राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना के तहत जब गांव-गांव में आजादी के साठ सालों बाद बिजली के खंभे लगे तो गांवों में दीपावली मनाई गई। तार खींच गए। ट्रांसफर्मर लग गए। बीपीएल परिवारों में एक मुफ्त कनेक्शन दे दिया गया। बाकि लोगों ने आवेदन दिया और कुछ खिलाने-पिलाने के बाद कनेक्शन भी मिल गया। 5 रुपये में मोबाइल चार्ज करने वाले दुकानदारों के चेहरों पर शिकन दिखने लगी थी। और गांव में बिजली आ गई। ललटेम युग समाप्ति की ओर था.....राजनीतिक रुप से भी और व्यवहारिक रुप से भी। उम्मीद जगी ऐसे में डीलरों की पूछ घटेगी। डीलर के बारे में कहा जाता है कि ये लोग दूसरी मिट्टी के बने होते हैं। किसी पथरीली मिट्टी से। बोलते हैं तो लगता है न जाने किस जन्म में गलती की थी, जिसका भुगतान अब हो रहा है।
खैर, बिजली तो आ ही गई और रहने भी लगी...जितने देर बड़े शहरों में विद्युत आपूर्ति नहीं होती। कुछ खास फायदा तो नहीं हुआ लेकिन मोबाइल चार्ज होने लगा। मेरे बड़े पापा कहा करते थे कि गांवों में भी अगर लाइट रहे तो लोगों की कार्य क्षमता बढ़ेगी। सुविधाएं बढ़ेंगी। गांव में नई बयार बहेगी। ये सब कुछ सही भी है और संभव भी....लेकिन इसके लिए जरूरी है इच्छाशक्ति की। बराबरी से देखने की...लेकिन यहां तो कॉलोनियों के हिसाब से बिजली का वितरण होता है। पॉश इलाकों में लाइट जाती नहीं और जेजे कॉलोनियों में लाइट आती नहीं। ये सच है। वहीं हाल गांवों की भी। शहरों से जो बिजली काटी जाती वो क्रमवार गांवों में आवंटित की जाती। अगर आस-पास के गांव से कोई माननीय आते हो तो स्थिति निश्चित अलग होगी।
कुछ सालों पहले की बात है, मैं गांव गया हुआ था। उसी समय बिहार के तात्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार किसी उद्देश्य से सीवान आने वाले थे और उसी क्रम में बिहार के तात्कालीन शिक्षा मंत्री प्रशांत कुमार शाही के पैतृक गांव अंगौता आने वाले थे। अंगौता हमारे गांव के पश्चिम में बसा गांव है। क्या बताएं, मजा आ गया था उनके कार्यक्रम के तीन दिनों पहले से ही निर्बाध विद्युत आपूर्ति हो रही थी। मैंने मम्मी को बोल रखा था कि मुख्यमंत्री के दौरे के बाद सात दिन लाइट नहीं आएगी। और ऐसा ही हुआ। असल में प्रशासन का नजरिया है कि ओवरडोज न हो जाए।
दूसरी तरफ लगभग 15-16 हजार जनसंख्या वाले गांव में 25-25 केवी के दो ट्रांस्फर्मर लगे थे। बीपीएल परिवारों की स्थिति सबसे बुरी है। उन्होंने फ्री में कनेक्शन तो दिया गया है लेकिन सिर्फ एक बल्ब का, जो जाने-अनजाने उन्हें चिढ़ाते रहती है। लेकिन वस्तुस्थिति अलग है। ऐसे कनेक्शन वाले परिवारों ने भी 2 केवी के स्टेबलाइजर लगा लिए हैं। बेचारे 25 केवी के ट्रांस्फर्मर, जो कि खपत के हिसाब से लगभग नगण्य के क्षमता थे। होना क्या था....एक-एक करके दोनों ट्रांस्फर्मर आवाज कर जल गए। लोगों ने कानूनी तरीके से कंप्लेन कर दी। दो साल तो हो गए लेकिन प्रशासन ने अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की है। बहरहाल लोगों ने ट्रांस्फर्मर जलने के कुछ दिनों बाद ही चंदा लगाकर पैसे जुटाकर कहीं से 63 केवी के ट्रांस्फर्मर का जुगाड़ कर लिया। घरों में फिर से गाहे-बिगाहे हल्की पीली लौ नजर आने लगी। हल्की पीली इसलिए क्योंकि खपत के हिसाब से 63 केवी के ट्रांस्फर्मर अभी भी नाकाफी है। असल में, बड़ी संख्या में गांवों के युवाओं के खाड़ी देशों में जाने के कारण गांवों में आर्थिक संपन्नता आ गई है। लोगों का रूझान भौतिक संसाधनों की तरफ तेजी से बढ़ा है। न जाने कितने गांवों ने कस्बा का रूप अख्तियार कर लिया है लेकिन सरकारी अमला के लिए अभी भी गांव और ग्रामीण जरूरत। क्योंकि अपने पूरे कार्यकाल में कोई जिलाधिकारी शायद ही मुख्यालय से निकलकर गांवों में जाने की जहमत उठाते हो।
सबसे दिलचस्प बात है कि ट्रांस्फर्मर जलने की कंप्लेन करने के बाद भी बिजली बिल आज भी आता है। भले ही गांव में ट्रांस्फर्मर न हो। दूसरी तरफ, हर तीसरे दिन बिजली रानी तीन-चार दिनों के लिए गायब हो जाती है। कभी 1100 का तार गिर जाता तो कभी फ्यूज उड़ जाता। सरकारी मशीनरी सिर्फ वाहवाही लेना जानती है काम को सही तरीके से अंजाम देने की कोई जरूरत नहीं समझती। गांव तो गांव है लगभग हर शहरों में मिस्त्री की संख्या न के बराबर है। ऐसे में गांव वाले चंदे इकठ्ठे कर निजी मिस्त्री के सहारे काम करवाने को बाध्य है। सरकार को बिल लेने की भी कोई जल्दी नहीं होती। छह महीने बाद बिल आते वो भी हजारों में। हजारों फाइन के साथ। अगर आपको जल्दी है तो गरज से बिजली ऑफिस जाइए। पान और चाय का खर्चा देकर बिल निकलवाइए और फिर जमा करिए।
मैं कहना चाहता हूं कि सरकार को अपना नजरिया बदलना चाहिए। गांवों में लोग सुविधाएं चाहते है और बदले में पैसा देने को तैयार है। बस आप अच्छी सर्विस सुनिश्चित करिए। हम भी नहीं रेंगना चाहते हैं इन शहरों में। जाना चाहते हैं गांवों में लेकिन सरकार शायद ऐसा चाहती नहीं है। वो चाहती है कि कोई राज ठाकरे, कोई शीला दीक्षित, कोई विजय गोयल बिहारी प्रवासियों को गरियाते रहे और वे कड़ा विरोध कर फर्ज अदा करते रहे। हद है भई!
(अंकित श्रीवास्तव)
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