क्या देश बनाएंगे? ये मरे हुए लोग - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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सोमवार, 23 जून 2014

क्या देश बनाएंगे? ये मरे हुए लोग

कोई कितना ही भरोसा करे हम देशवासियों पर, लेकिन हम कितने तैयार हैं अपने समाज, क्षेत्र और देश के लिए। इस बात को हम थोड़ी देर गंभीरता से सोचें तो कड़वा सच हम सभी के सामने आ ही जाएगा। और वह सच क्या होगा, हम सभी को पता है। 

अपनी निगाहें हम कहीं भी दौड़ाएं या अपने आपको आईने में ही देख लें। आईना और आँखें कभी झूठ नहीं बोलती।   सच कहें तो अब हम जानदार नहीं रहे बल्कि जैसे-तैसे जान ढोने वाले होकर रह गए हैं।  समाज-जीवन का कोई सा क्षेत्र हो, हर तरफ मायूस, उदास और हताश लोगों का जमावड़ा होता जा रहा है जो उत्सवी उछलकूद के सिवा और कुछ नहीं कर सकता।

माहौल में उत्तेजना हो तब तो आसमान तक छलांगें भर लेने को उतावले रहते हैं लेकिन आम दिनों में हमारी स्थिति ऎसी नहीं रह पाती जैसी कि हमसे अपेक्षाएं और आशाएं हुआ करती हैं।  पुराने घी में तो अभी खूब दम है और यही वजह है कि काफी सारे कामों से हम फुर्सत पाए हुए हैं। लेकिन नई पीढ़ी को जाने कौनसा ग्रहण लग गया है कि हर तरफ उदासीनता और मायूसी ही चेहरों पर छाई रहने लगी है।

युरिया और दूसरे ऊर्वरकों से लेकर दूध-दही और शुद्ध घी की कमी कारण हो या फिर गुटखों और दूसरे तमाम प्रकार के नशों और बुरे व्यसनों की मार। कुल मिलाकर स्थिति यह हो चली है कि हम सारे के सारे लोग असमय क्षरण के शिकार हो गए हैं। बीमारियां हमें घेरती जा रही हैं, चश्मों के नंबर बढ़ रहे हैं, कुलियों की तरह पीठ पर बोझ बढ़ता जा रहा है और शरीर खेंखड़ी होता जा रहा है। खूब सारे अपेक्षा से अधिक थुलथुल हो गए हैं।
जो शारीरिक रूप से हृष्ट-पुष्ट हैं उनके दिमाग और चाल-चलन का कोई भरोसा नहीं रहा। सब कुछ असंतुलन की भेंट चढ़ा हुआ है। दोष किसे दें। हम सारे के सारे किसी न किसी रूप में दोषी हैं और मजे की बात यह कि दोष स्वीकारने का साहस तक हममें नहीं है।

आजकल सड़कों पर चलने वालों को देखें तो ऎसे चलते नज़र आएंगे जैसे कि बीमारों का कोई जुलूस जा रहा हो या टीबी के मरीज अस्पताल की राह पर हों। दुपहिया वाहनों पर भी ऎसे बैठंंेंगे जैसे कि झुके हुए हों और किसी ने हिदायत दे रखी हो कि गर्दन ऊँची मत करना, वरना देख लेंगे।

सभी आयु वर्गों वाले खूब सारे औंधे मुंह किए दिन-रात मोबाइल में घुसे रहने लगे हैं। बहुतेरे ऎसे हैं जिन्हें घरों में रहना बुरा लगता है इसलिए इधर-उधर गपियाते या पाटों, पेढ़ियों पर बैठने के आदी हो गए हैं। कुल मिलाकर अब हममें वो माद्दा रहा ही नहीं कि अपने लिए कुछ खास करके दिखाएं, क्षेत्र या समाज को कुछ दें, देश के लिए कुछ करें।

जैसा चल रहा है, वैसा चलता रहे, इसी में हम सब खुश हैं। ऊपर से लेकर नीचे तक सारे यथास्थितिवादी और जड़ बने हुए ऎसे रह रहे हैं जैसे पूरी जिंदगी टाईमपास ही हो, और हर क्षण लगता है कि जैसे जीना बेकार है, ऊपर वाला कब बुलावा भेज दे।

समुदाय की यह उदासीनता और मरणासन्न अवस्था में जीने की आदत यों ही चलती रही तो वह समय दूर नहीं जब हम सब फिर से उस जगह होंगे जहां न स्वाधीनता होती है, न अपने मन से कुछ भी करने की स्वतंत्रता। सोचना हमें ही है।





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---डॉ. दीपक आचार्य---
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