सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस को यह कैसी पराजय का सामना करना पड़ा। पार्टी की इतनी फजीहत 1977 में भी नहीं हुई थी जब इमरजेंसी के कथित अत्याचारों व जबरिया नसबंदी कार्यक्रम की वजह से पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस के खिलाफ घृणा की लहर चल रही थी। कांग्रेस को हालिया उपचुनाव मेंं इतनी कम सीटें मिली हैं कि उसे मान्यता प्राप्त प्रतिपक्ष का दर्जा तक नसीब नहीं हो सका। हालांकि पार्टी ने इसके लिए फिर भी दावेदारी ठोकी लेकिन लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने बेआबरू करने के अंदाज में उसकी अर्जी ठुकरा दी। कांग्रेस नेतृत्व से अपेक्षा थी कि इन हालातों में पार्टी को बचाए रखने के लिए हार के कारणों का पारदर्शी मंथन कर वह भविष्य के लिए कोई आक्रामक और तेजतर्रार रणनीति बनाएगी पर इसकी कवायद नदारद है। पार्टी इस मामले में चुनाव के चार महीने गुजर जाने के बाद भी दिग्भ्रम की स्थिति में है।
कांग्रेस ने आजादी के बाद से नेहरू वंश को चमत्कारिक ब्रांड के रूप में राजनीतिक क्षितिज पर स्थापित कर उसके सहारे अपना वर्चस्व बनाए रखने का सफल प्रयास किया है। यही कारण है कि जब राजीव गांधी की अचानक हत्या के बाद सोनिया गांधी पार्टी और सरकार की जिम्मेदारी संभालने को तैयार नहीं हुईं तो कांग्रेस अनाथ हालत में पहुंच गई थी। नरसिंहा राव ने अंततोगत्वा जिम्मेदारी संभाली लेकिन उन्हें अंत तक पार्टी के प्रमुख लोगों की स्वीकृति नहीं मिल सकी।
पार्टी में उनके समय जबरदस्त बिखराव हुआ। बाद में जब तक सोनिया गांधी ने पार्टी का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी संभालना कबूल नहीं किया तब तक कांग्रेस की नैया डंवाडोल ही बनी रही। सोनिया गांधी के संघर्ष से 2004 में जब आठ वर्ष बाद कांग्रेस को केेंद्र की सत्ता में वापसी का मौका मिला तो पार्टी के आम से लेकर खास लोगों तक के इस यकीन की पुष्टि हो गई कि नेहरू वंश का नेतृत्व उसके लिए खरा सिक्का है और उसकी अगुवाई में पार्टी सत्ता में अपना अविरल प्रवाह बनाए रखने में हमेशा सफल रह सकती है।
बहरहाल नेहरू वंश की चौथी पीढ़ी के चिराग राहुल गांधी को इसी कारण कांग्रेस का भविष्य सौंपने का पार्टी जनों ने बड़े गाजेबाजे के साथ स्वागत किया था। वैसे तो 2009 के चुनाव के बाद ही मनमोहन सिंह की जगह राहुल गांधी द्वारा लिए जाने का विश्वास कांग्रेसी संजोए थे लेकिन खुद राहुल ऐन मौके पर इससे पीछे हट गए लेकिन अबकी बार चुनाव के पहले मनमोहन सिंह ने सरकार की जिम्मेदारी फिर न संभालने की सार्वजनिक घोषणा कर दी थी जिससे यह तय माना जाने लगा था कि अगर कांग्रेस सत्ता में वापस आती है तो सरकार की बागडोर राहुल गांधी ही संभालेंगे। इसके बावजूद कांग्रेस चुनाव में बुरी तरह मात खा गई। पार्टी के लिए यह जबरदस्त सदमा है। नेहरू परिवार का तिलिस्म इससे टूटा। जाहिर है कि उसकी जादुई ताकत पर अटूट विश्वास करने वाली पार्टी इससे हतप्रभ होकर किंकर्तव्य विमूढ़ता की स्थिति में पहुंच गई।
चुनाव के हार के कारणों को जानने के लिए पार्टी ने एके एंटोनी कमेटी का गठन किया था। इसके आधार पर पार्टी की कमियां दूर कर नए ढंग से राजनीतिक संघर्ष का सफर शुरू करने का इरादा बनाया गया था लेकिन एंटोनी कमेटी की रिपोर्ट ठंडे बस्ते में डाली जा चुकी है। पार्टी नेतृत्व को कोई फैसला लेते न देख हताशा में डूबे कांग्रेसी अब बेचैन होने लगे हैं। यहां तक कि राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता को लेकर सवाल मुखर हो उठे हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि राहुल गांधी के सलाहकार की भूमिका अदा करते रहे दिग्विजय सिंह जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं ने भी राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर परोक्ष में संदेह जताने में कसर नहीं छोड़ी। स्वाभाविक है कि राहुल के समर्थकों में इससे जबरदस्त बौखलाहट पैदा हुई। पार्टी के युवा सचिवों ने संयुक्त रूप से राहुल के नेतृत्व पर उंगली उठाने वालों के खिलाफ ज्ञापन बाजी शुरू कर दी। इस अंर्तद्वंद्व के बढऩे से पार्टी को और ज्यादा नुकसान संभावित था। जल्द ही जब पार्टी नेतृत्व को इसका आभास हो गया तो सचिवों को आगाह किया गया कि वह अपनी शिकायत मीडिया तक ले जाने से बाज आएं लेकिन सचिवों की इस गोलबंदी ने एक उद्देश्य पूरा कर दिया। इससे दिग्विजय सिंह व पार्टी के अन्य क्षुब्ध नेताओं की बोलती फिलहाल बंद हो गई है।
बावजूद इसके यह नहीं माना जा सकता कि कांग्रेस का संकट टल गया है। राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता को लेकर पार्टी के लोगों में ही नहीं आम जनों में भी पर्याप्त अविश्वास पनप चुका है। राहुल को केेंद्र बिंदु बनाकर नेहरू वंश के करिश्मे का लाभ उठाने की अब बहुत कम उम्मीद रह गई है। हद तो यह है कि इसके बावजूद राहुल निर्णायक मौके पर रणछोर देसाई बनने की अपनी कमजोरी से उबर नहीं पा रहे। सोनिया गांधी प्रियंका कार्ड खेलने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में कांग्रेस का पुर्नउत्थान हो तो कैसे हो। कांग्रेस पार्टी ईमानदारी से इस पर चिंतन करने से डर रही है।
कांग्रेस को यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाना पड़ेगा। नेहरू जी के समय और आज के समय में बहुत अंतर आ चुका है। तब देश के नेताओं को लेकर लोगों के मन में रूमानी आकर्षण रहता था। आज भारतीय लोकतंत्र बहुत परिपक्व हो चुका है और आज का मतदाता किसी फंतासी में नहीं जीता। इस कारण आज सर्वोच्च नेता की आलोचना के प्रति इंदिरा युग जैसी असहिष्णुता से काम नहीं चल सकता। जब इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा जैसे नारे ईजाद किए जाते थे और लोगों का समर्थन उन्हें मिलता था। आज मतदाता किसी नेता के प्रति अंध आस्था नहीं रखता इसलिए राहुल के ऊपर हमला होता है तो बहुत कटु प्रतिक्रिया की जरूरत नहीं होनी चाहिए। कांग्रेस को जीवंतता बनाए रखने के लिए अब नेतृत्व की कार्यशैली की समालोचना सुनने और करने की आदत डालनी पड़ेगी। पार्टी के नेताओं की नेतृत्व के प्रति शिकायत में अगर जनभावना का प्रतिविंब है तो नेतृत्व को अपनी कार्यशैली में बदलाव लाकर इसमें सुधार करके सफलताओं का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।
राहुल गांधी में सबसे बड़ी कमी यह है कि वह जब जोश में होते हैं तो बहुत क्रांतिकारी भाषण करते हैं लेकिन जैसे ही भावनाओं का उफान शांत हो जाता है वे मांद में चले जाते हैं। क्रांतिकारी विचारों को अमली रूप देना ही नेता को प्रमाणिक बना सकता है अन्यथा उसकी गिनती लफ्फाजों में होना तय है। राहुल गांधी के समर्थक पार्टी में उनके विरोध में मुखर हो रहे सीनियर नेताओं को निशाने पर लेने के लिए इस अंदरूनी उठापटक को घाघों और मासूम युवाओं के बीच के संघर्ष के रूप में पेश करने की रणनीति पर अमल कर रहे हैं लेकिन इस मामले में व्यवहारिक स्तर पर राहुल इतने लचर हैं कि युवा इस रणनीति से बिल्कुल भी संवेदित नहीं हो रहे। युवाओं को जो चीजें अपील करती हैं राहुल और उनके समर्थकों को उसका ज्ञान नहीं है। युवाओं को या तो उदंडता अपील करती है जैसे कि वीर भोग्या वसुंधरा के सिद्धांत पर विश्वास करने वाली उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी के प्रति युवाओं का आकर्षण। दूसरी रेडिकल विचारधारा जिसमें हिंदुत्व और राष्ट्रवाद जैसे जज्बाती मुद्दे भी शामिल हैं और जिसका फायदा मोदी ने उठाया। इसके पहले दुनिया भर के रक्तिम वामपंथी तख्ता पलटों की वजह से कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रति युवाओं में जबरदस्त समर्पण देखने को मिलता था लेकिन राहुल के दर्शन में युवाओं के लिए इन दोनों जरूरी तत्वों में से एक भी नहीं हैं। वे सुविधाभोगी और बड़े घरों के युवाओं की टोली का प्रतिनिधित्व करते हैं। आम युवा की निगाह में यह खलनायक हैं। राहुल का युवा किसी ऊर्जा का विस्फोट करने वाला युवा नहीं है। राहुल गांधी को आमूल व्यवस्था परिवर्तन का ऐसा नक्शा पेश करना पड़ेगा जो आदर्शवादी युवाओं में उन्माद की स्थिति उत्पन्न कर सके। यही मोदी और आरएसएस टोली का कारगर जवाब हो सकता है लेकिन फिलहाल राहुल गांधी ऐसा कर पाने की कल्पना से कोसों दूर हैं।
के पी सिंह
ओरई
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