‘‘हम सब को इतिहास का ज्ञान होना चाहिए’’ यह गुड़गांव के अस्पताल के गहन चिकित्सा केंद्र (आईसीयू) में लेटे कृशकायी शंकर घोष के अपनी बेटी इला से कहे गए अंतिम शब्द थे। 80 वर्ष की उम्र में सेवानिवृत्ति की योजना बना कर बैठे शंकर घोष 14 जून की रात को कैंसर के विरुद्ध चले अपने लंबे संघर्ष में हार गए। वे अपने 79वें जन्मदिन से कुछ ही महीने दूर थे। तथापि उनका आठ दशको का यह सफर उस युवा भारत की तरह ही संपन्न अ©र र¨मांचक था जिसे उन्ह¨ंने अपनी आंख¨ं के आगे आकार ग्रहण करते हुए देखा था। पटना में एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी तथा एक उत्साही युवा गृहिणी, ज¨ एक सक्रिय स्वतंत्रता सेनानी भी थीं, के घर जन्मे शंकर घ¨ष चार भाई-बहन¨ं में सबसे बड़े थे। उन्ह¨ंने अलग-अलग मिशनरी स्कूल¨ं में पढ़ाई की जिसकी वजह से उनका इसाई धर्म से लगाव ह¨ गया। इस लगाव ने उनके अंदर अध्यात्म की गहरी भावना पैदा की, जिसने उन्हें हर मुश्किल से जूझने की शक्ति प्रदान की। 1950 की शुरुआत से ही उनके बिस्तर के बगल में रखी उनकी बार-बार दुहराई गई बाइबल की प्रति उनकी इसाई धर्म में आस्था की गवाही देती है। बल्कि क्रिसमस कैरल अ©र ह्मिनस(ईसा मसीह की स्तुति में गाए जाने वाले भजन) गाते हुए बिताई गई उनकी असंख्य शामें आज भी उनकी याद¨ं क¨ गरमा देती हैं।
द¨स्त¨ं में शंक्स के नाम से ल¨कप्रिय शंकर घ¨ष की सेंट स्टीफन्स काॅलेज के उनके सहपाठिय¨ं के पास बहुत सी मीठी यादे हैं। सेंट स्टीफन काॅलेज से उन्हें पूरी जिंदगी लगाव रहा। अपने शैक्षिक संस्थान के लिए उनकी निष्ठा लगातार 19 साल¨ं तक वरिष्ठ छात्र संगठन के अध्यक्ष के त©र पर निभाई गई उनकी सक्रिय भूमिका में झलकती है। उनके हिसाब से उस संस्थान की प्रतिष्ठा क¨ मिटाया नहीं जा सकता था। उनकी नजर में उनका काॅलेज बहुत ही उच्च अ©र सर्वश्रेष्ठ था। 18 साल की उम्र में जब वे काॅलेज में पढ़ ही रहे थे, उनके पिताजी का अचानक देहांत ह¨ गया। इतनी छ¨टी उम्र में परिवार का मुखिया बन उन्ह¨ंने अपने परिवार की जिम्मेदारियां संभाली। उन मुश्किल घडि़य¨ं का पूरे परिवार ने मिलकर सामना किया। इस संघर्ष के द©रान रिश्त¨ं में ज¨ मजबूती आई वह उनके जीवन के अंत तक बनी रही, जब उनके अंतिम क्षण¨ं में उनके तीन¨ं भाई-बहन उनके साथ रहे।
स्नातक की डिग्री प्राप्त करने के बाद घ¨ष जी ने कैलटेक्स में एक युवा प्रबंधन प्रशिक्षु के त©र पर अपने व्यवसायिक जीवन की शुरुआत की। इसके बाद कभी भी उन्ह¨ंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। वे एक-एक कर प्रगति की सीढियां चढ़ते गए। अपने माता-पिता के संघषर्¨ं से मिले जनवाद के फल क¨ चखने क¨ आतुर, प्रतिज्ञाअ¨ं अ©र गर्व से भरपूरी उनकी पीढ़ी नव भारत के निर्माण में हिस्सा ले रही थी। घ¨ष जी ने विजया राव से, ज¨ द¨स्त¨ं के बीच विजी के नाम से जानी जाती थीं, तब शादी की जब वे मात्र 22 साल के थे अ©र विजी 21 की थीं। सांस्कृतिक रूप से बिल्कुल अलग परिवार¨ं से आने वाले शंकर घ¨ष अ©र विजया राव का 55 वर्षीय दांपत्य जीवन प्रेम अ©र निष्ठा से भरपूर था। मांसाहार प्रेमी घ¨ष जी का सख्ती से शाकाहार का पालन करने वाली राव के साथ प्रेेम संबंध प्रंशसनीय था। उनके द¨ बच्चे संज¨य अ©र इला प्रेम अ©र दयालुता भरे माह©ल में पले-बढ़े। उन्ह¨ंने अपने पिता से जीवन क¨ उत्साह से जीना अ©र माता से व्यवहारिक दृष्टिक¨ण अ©र साहस ग्रहण किया। शंकर घ¨ष के परिवार में सभी जीव¨ं क¨ समान प्रेम मिलता था फिर वह चाहे नस्ली कुŸाा ह¨ या सड़क का लावारिस कुŸाा, कभी-कभी पाले जाने वाला उल्लू ह¨ या त¨ता अ©र सैकड़¨ं ल¨ग जिनकी द¨स्तियां वषर्¨ं में नहीं बल्कि दशक¨ं में मापी जाती थीं।
चार दशक¨ं के अपने सफल काॅपर्¨रेट करियर के बाद घ¨ष जी 1990 के मध्य में श्रीराम समूूह से सेवानिवृŸा हुए। उन्ह¨ंने तब तक अनेक¨ं पर¨पकारी पहल¨ं की अगुआई की थी अ©र भिन्न-भिन्न प्रकार के सामाजिक एवं विकास संबंधी संगठन¨ं से जुड़े रहे। थक कर बैठ जाना उनके लिए नहीं था। वह विकास क्षेत्र में पूर्णकालिक त©र पर कूद पड़े। उन्ह¨ंने प्रसिद्ध भारतीय प्रतिष्ठान क¨ पांच साल¨ं तक सफल नेतृत्व दिया। उनके जीवन का सबसे कठिन समय तब आया जब उनके 39 साल के बेटे संज¨य का असम के मजुली द्वीप में विकास कार्यकर्ता के रूप में काम करते वक्त उल्फा के आंतकवादिय¨ं ने अपहरण कर लिया। उनक¨ ढूंढने के सभी प्रयास असफल रहे। उनके जाने के बाद रिक्त हुए स्थान क¨ कभी पूरा न किया जा सका। उनके जाने के बहुत साल¨ं बाद तक यह उम्मीद जिंदा रही कि व¨ कभी न कभी ल©ट आएंगें। लेकिन यह कभी न हुआ। एक घायल पिता के लिए यह संभव था कि वह अपने दर्द क¨ अपने सीने में पाल कर रखता, लेकिन घ¨ष जी ने इसे एक दूसरा म¨ड़ दे दिया। सेवानिवृŸिा की य¨जना क¨ फिर से टाल दिया गया। उन्ह¨ंने चरखा क¨, वह संगठन ज¨ उनके बेटे ने 1994 में शुरु किया था अ©र उनके अपरहण के बाद से मार्गदर्शन के अभाव में भटक रहा था, आगे चलाने का निर्णय लिया। उसके बाद 12 साल¨ं तक अ©र अपनी अंतिम सांस तक घ¨ष जी ने अपना जीवन चरखा क¨ समर्पित कर दिया। उनकी अगुआई में चरखा विकास संवाद के क्षेत्र में एक स्थापित नाम बन गया। शंकर घ¨ष ने व्यक्तिगत रूप से चरखा की टीम की अगुआई करते हुए भारत के कुछ सबसे कठिन क्षेत्र¨ं में, जिनमें ऐसी जगहें भी शामिल थीं जिहां पर तनाव ने विकास क¨ हाशिए पर ढकेल दिया था, में काम किया।
सŸार के उŸारार्ध तक उन्ह¨ंने देश के दूर-दराज के क्षेत्र¨ं की यात्रा कर युवाअ¨ं का राष्ट्र निर्माण के चुन©तीपूर्ण काम क¨ आगे बढ़कर हाथ में लेने का आह्वान किया। खंडित समाज की बढ़ती हुई दरार¨ं पर चिंता व्यक्त करते हुए उन्ह¨ंने अपनी टीम में धमर्¨ं के बीच समरूपता अ©र सद्भावना क¨ बढ़ाने की तत्काल आवश्यकता के महत्व क¨ स्थापित किया। साथ ही उन्ह¨ंने इसे अपने हर कार्यक्रम का अभिन्न हिस्सा बनाया। काॅपर्¨रेट एक्जक्यूटिव, पर¨पकारी विकास कार्यकर्ता, पर्यावरणवादी। शंकर घ¨ष इन सबके साथ अ©र भी बहुत कुछ थे। उन्ह¨ंने ज¨ कुछ भी किया हर काम क¨ ज¨श अ©र मानवीय क¨मलता के साथ किया जिसने जिंदगिय¨ं क¨ छुआ। उनकी द¨स्तियां 60 साल भी उसी लगाव अ©र स्फूर्ती से भरपूर रहीं। वे जहां भी गए हर जगह उन्हें ल¨ग¨ं की प्रशंसा अ©र प्यार ही मिला। उनकी आंख¨ं की चमक अ©र चेहरे पर सदा विराजमान मुस्कुराहट की गर्माहट उन सभी ल¨ग¨ं के साथ रहेगी जिनकी जिंदगिय¨ं क¨ उन्ह¨ंने अनगिनत तरीक¨ं से छुआ है।
अंशु मिषेक
(चरखा फीचर्स)
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