आजकल अभावों का तो पूरा भरोसा होता है लेकिन भावों का नहीं। भाव के साथ उतार-चढ़ाव का क्रम हमेशा बना रहता है। किसी के भी भाव कभी भी गिर सकते हैं, और ऊँचे से ऊँचे चढ़ भी सकते हैं। कभी अचानक उछालें मार लिया करते है। कभी औंधे मुँह धड़ाम से नीचे गिर जाया करते हैं। बहुत कम बार भावों में स्थिरता देखी जाती है।
जहाँ अभाव है वहाँ स्थिरता होती है और इसमें गिरावट का कोई मायना नहीं होता, जितना नीचे गिरता जाएगा वह अभाव ही अभाव कहा जाएगा। फिर अभावों में चढ़ाव की संभावनाएं या तो पैदा ही नहीं होती या फिर धीरे-धीरे इस तरह चढ़ाव होने लगता है कि इसे चढ़ाव नहीं कहकर रेंगना कहना ज्यादा समीचीन है। अभावों से भावों की यात्रा अत्यन्त धीमी और मंथर गतिवाली होती है और इसका परिणाम महीनों की बजाय बरसों में दिख पाता है।
आजकल सर्वत्र भावों का जमाना है। ये भाव ही हैं जो कई बाहरी और भीतरी कारणों से उतरते-चढ़ते रहते हैं। बाहर के मौसम को देखकर भावों का परिवर्तन निरन्तर होता रहता है। भावों की परंपरा बहुरूपिया कल्चर से मेल खाती लगती है जिसमें यथार्थ से वास्ता कम होता है और अभिनय से ज्यादा।
मांग और आपूर्ति के सिद्धान्त के हिसाब से भावों की केमिस्ट्री और फिजिक्स से लेकर फिलॉसोफी तक सब कुछ बदलती रहती है। जिसकी कमी हो जाए उसकी मांग बढ़ जाती है और मांग बढ़ने पर भाव चढ़ जाते हैं। भाव चढ़ने के पीछे भी कई सारे कारण हैं। हर कोई चाहता है कि कम खर्च में अधिक प्राप्त हो। इसलिए सभी लोग भावों को चढ़ता देखने को व्यग्र रहा करते हैं। जिनका जितना बड़ा पेट, जितनी ज्यादा भण्डारण की क्षमता, उतने ही भाव बढ़ाने का इनका अपना सामथ्र्य।
बाकी जगह जिसके भाव बढ़ जाते हैं उसके प्रति लोग फिकर करना छोड़ देते हैं क्योंकि जिसके भाव बढ़ जाते हैं उसका इस्तेमाल करना लोग छोड़ देते हैं जिससे अपने आप इनके भाव अपनी औकात पर आ जाते हैं और सब कुछ पहले की तरह सामान्य हो जाता है।
अपने यहाँ इस मामले में कुछ दूसरे प्रकार का पागलपन हावी है, हमारे यहाँ जिसके भाव बढ़ जाते हैं उसके भावों को और अधिक उछाल देते हुए हम लोग इतनी कद्र करनी शुरू कर देते हैं जैसे कि भगवान या बहुमूल्य वस्तु ही हो गए हों। और ऎसे में इनके भाव सातवें आसमान पर पहुंच जाते हैं और हममें से हर किसी को इनके भाव(भार) आने लगते हैं। इन भावों को हम पूजनीय श्रेणी में ला कर प्रतिष्ठित कर दिया करते हैं।
इस मामले में जापान का उदाहरण लिया जाता है जहां जिस किसी के भाव बढ़ जाते हैं, उसका उपयोग करना वहां के लोग कुछ दिन के लिए छोड़ देते हैं और इस तरह वहां के समझदार, राष्ट्रीय चरित्र से सम्पन्न जागरुक लोग भावों को हमेशा आईना दिखाकर अपनी औकात में बाँधे रखते हैंं।
अपने यहाँ की स्थिति विचित्र है जहाँ जिस किसी के भाव चढ़ जाते हैं लोग पागलों की तरह उसी के पीछे भागने लगते हैं और उसे पाने, अपना बनाने और हथियाने के लिए टूट पड़ते हैं। बात किसी भी प्रकार की वस्तुओं की हो या व्यक्ति की, भावोंं के मामले में हमारा सोच कुछ अलग ही तरह का रहा है।
अपने यहाँ किसके भाव कब चढ़ जाएं, यह कहा नहीं जा सकता। इसके लिए न मौसम का हमें इंतजार रहता है न किसी और परिवर्तन का। हमारे यहाँ वस्तुओं और आदमी के भावों की तुलना शेयर मार्केट, सेंसेक्स, आलू-प्याज और सब्जियों से लेकर गैस, डीजल, पेट्रोल और उन सभी चीजों से होनी शुरू हो जाती है जिनका हमारी रोजमर्रा की जिंदगी से संबंध हो या न हो।
वस्तुओं के बारे में तो भावों का चढ़ना और उतरना आम बात है मगर इंसान के भाव एक बार चढ़ जाने के बाद कभी उतरने का नाम ही नहीं लेते। हमारा अपना अंचल हो या फिर पावन और दिव्य कही जाने की भारतभूमि, सभी जगह ऎसे लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है जिनके भाव लगातार चढ़ते ही जा रहे हैं, कुछेक ही हैं जिनके भाव औंधे मुँह गिर कर धड़ाम से नीचे आ गए हैं। कई सारे ऎसे हैं जिनके भाव कुछ साल ऊपर चढ़े रहते हैं, कुछ साल नीचे। कई तो ऎसे हैं जिनके भाव कितने ही गिरे हुए हों मगर अपने आपको आज भी बेशकीमती भावों का पर्याय मानते हैं।
इंसान की फितरत ही ऎसी है कि एक बार उसके भाव चढ़ जाने के बाद नीचे उतरने का नाम ही नहीं लेते। फिर अपने यहाँ जितना कोई खुद नहीं चढ़ता, उससे ज्यादा वह भीड़ चढ़ाए रखती है जो नीचे से कंधों की ताकत दे देकर ऊपर की ओर थामे रखती है। इस भीड़ का काम ही औरों को ऊपर चढ़ाये रखना है, आज इन्हें चढ़ाये रखेंगे, कल उन्हें। अपने कंधोें की ताकत देने वाले सारे कंधा दानी लोग मिल जाएं तो अलग से एक देश बना सकते हैं। दोनों किस्मों के लोग अपने यहां हैं - कंधे पर चढ़ाने वाले भी हैं और उछल-उछल कर औरों के कंधों पर सवार होकर अपने कद को ऊँचा दिखाने वाले भी।
चढ़ने वालों और चढ़ाने वालों की कई प्रजातियों ने मिलकर आजकल भावों के सारे संतुलन और समीकरण गड़बड़ा दिए हैं। कहीं कोई भावातिरेक होकर आत्ममुग्ध बने हुए है।, कहीं भावशून्यों का कुंभ उमड़ा हुआ है। कइयों के बारे में पता ही नहीं चलता कि उनमें ऎसा कौनसा माद्दा बचा है कि भाव सातवें आसमान तक उछाले मारने के काबिल हों।
हर कोई चाहता है अपने-अपने भावों में उछाल हमेशा बना रहे ताकि उनके मूल्य हमेशा ऊँचाई पर बने रहें, भले ही मूल्यहीनता हावी क्यों न रहे। हममें से कोई यह नहीं बता सकता कि हम उन्हें भाव क्यों दे रहे हैं। भीड़ संस्कृति का यही रोना है। हम सब वही कर रहे हैं जो और लोग कर रहे हैं। आदमी हो या वस्तु, भावों को नियंत्रित करने का काम हमारा ही है। हमारी थोड़ी सी लापरवाही या मूल्यांकनहीनता कभी भी कहर ढा सकती है।
यही सब चलता रहा तो भावों की गणित उन्हें सातवें आसमान तक पहुंचा देगी और हमें रसातल में। उतना ही भाव दें जितना उचित हो। जिस किसी के भाव बढ़ जाएं उसे ठिकाने लगाने और अपनी औकात दिखाने के लिए दो ही रास्ते हैं उपेक्षा करें या परित्याग। अपने आप में यह वह ब्रह्मास्त्र है जो उन सभी को धरातल पर ले आने में समर्थ है जिनके भाव चढ़े हुए हैं। जो समझदार हैं उन्हें चाहिए कि भावों में स्थिरता बनाए रखने के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहें क्योंकि ये भाव ही हैं जो भवसागर से पार नहीं होने देते।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com
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