आलेख : साफ कहें, सुखी रहें - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

आलेख : साफ कहें, सुखी रहें

कहावत है साफ कहना और सुखी रहना। लेकिन आजकल इसका उलटा हो गया है। साफ-साफ नहीं कहकर घुमा-फिरा कर कहना, पहेलियों की तरह उलझनें बनाए रखना और ऎसा कुछ करना कि अपने मुँह से साफ-साफ कहना भी नहीं पड़े और सामने वाला या तो समझ जाए अथवा नासमझ बना रहकर गुत्थियां सुलझाने के भंवरजाल में फंस कर तनावों को अपना सहचर बना ले।
       
जो लोग हृदय की भाषा समझते हैं उनकी वाणी हृदय से ही निकलती है और उसमें मिलावट नहीं होती। ऎसे लोग वास्तव में साफ कहने और सुखी रहने को जीवन के मूल मंत्र के रूप में स्वीकारते हैं। लेकिन ऎसे लोग होते बहुत कम हैं जो सुखी और मस्त जीवन जीते हैं।
       
अधिकांश लोग तो बहुरूपियों सी जिंदगी जीते हैं। उनकी कथनी, करनी और समस्त प्रकार के व्यवहार में आडम्बर और भरपूर दिखावा बना रहता है। वे जो कुछ बोलते हैं वह उनके दिमाग में विद्यमान लोभ-लालच की छलनियों से निकल कर ही बाहर आता है और उसमें नाम मात्र की शुद्धता भी नहीं होती। जो कुछ होता है वह सामने वाले को या तो भ्रमित करने के लिए होता है अथवा प्रभावित करने या कि औरों को दिखाने भर के लिए।
       
हालांकि यह भी पूर्ण सत्य है कि हृदय से निकल कर दिमाग के गलियारों से फिल्टर होकर होंठों से बाहर निकलने वाले बोल में उतनी ताकत नहीं होती जितनी हृदय से सीधे बाहर आने वाले शब्दों या वाक्यों की। किसी भी तत्व की सांद्रता और परिपूर्ण प्रभाव तभी सामने आ सकता है जबकि वह विशुद्ध हो, इसमें तनिक सी भी मिलावट हो जाने पर उसका अपना मौलिक स्वभाव नष्ट हो जाता है और ऎसे में ये शब्द खोखले और बेदम ही होते हैं।
       
यही कारण है कि आज लोगों के भाषणों और उपदेशों का सामने वालों पर कहीं कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। चाहे कितने लच्छेदार भाषण हों, मगर उनमें सत्य और यथार्थ की सांद्रता का घनत्व बिल्कुल शून्य होता है इसलिए प्राणहीन शब्दों का कोई असर सामने नहीं आ सकता।
       
उन्हीं लोगों की वाणी अपना प्रभाव डालती है जो धर्म, सत्य और न्याय संगत हो, कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं हो तथा जो कुछ कहा जा रहा है उसका उद्देश्य पवित्र हो। हमारी वाणी का प्रभाव तभी पड़ता है जबकि हमारे कर्म उसके अनुकूल हों तथा झूठ का लेशमात्र भी समावेश न हो। जहाँ तनिक सा भी झूठ मिला होगा, बोलने का लक्ष्य दूषित होगा, वहाँ वाणी अपना पूरा प्रभाव खो देगी। यह वह स्थिति होती हे जिसमें हमारे भाषण या उपदेशों को सिर्फ चिल्लाने की परिभाषा तक ही सिमट कर रखा जा सकता है, इस वाणी के प्रकटीकरण का न औरों को लाभ मिलता है, न हमें संतोष। उल्टा हमें अपराध बोध जरूर हो सकता है। हममें से काफी लोग मिथ्या बोलने के इतने आदी हो चुके हैं कि हमें अब अपराध बोध कभी नहीं होता क्योंकि यह अब हमारी जीवनचर्या का अनिवार्य हिस्सा हो गया है।
       
जितना प्रभाव सीधे साधे और स्पष्ट शब्दों में अभिव्यक्ति का होता है उतना घुमावदार अभिव्यक्ति का नहीं। घुमा-फिरा कर बातें करना और परोसना वाग विलास और विद्वत्ता का दंभ भरने के लिहाज से लाभकारी भले हो सकता है, सम्प्रेषण क्षमता के मामले में यह पूरी तरह निरर्थक ही साबित होता है।
       
वाणी का सीधा संबंध व्यक्ति की शुचिता और मन से है। जो इंसान जितना अधिक पाक-साफ होगा, वह उतने ही नपे-तुले शब्दों में सीधी और साफ-साफ बात करता है, सपाटबयानी और निर्भीकता, मौलिकता तथा प्रवाहमयता उसकी वाणी को इतना अधिक शक्तिशाली बना डालते हैं कि सामने वाला कम शब्दों में सारी बात समझ भी लेता है और उस पर गंभीर चिंतन भी करने लगता है।
       
ये शब्द इतने धारदार और ताकतवर होते हैं कि सामने वाले के मन-मस्तिष्क में हमेशा कौंधते रहते हैं। ऎसे स्पष्टवादी और निर्भीक लोग अपने जीवन और व्यवहार में भी उतने ही पवित्र और स्पष्ट होते हैं जितना कथनी में। इसके ठीक उलट जो लोग केवल बोलने के लिए ही बोलना चाहते हैं या चाहे जहाँ बोलने की बीमारी से ग्रस्त हैं, उनकी वाणी न विशुद्ध होती है, न प्रवाही तेवर वाली। क्योंकि ये लोग बोलने से पहले अपने विचारों को दिमागी गलियारों की सैर कराते रहते हैं और स्वार्थ का तड़का लगाकर ही बोलते हैं। इससे इनके शब्दों का मूल भाव नष्ट हो जाता है और सिर्फ वाग् विलास और दूसरों को भरमाने या प्रभावित करने का ही मकसद काम करता है।
       
ये दिगर बात है कि ताकत खो चुके, प्रदूषित और स्वार्थ भरे शब्द अपनी ऊर्जा को पहले ही खो देते हैं जब मस्तिष्क मेें इनकी लाभ-हानि का अरणी मंथन होता है। इन स्वार्थी और मक्कार लोगों का जीवन भी स्वार्थजन्य जटिलताओं भरा होता है। इनका पूरा व्यक्तित्व जलेबी की तरह होता है। ऎसे लोगों को समझ पाना कठिन जरूर है लेकिन समझदार लोग इनकी वाणी में छिपे अदृश्य कारणों को समझने में कामयाब रहते हैं। 
       
इस श्रेणी में आने वाले तकरीबन सारे ही लोग चाशनी छाप मिठास लिए हुए होते हैंं और मौका देखकर अपनी बात कहने तथा मनवाने के लिए तमाम जतन करने वाले होते हैं। व्यक्तित्व और व्यवहार में शुचिता रखने वाले लोग ऎसे चाशनी छाप बातूनियों और वक्ताओं के दिल और दिमाग को पूरा स्कैन कर इन्हें अच्छी तरह भाँप लेते हैं लेकिन आम लोग इनके बहकावे में आकर ऎसे लोगों के अंधानुचर बन भेड़ का स्वभाव पाल लिया करते हैं और इन्हें महान मानकर खुद को महानता की राह दिलाने के लिए इनके पीछे-पीछे चलने वाली रेवड़ का हिस्सा हो जाते हैं।
       
साफ-साफ बयानी करने वाले लोग जिन बातों को दो-चार शब्दों के कह डालते हैं, उन्हीं बातों को हजार शब्दों में व्यक्त करने के बावजूद भी ये घुमावदार लोग अच्छी तरह समझा नहीं पाते हैं। अभिव्यक्ति के लिए शब्दों की संख्या की बजाय शब्दों की शुचिता, नीयत का साफ होना और शब्द का घनत्व एवं सांद्रता ही मायने रखती हैं। इसलिए जो कुछ कहें, जिसके बारे में कहें, सब कुछ पारदर्शी स्वभाव और मन की पवित्रता अपनाते हुए साफ-साफ कहें। अन्यथा चबा-चबा कर बातें करने वाले, लच्छेदार भाषणों से भरमाने वाले और चाशनी से भी अधिक मिठास भरे वक्ताओं की अभिव्यक्ति टाईमपास और चिल्लाहट के सिवा कुछ असर नहीं छोड़ती।





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---डॉ. दीपक आचार्य---
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