आज़ादी के 67 सालों के बाद भी ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। बदला है तो सिर्फ समय का चक्र। सीमावर्ती इलाकों में हाल और भी ज़्यादा बुरा है। सीमावर्ती इलाके आज भी तमाम बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। जम्मू प्रांत का पुंछ जि़ला भी तमाम मूलभूत सुविधाओं से वंचित है। केंद्र सरकार की ओर से इस क्षेत्र में विकास के पहिए को गति देने वाली योजनाएं यहां पहुंचते पहुंचते दम तोड़ देती है। पुंछ जि़ले के दूरदराज़ क्षेत्रों में वैसे तो बहुत सी समस्याएं हैं लेकिन यहां सबसे बड़ी समस्या पानी की है। पानी की बढ़ती समस्या ने यहां के लोगों को जीना मुहाल कर दिया है। ऐसा क्या है इस पानी में जो चार साल पहले सिर्फ दो बार मिला। अगर इस पानी में कुछ खास बात थी तो इसे छुपाया क्यों गया और यह सिर्फ तहसील मेंढ़र के गांव टोपा के लोगों को ही क्यों मिला? बाकी लोगों को क्यों नहीं मिला? आइए जानते हैं इस पानी सच। यह एक ऐसी जगह है जहां कभी कभी कुदरती चष्मों में पानी इतना कम हो जाता है कि लोगों को दिन भर के लिए सिर्फ एक बार पानी भरने के लिए 20 मिनट मिलते हैं। जिससे वह सिर्फ 40-50 लीटर पानी एक दिन में भर कर ले जा सकते हैं। इन्हें बूंद बूंद पानी का इस्तेमाल बड़ी संभाल कर करना होता है क्योंकि खाने-पीने के अलावा दैनिक जीवन के दूसरे कामों में भी इसी पानी का इस्तेमाल करते हैं।
पानी की कमी के चलते इन्हें अपने जानवारों के लिए तकरीबन 15 किलोमीटर दूर से पानी लाना पड़ता है और जिनके घर कोई पानी लाने वाला नहीं हैं उन्हें 50 रूपये में 40 लीटर पानी पैसे देकर मंगवाना पड़ता है। यहां पर आज से तकरीबन 20 साल पहले पानी का टैंक बना था। षुरू में कुछ समय तक पानी मिला लेकिन पिछले चार-पांच सालों से पाईप लाइन का ही पता नहीं है। पानी की समस्या के बारे में यहां के स्थानीय निवासी मोहम्मद षब्बीर कहते हैं कि यहां पानी की बहुत किल्लत है। चष्मे से पानी भरने के लिए तकरीबन 2 या 3 घंटे इंतेज़ार करना पड़ता है। उन्होंने आगे बताया कि एक माह पहले मेरे बेटे की षादी हुई थी तो मुझे 35 सौ रूपये का 3 हज़ार लीटर पानी मंगवाना था। मायूसी के साथ वह आगे कहते हैं कि आप ही बताए कि हम कौन कौन सी चीज़े खरीदें। सरकार ने सिर्फ औपचारिकता पूरी करते हुए टैंक बनवाया है मगर अकेले टैंक बनवाने से तो काम नहीं चलता। यहां के स्थानीय निवासी हाजी मोहम्मद कबीर पानी की परेषानी के बारे में बताते हुए कहते हैं कि यहां पानी की इतनी परेषानी है कि सारे काम छोड़कर दो आदमियों को पानी ही ढोना पड़ता है। हमें तो अब इसकी आदत हो गयी है। खासतौर से जब चष्मों में पानी कम हो जाता है तो हमें पानी भरने के लिए दिन में सिर्फ एक बार 20 या 30 मिनट मिलते हैं। इतने समय में हम इतना ही पानी भर पाते हैं जिससे हमारा खाना पीना ही हो पाता है। जानवरों के लिए हम बारिष का पानी जमा करते हैं। जब पानी खत्म हो जाता है तो हम लोग जानवरों को कीमती पानी खरीदकर पिलाते हैं। सरकार की ओर से 20 साल पहले पानी का टैंक बना था। कुछ समय तक तो पानी मिला लेकिन बाद में पाईप लाइन का ही पता नहीं चला की कहां चली गई।
मोहम्मद युसूफ पेषे से एक ड्राइवर हैं। पानी की समस्या के बारे में इनका कहना है कि जब चष्मे में पानी कम हो जाता है तो 20 किलोमीटर दूर से गाड़ी से पानी भरकर लाना पड़ता है। उनका कहना है कि मेरे पास गाड़ी है तो मैं पानी ले आता हंू मगर बाकी लोग क्या करें? मायूसी के साथ वह आगे कहते हैं कि हमारी याद राजनेताओं को सिर्फ चुनाव का वक्त नज़दीक आने पर ही आती है। पानी की समस्या के बारे में यहां के नायब सरपंच मोहम्मद इकबाल का कहना है कि यहां के लोगों को पानी की वजह से काफी परेषानियों का सामना करना पड़ता है। हमारे गांव में टैंक से सिर्फ चार पांच घरों को ही पानी मिलता है जो टैंक के बिल्कुल करीब हैं। बाकी घर पाईप लाइन बिछी न होने की वजह से इस सुविधा से वंचित हैं। वह विस्तार से बताते हुए कहते हैं कि हमने इन परेषानियों की षिकायत कई बार जेईई और एईई से की पर हमारी समस्या का कोई हल न निकला और हमें थककर मजबूरन घर बैठना पड़ा। इसके सिवा हमारे पास कोई चारा भी नहीं है। वह सवाल करते हुए आगे कहते हैं कि हमारी याद राजनेताओं को सिर्फ चुनाव के वक्त ही क्यों आती है?
इसी गांव के रहने वाले मोहम्मद अहमद कहते हैं कि मैं एक मज़दूर हंू, पूरे घर का खर्चा मेरी कमाई से चलता है। जब मेरे घर पानी खत्म हो जाता है तो मुझे अपना काम छोड़कर पानी का इंतेज़ाम करने के लिए जाना होता है। मेरे पास इतना पैसा नहीं है कि मैं पानी खरीदूं। काम छोड़कर जाने की वजह से मेरे घर में पैसे की किल्लत हो जाती है, मगर किसी दूसरे को हमारी क्या परवाह कि हम जिएं या मरें? हम यह बात अच्छी तरह से जान चुके हैं कि सरकार को हमारी कोई चिंता नहीं है। पानी की समस्या के बारे में एक और षख्स इखमत कबीर का कहना है कि हमें पानी की इतनी परेषानी है कि आधे गांव को दिन में और आधे गांव को रात में पानी भरना पड़ता है। लेख को पढ़ते समय पाठकों को अंदाज़ा हो रहा होगा कि यह लोग आराम कब करते होंगे? वह आगे कहते हैं कि आज से 20 साल पहले एक टैंक बना था मगर हम लोगों को उस टैंक से पानी कभी नहीं मिला। ़अगर सरकार हमारी परेषानियों को नज़रअंदाज़ करती रही तो देष के हालात कैसे सुधरेंगे। इसी गांव के रहने वाले ज़हीर अब्बास कहते हैं कि हमारी परेषानियों को छोड़ सिर्फ एक बात का जबाब हमें दे दो कि करोड़ो का फंड आने के बावजूद भी पैसा कहां गया। अगर उस पैसे से काम हुआ है तो कहां हुआ है। बड़ी मायूसी के साथ गांव के एक और स्थानीय निवासी मोहब्बत अली कहते हैं कि जब भी कभी पानी खत्म हो जाता है तो हमारा नंबर चष्मे से पानी लेने के लिए रात को तकरीबन एक या दो बच्चे लगता है और यदि दिन में पानी खत्म हो जाता है तो तकरीबन 12 किलोमीटर दूर से घोड़े के ज़रिए जानवरों के लिए पानी ढृूढकर लाना पड़ता है। वह कहते हैं कि यहां पर जो टैंक बना है उससे हमें पानी आज तक नहीं मिला है।
सवाल यह है कि आखिर कब तक यह लोग इसी तरह जिंदगी गुज़र-बसर करते रहेंगे या फिर इन्हें इनके हाल पर इसी तरह छोड़ दिया जाए। पिछले साल एक दैनिक अखबार में छपी राष्ट्रीय ग्रामीण पेय जल कार्यक्रम की एक रिप¨र्ट के अनुसार जम्मू कश्मीर की केवल 34.7 प्रतिशत आबादी क¨ नल¨ं के जरिए पीने का साफ पानी उपलब्ध है, जबकि बाकी की 65.3 प्रतिशत आबादी क¨ हैंड पंप, नदिय¨ं, नहर¨ं तालाब¨ं अ©र धाराअ¨ं का असुरक्षित अ©र अनौपचारिक पानी मिलता है। ऐसे में भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय के पेय जल एवं स्वच्छता विभाग के 2011-2022 की रणनीतिक य¨जना के अनुसार वर्ष 2017 तक, 55 प्रतिशत ग्रामीण परिवार¨ं क¨ पाइप¨ें के जरिए पानी उपलब्ध करवा देने का दावा दिवास्वप्न सा ही लगता है। पीने के पानी क¨ तरसते सरहद पर बसे यह ल¨ग तय ही नहीं कर पा रहे हैं कि उनके लिए क्या ज्यादा खतरनाक ह,ै सरहद पार से ह¨ने वाली ग¨लाबारी या उनकी अपनी सरकार की उनके प्रति उपेक्षा।
इरफान याकूब
(चरखा फीचर्स)
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