आलेख : स्त्री का अपमान नहीं हमारा नपुंसकत्व उजागर - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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सोमवार, 21 जुलाई 2014

आलेख : स्त्री का अपमान नहीं हमारा नपुंसकत्व उजागर

शक्ति उपासना की धरती पर कहीं छेड़छाड़, कहीं बलात्कार और कहीं गैंग रेप की घटनाएँ। स्त्री का शील सुरक्षित नहीं है, उसका स्वतंत्र भ्रमण बाधित हो गया है, वह कहीं आ-जा नहीं सकती। स्त्री के वजूद पर चौतरफा हमलों का यह कैसा माहौल हम देख रहे हैं। एक माँ, बहन, बेटी, नानी-दादी, चाची, मामी आदि रूपों में स्त्री का वैविध्यपूर्ण दर्शन ही अपने आप में कितना सुकूनदायी और कोमल अहसास कराने वाला है।

स्त्री जिससे झरता है ममत्व, वात्सल्य, जिससे सदैव उमड़ता रहा है प्रेम का वो सागर जिसका न ओर-छोर है, न कोई आदि-अंत। स्त्री अपने गांव की बहन-बेटी कही जाती है, पूरे गांव की जिम्मेदारी है उसके स्त्रीत्व, शील और लज्जा की सुरक्षा करना, उसकी हिफाजत करना, चाहे वह किसी भी वर्ग, जाति और संप्रदाय की क्यों न हो।

स्त्री गांव और शहर की शक्ति है जिनमें सभी में शक्ति का वो अंश विद्यमान होता है जो सृष्टि में सृजन और पालन का काम करता है। हम ऎसे तो नहीं थे कभी। बौद्धिक दिवालियेपन और हैवानियत की सारी हदों को पार करते हुए हमने स्त्री के साथ जो कुछ करना शुरू कर दिया है वह अपने आपमें मानवता के लिए शर्मनाक और निंदनीय ही नहीं बल्कि हम सभी के लिए कलंक है।

स्त्री को स्त्री से भी ज्यादा हीन मानकर उसे सिर्फ और सिर्फ वस्तु मान कर जो कुछ घटनाएं हो रही हैं उसने असुरों को भी पीछे छोड़ दिया है। स्त्री को समझने की बुद्धि नहीं रखने वाले लोग भी अपनी मर्यादाओं और सामाजिक अनुशासन का परिपालन करते हैं और उसे सम्मान देते हैं। एक हम हैं जो इक्कीसवीं सदी में उड़ान भरने और सभ्य होने का दावा कर रहे हैं और हरकतें ऎसी कर रहे हैं जो कि कबीले भी नहीं करते होंगे।

हमने सारी पराकाष्ठाएं पार कर दी हैं, उन सारी हदों को तोड़ दिया है जो हमें मनुष्य के रूप में  बाँधे रखा करती थीं। स्त्री अपने भीतर अनन्त संभावनाओं को आकार देने वाला वह विराट शक्तिपुंज है जिसे समझने की जो कोशिश करता है वह उसकी सारी खूबियों को जान लेता है, उसका प्रेम और स्नेह प्राप्त कर लेता है और इसी के सहारे शक्ति के उस परम शक्तिमान स्रोत को प्राप्त कर लेता है जो शिवत्व की पूर्णता के लिए अभीप्सित होता है।

स्त्री को भोग्या समझने वाले लोग उनमें से हैं जो स्त्री के हजारवें अंश को भी नहीं समझ पाएं हैं, जबकि स्त्री के भीतर समाहित विराट शक्तितत्व में सृष्टि, पालन और संहार तक की वे सारी क्षमताएं मौजूद हैं जो पिण्ड से लेकर ब्रह्माण्ड तक में महापरिवर्तन की सारी संभावनाओं को आकार दे सकती हैं। स्त्री को कोमल शरीर का ढाँचा मात्र समझने वाले लोग न अपनी माँ-बहन के हो सकते हैं और न ही किसी और के। ऎसे पापात्माओं को जन्म देने वाली माँ की आत्मा तो पछताती ही होगी, इनके पितरों को भी अपने आप पर ग्लानि होती होगी कि आखिर क्यों उन्हीं का वंश बदनामी के कारनामे कर रहा है।

किसी भी स्त्री को प्रताड़ित करना, हाथ उठाना, लज्जा भंग करना, बलात्कार करना आदि नराधमों के सिवा कोई नहीं कर सकता। अपने आपको पुरुष कहलाने वाले लोगों का यह काहे का पौरूष, जिसमें स्त्री को जमीन मानकर साम्राज्यवादी हथियारों और दबावों के बल पर चाहे जो कर लें, और इससे भी अधिक घृणा की बात ये कि उसे मौत के घाट उतारकर उसके लहू से अपने दंभ की कालिख भरी इबारत लिख दें। शर्म, घृणा और दुर्भाग्य के इन नापाक कतरों को धोने के लिए सागर का जल भी कम पड़े।

स्त्री की संरक्षा, उसकी आबरू का सम्मान समाज का धर्म और फर्ज है और जो समाज यह नहीं कर सकता उसे जीने का कोई हक नहीं होना चाहिए। नरपिशाचों के हौंसले आज इसलिए इतने बुलंद हैं क्योंकि समाज प्राणहीन और नपुंसक बना हुआ चुपचाप सब देख रहा है। स्त्री की इज्जत लूटी जाती है और हम सभी लोग मजमा लगाकर सब कुछ देखते रहते हैं, इससे भी अधिक घोर बेशर्मी की हद ये कि स्त्री की लज्जा बचाने के लिए आगे आने की बजाय मोबाइल के कैमरे से फोटो खींच कर सोशल साईट्स पर डालकर अपने आपके सबसे पहले होने का नीचता भरा दंभ प्रकट करने में हमें अपार प्रसन्नता का अनुभव होता है।

स्त्री का शील भंग एक स्त्री का नहीं, पूरे समाज का लज्जा भंग है, पूरे समाज के साथ बलात्कार है। लानत है हम लोगों को जो चुपचाप देखते रह जाते हैं और बलात्कारी पिशाच अपने इलाके में स्त्री का अस्तित्व ही समाप्त कर देते हैं।  हम काहे के पुरुष हैं जो स्त्री की रक्षा नहीं कर सकें, केवल प्रजननशक्ति के बूते अपने आपको पुरुष मानने का भ्रम रखते हों तो यह बात साफ हो जानी चाहिए कि जानवरों में यह ताकत हमसे कई गुना ज्यादा है, न उन्हें किसी दवाई की जरूरत होती है, न तेलमर्दन और वाजीकरण के नुस्खों की, न कुछ और करने की।

जिन-जिन इलाकों में स्त्री के साथ हादसे होते हैं उन सभी जगह के समाज को सार्वजनिक तौर पर नपुसंक घोषित किया जाकर  उस गांव-शहर के प्रवेश मार्ग पर बड़े-बड़े बोर्ड लगाए जाने चाहिए कि हम सब नाकारा, नपुंसक और अधमरे हैं और हम स्त्री की रक्षा नहीं कर सकते।

उन क्षेत्रों में लड़कियों की शादी भी नहीं करनी चाहिए क्योंकि जहाँ के पुरुष अपने गांव की स्त्री की रक्षा नहीं कर सकते, वे बहूओं की रक्षा कैसे कर पाएंगे। स्त्री के भीतर समाहित असीम धैर्य और सहनशीलता की और अधिक परीक्षा नहीं ली जानी चाहिए।

जब समाज नाकारा होकर बैठा रहता है तब स्त्री के भीतर का शक्तितत्व जागृत हो उठता है और जब एक बार शक्ति का जागरण हो जाता है तब भीषण ताण्डव शुरू हो जाता है और इसे रोकना मुश्किल होगा। स्त्री और पृथ्वी पर अत्याचार, अनाचार और पाप बढ़ जाते हैं तब स्त्री के शक्तितत्व का जागरण होने में कोई देरी नहीं होती।

जो घटनाएं हम देख-सुन रहे हैं, चीरहरण से लेकर जो कुछ हो रहा है सब महापाप ही महापाप है और तिस पर भी धृतराष्ट्रों, दुःशासन, दुर्योधनों से लेकर आचार्यों, महारथियों और धर्माचार्यों की चुप्पी और वीर्यहीन व्यवहार ने अब शक्ति तत्व को उद्वेलित कर ही दिया है। हम सब का वजूद जाने कहाँ मर गया है, हम सारे मरे या अधमरे क्यों हो गए हैं, हम सभी को जाने क्यों अजगर सूंघ गए हैं।
       
संहार का शंखनाद हो जाए, इससे पहले का वक्त है यह, संभलने का मौका है, थोड़ी भी मानवता शेष है तो संभल जाएं वरना शक्ति का संहार चक्र ऎसा चलेगा कि कोई नहीं बचने वाला। न पापी और बलात्कारी बचने वाले हैं, न मौन होकर देखने वाले नालायक महारथी। तब सारे अस्त्र-शस्त्र पिघल जाएंगे, ये मालाएं और कमण्डल आंधियों में उड़ जाएंगे और कुर्सियों से लेकर सिंहासन सहित सारे के सारे न जाने कहाँ होंगे कोई नहीं जानता। चेतावनी भरी आकाशवाणी हो चुकी है, अब चुनौती शक्ति के प्रहार से बचने की है, संभलने का वक्त चला गया।




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---डॉ. दीपक आचार्य---
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