आलेख : बाहर निकालें, भीतर के जानवर - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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सोमवार, 14 जुलाई 2014

आलेख : बाहर निकालें, भीतर के जानवर

 हम सभी लोगों का जानवरों से सीधा और सनातन रिश्ता रहा है। न जानवर हमारे बिना रह सकते हैं, न हम जानवरों के बिना। जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त जानवरों को हमारी, और हमें जानवरों की तलाश बनी रहती है। जीवन निर्वाह के साधनों से लेकर रोजमर्रा की जिन्दगी के जरूरी कामों में जानवरों और इंसान की पारस्परिक जरूरतों और भागीदारी को छोड़ भी दिया जाए तो जानवरों और हमारा संबंध कभी परिभाषित तौर पर, कभी अपरिभाषित रूप से निरन्तर बना ही रहता है। एक दूसरे के बिना किसी का काम नहीं चलता। 

जितने जानवरों को हम जानते हैं, उतने सारे जानवरों के मौलिक गुणधर्म इतने सारे हैं कि हर  जानवर में कम से कम एक अपना विशिष्ट गुण होता ही है जिसकी वजह से वह जानापहचाना  जाता है। ग्राह्यता के मामले में हम जानवरों से कहीं आगे हैं, हों भी क्यों न, हमारे पास बुद्धि है, समाज है, इसीलिए हमें बुद्धिशाली और सामाजिक प्राणी कहा जाता रहा है।

जानवरों ने अपनी मौलिक पहचान हमेशा बरकरार रखी है, आचरणों और जीवनचर्या के मामले में हर जानवर मौलिकता को अपनाते हुए पूरे अनुशासन में बनाऔर बंधा  रहता है। वे कभी किसी मामले में दांये-बांये नहीं होते। जानवर हमसे कुछ नहीं सीख पाए हों या जानवरों को अच्छी तरह यह अहसास पहले से ही हो कि इंसानों से कुछ सीखने और आजमाने का मतलब है आत्मघात। और इसीलिए वे सारे के सारे अपने परंपरागत हिसाब-किताब को सामने रखकर चलते रहे हैं और मस्त हैं। लेकिन हमने जानवरों को अपना लिया है। इसमें जानवरों के तमाम गुणावगुणों से लेकर जानवर-धर्म तक शामिल है।

हमने अपनी बौद्धिक संपदा का भरपूर उपयोग करते हुए सामाजिकता के आवरण को ओढ़कर इतना कुछ सीख लिया है कि अब तो यह लगने लग गया है कि शायद जानवरों को भी अपने गुणधर्म और विशेषताओं के बारे में इतना सब कुछ पता नहीं होगा जितना हम समझ कर अपने जीवन में उतार लाए हैं।

जानवरों की तादाद बाहर भले ही घटने लगी हो पर अब ये सारे के सारे जानवर हमारे भीतर प्रतिष्ठित हो गए हैं। मन के कोनों से लेकर दिमाग की ताकों, टाण्डों और खूंटियों तक किसम-किसम के जानवर टंगे हुए हैं। कहीं कम, कहीं ज्यादा। हो सकता है कहीं कोई इक्का-दुक्का। पर हैं सभी में।

हमारे खान-पान, बोली, व्यवहार और जीवनचर्या से लेकर लोक व्यवहार तक  झलकता है कि यह इंसान की भाषा और व्यवहार नहीं हो सकता, कोई न कोई जानवर जरूर है भीतर। वह पालतु या जंगली हो सकता है, हिंसक या अहिंसक हो सकता है। मगर है हमारे भीतर ही। और इतने गहरे तक घुसा हुआ है कि हमारी वाणी से लेकर व्यवहार तक के सारे पक्षों में साफ-साफ झलकता भी है, और कई-कई बार हमारा चेहरा ही बता देता है कि आखिर भीतर कौन सा जानवर हो सकता है।

इंसान अपनी मौलिकता, नैतिक मूल्य और चरित्र, संवेदनशीलता, जीव और जगत के प्रति करुणामूलक व्यवहार आदि सब कुछ भुलाता जा रहा है और उसकी जगह उसका  जिस्म और व्यवहार सूक्ष्म से लेकर स्थूल धरातल तक सभी स्थानों पर जानवरी गंध देने लगा है।

हम सभी के व्यवहार और बोलचाल, भाषा शैली और भाव मुद्राएं, चेहरे की बनावट सभी से साफ पता चल ही जाता है कि हमारे भीतर कोई न कोई पशु विराजमान है। जिन लोगों का चित्त शुद्ध होता है वे चेहरे और भावों को देखकर दूर से ही साफ-साफ बता सकते हैं कि कौनसे जानवर की गंध आ रही है। जानवर की किस्म का पता चले या नहीं, मगर इतना अवश्य है कि आजकल हमारा व्यवहार जानवरी होने लगा है। हमारे भीतर कभी कम, कभी ज्यादा जानवरों का अस्तित्व दिखने लगता है, कई बार तो हमारी गैर मानवीय हरकतों को देखकर लगता है कि जैसे पूरा जंगल ही हमारे भीतर हो, और हम इतने जंगली भी हो सकते हैं, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।

इंसान का कोई भरोसा नहीं, वह किसी भी हद तक जा सकता है, कुछ भी कर या करवा सकता है। चाहे जितने जानवरों का स्वभाव संग्रहित और प्रकट कर सकने का वह पूरा सामथ्र्य रखता है। संस्कारों और नैतिक मूल्याेंं के जमाने में जानवरों की हिम्मत नहीं हुआ करती थी कि इंसान क े दिमाग और दिल में घुस जाए, कुछ दशकों से इंसान के भीतर जानवरों के अधिरोपित होने का जो दौर चल पड़ा है उसमें आजकल खूब सारे इंसानों का जमघट है जिनकी हरकतों को देख कर कहा जा सकता है कि वे किन-किन जानवरों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।

मानवीय संवेदनओं और मूल्यों को तिलांजलि  देने वाले हम लोगों ने अपने स्वार्थों के हिसाब से जानवरी कल्चर को अपना लिया है। हम अपने कामों को लेकर भौंकने, रेंकने, हिनहिनानेदुलत्ती झाड़ने, चिंघाड़ने, रुदन करने, चिल्लपों मचाने, नाखूनों, खुरों, सिंगों, दाँतों से लेकर सभी प्रकार के जानवरी हथियारों का प्रयोग आजमाने लगे हैं।

अंधे स्वार्थ और ऎषणाओंभरे जंगल का पूरा माल उड़ा लेने के चक्कर में हमने सारे बंधुत्व और कौटुम्बिक भावों को भुला दिया है। हमारे लिए घर-परिवार, कुटुम्ब, समाज या समुदाय, क्षेत्र या देश कोई मायने नहीं रखता। हमें हमारी ही हमारी पड़ी रहती है और इसके लिए हम नंगे होकर किसी भी नदी में छलांग मारने को हमेशा उत्सुक रहने लगे हैं। हमारे लिए न कोई मर्यादाएं या लाज-शरम  हैं, न कोई अनुशासन।

अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में हम ऎसे खूब सारे लोगों के बारे में सुनते है, खूब सारों को देखते हैं जिनकी हरकतों को देखकर उन्हें जानवरों के नाम से बुलाया जाता है अथवा लोग इनकी जानवरों से तुलना करने लगते हैं। ऎसे इंसानों की तुलना किसी और इंसान से करने की बजाय किसी न किसी जानवर से की जाती है ।
इंसान के स्वभाव से ही पता चल जाता है कि उसकी पशुता किस जानवर से संबंध रखती है। कुछ में दो-चार पशुओं के ही गुण होते हैं जबकि कई सारे ऎसे होते हैं जिनमें दुनिया के तमाम हिंसक और खूंखार पशुओं के भरपूर लक्षण देखने को मिलते हैं। इन लोगों के चेहरों पर भी इन्हीं पशुओं की मुखाकृति दिखने लगती है। बहरहाल, कुछ भी हो, मानवी संस्कृति की रक्षा के लिए जरूरी हो चला है कि हम अपने भीतर के जानवर को बाहर निकालें और मनुष्यत्व की पूर्ण प्रतिष्ठा करें।







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---डॉ. दीपक आचार्य---
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