्त कर लिया करते हैंं।
यही अंतर है एक भौतिकवादी और एक अध्यात्मवादी में। भौतिकवादी हर भोग पर अपना अधिकार जताना चाहता है और अधिकारपूर्वक भोग-विलासिता में लिप्त होता है जबकि एक अध्यात्मवादी इन सभी को अपना नहीं मानता और ईश्वरीय मानकर उपयोग और उपभोग करता है इसलिए उसमें न कत्र्ता का भाव होता है, न स्वामीत्व का, और न ही इन वस्तुओं और भोगों को हमेशा अपने बनाए रखने के लिए किए जाने वाले प्रपंचों और गोरखधंधों का झमेला।
तमाम प्रकार की समस्याएं, तनाव, उद्विग्नताएं और असंतोष, कलह, द्वेष आदि भी वहीं होते हैं जहाँ हम किसी व्यक्ति या वस्तु को अपना मानने, बनाने और बनाए रखने की मानवीय भूल को स्वीकार कर लेते हैं।
आध्यात्मिक चिंतन में ऎसा नहीं होता। जो कुछ है वह भगवान का दिया हुआ है और सभी के लिए है, अपने ही अपने आप तक सीमित नहीं है। इसके साथ ही सब कुछ पूरी तरह पारदर्शी है, कहीं से कुछ भी ढंका हुआ नहीं है।
यही कारण है कि आध्यात्मिक चिंतन अपनाने के बाद कहीं से कोई प्रश्न उठ नहीं सकता, जो कुछ है वह सबके सामने है और सभी के लिए है। लोग अपने क्षुद्र स्वार्थों और मामूली ऎषणाओं की पूर्ति, व्यक्ति मोह, स्थान मोह और प्रतिष्ठा मोह में पड़कर भौतिकतावादी सोच बना लिया करते हैं और ऎसे-ऎसे भौतिक चकाचौंधी लोगों के पीछे दुम हिलाने लगते हैं जो उन्हें न सुख दे सकते हैं, न आनंद ही।
हमारे लिए और लोग कुछ कर सकें या नहीं कर सकें, दोष उनका नहीं है, बल्कि हमारा ही है जो हमने अपनी भौतिक दृष्टि में उन्हें बड़ा और प्रभावशाली मान लिया है। हमें पता होना चाहिए कि जिन लोगों से हम कुछ अपेक्षा रखते हैं वे तो हमसे भी बड़े भिखारी हैं और अपने पद, प्रतिष्ठा तथा वैभव को बरकरार रखने के लिए बड़ों-बड़ों से लेकर भगवान के दर पर भी दिन-रात भीख मांगते नज़र आते हैंं ।
आम इंसान तो जगता हुआ ही भीख मांगता है लेकिन ये लोग इतने बड़े भिखारी हैं कि नींद की गोलियां खाने के बाद सपने में भी अपने आपको भीख मांगते देखने के आदी हो गए हैं। जबकि अध्यात्मवादी लोगों का सीधा संबंध ईश्वर से होता है और वे भीख नहीं मांगते बल्कि प्रार्थना करते हैं कि हे ईश्वर, हमारे मन की मत कर, तेरे मन की कर।
ये लोग हर हाल में मस्त होते हैं क्योंकि जीवन की प्रत्येक घटना-दुर्घटना और परिवर्तन को ये ईश्वरीय विधान मानकर चलते हैं और यही कारण की मोक्षगामी और ईश्वरगामी लोग प्रवाह के साथ बहते हुए आनंद के महासागर में रमण करते रहते हैं।
जीवन व्यवहार में अध्यात्म का समावेश ही एकमात्र ऎसी संजीवनी बूटी है जो दुनिया के सारे झंझावातों को ठिकाने लगाकर परम शांति एवं आत्म आनंद का अहसास कराने का भरपूर सामथ्र्य रखती है।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com
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