सर्वशक्तिमान परमात्मा ने हम सभी को सम्पूर्ण मानवी ताकत और सामथ्र्य देकर भेजा है लेकिन हममें से अधिकांश लोग न तो अपने भीतर समाहित शक्ति के बारे में जानते हैं, न उसका उपयोग कर पाते हैं और न उपयोग करना चाहते हैं।
हमारे जीवन की सभी समस्याओं और विफलताओं के पीछे यही हीन भावना है जिसकी वजह से हम पूरी जिन्दगी दूसरों के भरोसे जीने और परायों की कृपा पर रहने को विवश रहते हैं। इस कारण से हम भले ही स्वतंत्र देश के नागरिक कहे जाते हों मगर हमारा हाल गुलामों और बंधकों से भी गया गुजरा हो गया है। दास और नज़रबंद या कैदी तो बंधे रहकर भी अपने मन की सोच के दायरों को दुनिया के कोनों से लेकर ब्रह्माण्ड तक की सैर कराते रहते हैं। एक हम हैं जो स्वतंत्र होकर भी नज़रबंदियों और कैदियों से भी खराब जीवन जी रहे हैं और वह भी अपने कर्मों से।
हमने मनुष्य के रूप में जन्म लेने के बाद कभी इस बात पर गौर नहीं किया कि ईश्वर ने हमें किन-किन शक्तियों से नवाजा है और एक आम इंसान क्या कुछ नहीं कर सकता है। मनुष्य ईश्वर का अंश है और ईश्वर चाहता है कि उसका अंश ईश्वरीय क्षमताओं के साथ ऎसा कुछ करे कि खुद भगवान को भी अपने बंदों पर गर्व हो और अपनी सृष्टि के प्रति गौरव का भाव स्थापित हो। लेकिन ऎसा हो नहीं रहा।
हमारे भीतर अपार ऊर्जा और क्षमताएं हैं लेकिन हमने अपने आपको छोटी-छोटी ऎषणाओं, चंद लोगों और मामूली सुविधाओं के जाने कितने सारे दायरों में इतना कैद कर लिया है कि हमें हमारे बारे में भी यह सोचने की फुरसत नहीं रही कि हम क्या हैं, क्यों भेजे गए हैं और हमारे भीतर कितनी क्षमताएं विद्यमान हैं।
हमारा गौरवशाली इतिहास, शौर्य-पराक्रम भरा अतीत, हमारी जीवंत परंपराएं, वैज्ञानिक रहस्यों और तथ्यों से भरपूर हमारी जीवनपद्धति, ईश्वर तक सीधी पहुंच के बारे में ज्ञान देते हमारे मार्ग और हमारा सब कुछ इतना सटीक और प्रभावी है कि उसी का अनुगमन करते रहें तो दुनिया को अपने कदमों में झुका लें।
इन्हीं परंपराओं और सांस्कृतिक मूल्यों, श्रेष्ठतम सभ्यता और आदर्श जीवनपद्धति का ही कमाल था कि हम विश्वगुरु कहलाते रहे। इन तमाम अच्छाइयों के बावजूद आज हम उस दशा में पहुंच चुके हैं जहां मूर्खता, दीनता, हीनता और दरिद्रता की सारी परिभाषाएं ही हमारे आगे बौनी हो गई हैं।
हम हर मामले में पराश्रित जीवन जीने को विवश हैं और इसका खामियाजा यह है कि हम हमारी अस्मिता को भुलाते जा रहे हैं। रोजाना सवेरे उठने से लेकर रात को सोने तक हमने अपनी जीवन पद्धति को इतना आडम्बरी और कृत्रिम बना डाला है कि इसमें हमारी मौलिकता का कोई अंश किसी कर्म में नज़र नहीं आता।
हमने अपनी जीवनपद्धति, संसाधनों और परंपराओं को तिलांजलि ही दे डाली है। जाने क्यों हमारा दिमाग इतना दिवालिया हो चला है कि हमने अपना सब कुछ त्याग दिया है और परायेपन को इतना अधिक ग्रहण कर लिया है कि हमारे पूरे जीवन को ही ग्रहण लग गया है। दिन और रात में हम जो कुछ देखते हैं उसमें कहीं अपनापन नज़र नहीं आता, माटी की गंध कहीं से महसूस नहीं होती।
हमारे पुरखों ने जिन वस्तुओं और विषयों को हमारे लिए वैज्ञानिक कसौटियों पर खरा उतारकर रखा था वे गायब हैं। बात ज्ञान, सेहत और जीवनचर्या की हो या किसी भी कर्म की, हमारी स्थिति उस मछली की तरह हो गई है जो मीठे पानी के समंदर में है फिर भी प्यास बुझाने के लिए किसी बाहरी बोतल के पानी की तलाश बनी हुई है।
हमने हमारे सभी प्रकार के परंपरागत कर्मों और प्रक्रियाओं को गौण मान लिया है और उन सभी को अंगीकार कर लिया है जो हमारे लिए हर दृष्टि से आत्मघाती हैं। हम सभी के पास सेहत और बौद्धिक सामथ्र्य से लेकर वैश्विक महापरिवर्तन की अपार संभावनाओं का पूरा दम-खम है लेकिन कुछ तो हम नालायक हैं और कुछ वे लोग, जिन्होंने हमें गुलाम बनाए रखने को ही जीवन का मकसद समझ रखा है और इसलिए हमेशा गुलामी के तरानों से भरमाते हुए हमें दासत्व परंपरा में दीक्षित कर दिया है। और दीक्षित भी इतना कि हम गुलामों के भी गुलाम होकर जी रहे हैं। जो लोग हमारे लिए नौकर के रूप में हैं उन्हें भी हम अपने अधीश्वर मान बैठे हैं और उन्हें ईश्वर का दर्जा देते हुए वो सब कुछ करने में जुटे हुए हैं जो वे हमसे करवाना चाहते हैं। मदारियों की तरह वे हमें नचा रहे हैं और हम बन्दर-भालुओं की तरह तमाशे को हरसंभव सुनहरे आयाम देने में अपने जमीर, जेहन और जिस्म सभी को स्वाहा करते चले जा रहे हैं।
हम हमारी जड़ों से इतना कट चुके हैं कि हममें हर प्रकार से हीन भावना का संचार हो गया है। हमारी अपनी हर वस्तु या व्यक्ति हमें हीन लगने लगा है और पराये लोग, परायी बातें तथा परायी वस्तुएं हमें भाने लगी हैं चाहे वे हमारी सेहत और जिंदगी, समाज और देश के लिए कितनी ही घातक और मारक क्यों न हों।
अपने धर्म, कर्म, अर्थ और सभी प्रकार की गतिविधियों में हमें हीनता ही नज़र आती है। हम अपने हर मामले में आत्महीनता से ग्रस्त इतने हो गए हैं कि खुलकर न तो गर्व कर पा रहे हैं न अपनी श्रेष्ठ परंपराओं का संरक्षण कर पा रहे हैं।
हमारी परंपरागत जीवनपद्धति, प्रकृति पूजा की प्रथाएं और दिव्य तथा दैवीय ऊर्जाओं का प्रवाह जाने कहां चला गया, इनका स्थान ले लिया है भोगवादी संस्कृति, अपरिमित बहुरूपी वासनाओं और आत्मकेन्दि्रत स्वार्थों ने, जहां अपने-पराये से भी एक कदम आगे बढ़कर सब कुछ हड़प लेने की जाने कौनसी ऎसी कल्चर हम पर हावी होती जा रही है जिसने मनुष्य के भीतर से मनुष्य की गंध निकाल कर पशुत्व और आसुरी गंध भर डाली है। अब भी समय है जब आत्महीनता को त्यागकर स्वदेश के तेज-ओज और परंपराओं पर ध्यान दें, अन्यथा वो समय दूर नहीं जब हम न घर के होंगे, न घाट के।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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