निःषुल्क एवं अनिवार्य षिक्षा विधेयक, संसद द्वारा पारित एक विधेयक है। इस विधेयक को संसद द्वारा 2009 में पास किया गया और इस विधेयक के पास होने के बाद बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य षिक्षा का मौलिक अधिकार मिल गया। इसके तहत 6 से 14 साल के बच्चों को मुफ्त षिक्षा उपलब्ध करायी जाएगी। साल 2010 से पूरे देष में षिक्षा का अधिकार कानून लागू है। इस कानून के तहत हर एक किलोमीटर में प्राथमिक और तीन किलोमीटर के दायरे में माध्यमिक विद्यालय होना ज़रूरी है। इसी तरह एक स्कूल में 30-35 छात्रों पर एक अध्यापक का होना अनिवार्य है। देष के पूर्व राश्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम ने 2020 तक पूरे देष के षिक्षित होने का सपना देखा था। लेकिन षिक्षा की मौजूदा स्थिति को देखते हुए उनके इस सपने के पूरे की उम्मीद कम ही नज़र आती है। षिक्षा के सार्वभौमिकरण के लक्ष्य को पूरा करने के लिए सरकार की ओर से हर संभव प्रयास किया जा रहा है। बावजूद इसके ग्रामीण क्षेत्रों के साथ सीमावर्ती इलाकों में षिक्षा की स्थिति दिनों दिन बदतर होती जा रही है। जम्मू प्रांत के पुंछ जि़ले में षिक्षा का हाल बेहाल ही है। पुंछ जि़ले की तहसील मंडी के नाड़बलनोई गांव के वार्ड नंबर पांच के मीडिल स्कूल में बच्चों की जगह बकरियां स्कूल जाती हैं। ऐसा इसलिए कि यह स्कूल सप्ताह में सिर्फ एक ही बार खुलता है और बाकी दिनों में स्कूल में बकरियां निवास करती हैं। इस स्कूल में दो अध्यापक, एक अध्यापिका और तकरीबन 50-60 बच्चे हैं। स्कूल की बदहाल व्यवस्था के कारण गांव के केवल 20 प्रतिषत बच्चों की पढ़ाई-लिखाई ही ठीक से हो पा रही है। इस गांव के ज़्यादातर बच्चे स्कूल ही नहीं जाते हैं और जो जाते भी हैं, वह स्कूल में खेलकूद कर वापस चले आते हैं। इस स्कूल की सबसे खास बात यह है कि यहां सप्ताह में सिर्फ एक दिन अध्यापक और अध्यापिका अपनी हाजि़री लगाने 11 बजे आते हैं और 1 बजे वापस चले जाते हैं। लोगों की लाख षिकायतों के बाद भी आज तक कोई भी षिक्षा अधिकारी यहां पर नहीं आया है और न ही इस समस्या का कोई हल निकालने की कोषिष गई है।
यहां के नायब सरपंच अब्दुल रहमान कहते हैं कि षिक्षा के दृश्टिकोण से आज भी यहां के लोग काफी पिछड़े हुए हैं। स्कूल तो सिर्फ कागज़ी रिकार्ड में ही चल रहा है, अस्ल में सच्चाई तो यह है कि यहां के बच्चों का भविश्य बर्बाद हो रहा है। सरकार अध्यापकों को वेतन देती है, इसके बावजूद वह बच्चों का राषन बेचकर घर का खर्चा चलाते हैं। स्कूल की अध्यापिका ड्यूटी नाड़बलनोई में है पर धाराना में लेटी हुई आराम करती रहती हैं। जैड ई ओ और सी ई ओ के चक्कर लगाते लगाते अब हमें भी चक्कर आने लगा है, मगर स्कूल की हालत बेहतर होने का नाम ही नहीं ले रही है। वार्ड नंबर पांच के मेंबर मोहम्मद सलीम कहते हैं कि स्कूल की हालत बहुत बुरी है। सप्ताह में सिर्फ एक दिन अध्यापक स्कूल आते हंै और थोड़ी देर रूक कर अपनी हाजि़री लगाकर घर वापस चले जाते है। स्कूल में एक अध्यापिका हैं जो कभी स्कूल ही नहीं आईं। जैड ई ओ सब कुछ जानकर भी उनपर कार्रवाई नहीं करते हैं। इसके अलावा यहां के बच्चों को किसी दूसरे स्कूल में भी दाखिला नहीं मिलता क्योंकि इस स्कूल का पांचवी कक्षा का छात्र अपना नाम भी ठीक से नहीं लिख सकता। उन्होंने आगे बताया कि एक बार तंग आकर हमने मनकोट में हड़ताल की, वहां तो हम लोग अपना अधिकार मांगने गए थे, लेकिन बदले में हमें दफा नंबर 342, 341 और 141 मिले। ससी बी का कहना है कि उनके दो बच्चे इसी स्कूल में पढ़ते हैं। स्कूल की खराब हालत को देखते हुए उन्होंने अपने बच्चों की सर्टिफिकेट मांगी पर अध्यापक ने देने से मना कर दिया और कहता है कि जैड ई ओ जम्मू गए हैं। एक बार तो उसने यह कहा नहीं दूंगा जो करना है कर लो।
स्कूल की बदहाल व्यवस्था पर गांव के स्थानीय निवासी मोहम्मद रषीद अपनी राय रखते हुए कहते हैं कि जब से यह स्कूल बना है तब से लेकर आज तक सिर्फ आठवें दिन एक घंटे के लिए अध्यापक अपनी हाजि़री लगाने आता है। बच्चे रास्ते में स्कूल आ ही रहे होते है कि अध्यापक हाजि़्ारी लगातकर अपने घर वापस चला जाता है। मोहम्मद रषीद आगे कहते हैं कि अगर कोई अध्यापक आकर स्कूल को बेहतर तरीके से चलाए तो हम स्कूल को कमरा देने के लिए तैयार हैं, मगर ऐसा होना यहां संभव नहीं है। इसी स्कूल के आठवीं कक्षा के छात्र मोहम्मद तारीफ कहते हैं कि हमारे अध्यापक सप्ताह में सिर्फ एक बार स्कूल आते हैं। अध्यापक के न आने के बावजूद हम सप्ताह के बाकी दिनों में भी स्कूल जाते हैं और अध्यापक का इंतेज़ार करते हैं। मिड डे मील के बारे में इस छात्र का कहना है कि मास्टर साहिब जिस दिन स्कूल आते हंै, अपने साथ दो किलो चावल लिफाफे में डालकर लाते हैं और बाकी बचे को बेच देते हैं। षबनम कौसर इसी स्कूल में तीसरी कक्षा में पढ़ती है, वह अपना नाम कुछ अंदाज़ में लिखती हैं ेींउ ावनेत। इस बारे में इनके माता-पिता का कहना है कि इसका जि़म्मेदार कौन है? गांव के स्थानीय निवासी मोहम्मद फारूक कहते हैं कि स्कूल की खराब हालत होने की वजह से मैंने अपने बच्चों को अपने से अलग 25 किलोमीटर दूर अपने रिष्तेदारों के यहां छोड़ रखा है ताकि वह अच्छी तरह पढ़ सकें। वह आगे कहते हैं कि अगर इस स्कूल की हालत ठीक होती तो मुझे अपने बच्चों को इतनी दूर नहीं भेजना पड़ता। इस गांव के एक और स्थानीय निवासी मोहम्मद आज़म ने बताया कि यहां स्कूल की हालत अच्छी न होने की वजह से यहां के कुछ बच्चे सात किलोमीटर दूर सागरा पढ़ने के लिए जाते हैं। सागरा जाने के लिए बच्चों को सुबह 6 बजे निकलना पड़ता है और षाम को थके हुए वापस आते हैं। ऐसे में बच्चों को पढ़ाई के लिए वक्त ही नहीं मिलता है। कहने को सरकार ने 14 साल तक के सभी बच्चों को पढ़ाने की जि़म्मेदारी ली है लेकिन सरकार यहां एक भी दिन अच्छी तालीम का बंदोबस्त नहीं कर सकी है।
इरफान याकूब
(चरखा फीचर्स)
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