दीपावली न केवल एक त्योहार है बल्कि हर प्रकार के रंगों और रसों से भरा सामाजिक पर्वों का समुच्चय है, जिसमें मनुष्य से लेकर पशुओं तक को आह्लाादित करने वाले कार्यक्रमों, अनुष्ठानों का समावेश है। कृषि कर्म और पशुपालन पर निर्भर देश के बहुसंख्य लोगों के लिए तो दीवाली के दिन धन-धान्य वृद्धि के पारंपरिक लोक साँस्कृति और सामाजिक अनुष्ठानों के होते हैं। पशुओं को धन की संज्ञा दी गई है। शास्त्रों में मनुष्य के लिए देवताओं से कामना की गई है कि धन-धान्य के साथ पशु धन का भी विस्तार एवं विकास हो।
वाग्वर अंचल के नाम से जग विख्यात राजस्थान के दक्षिणांचल (बांसवाड़ा एवं डूंगरपुर तथा आस-पास के इलाके) के अधिकांश लोगाें की आजीविका का मुख्य साधन खेती एवं पशुधन ही रहा है। दीपावली वह वार्षिक पर्व है जब इनकी समृद्धि के लिए विविध अनुष्ठान और टोने-टोटकों का सहारा लिया जाता है। दीपावली व इसके बाद एक दो दिन तो वागड़ में पशु रक्षा अनुष्ठानों की रोचक परम्पराओं से भरे होते हैं। दीपावली के दिनों में यहां के किसानों-पशुपालकों द्वारा अपने-अपने गाय-बैल इत्यादि पशुओं को जलाशय में ले जाकर नहलाया जाता है और इनके सींग-खुरों को रमजी (रंगीन मिट्टी) या वार्निश से रंगीन किया जाता है। इसके अलावा मेहन्दी, रमजी आदि से पशुओं के शरीर पर छापे बनाये जाते हैं। जिससे पशु पूरी तरह रंग-बिरंगा हो अपने आपको मस्त अनुभव करता है। फिर इनके गले में घुंघरु तथा छोटे-छोटे काँच के टुकड़ों, मोरपंख, रंगीन पन्नियों, बालों के गुच्छे, रस्सी, काली डोरी आदि को मिलाकर बनाई गई रस्सी बांधी जाती है, इसे स्थानीय भाषा में ‘‘कड़वा’’ कहा जाता है।
गाय में लक्ष्मी का निवास मानकर गाय-बैल की विशेष पूजा की जाती है। दीपावली पर देवता के सम्मुख मशाल प्रज्ज्वलित करते समय भी गाय का नाम विशेष रूप से उच्चारित होता है-
‘आळ दीवारी काळ दीवारी
काळी गाय धोरी गाय
राजा रामचन्द्रजी नूं मेरीयू.......’’
यह वाक्य बोलते हुए पशु शाला जिसे यहां की भाषा में ‘‘कोड़’’ कहा जाता है, में मशाल दिखाई देती है। ऎसा माना जाता है कि इससे दुष्ट वृत्तियां नष्ट हो जाती हैं। इस दिन गाय-बैलों को पकवान खिलाये जाते हैं और नन्दीश्वर का नाम लेकर तिलक-अक्षत् किया जाता है। अपने पशुओं की रक्षा के लिए भौंपों, भैरवजी स्थानकों, कलाजी एवं तांत्रिक-मांत्रिकों द्वारा रक्षामंत्र पढ़कर बनाये गये सूत्र भी पशुओं को पहनाये जाते हैं। अभिमंत्रित धान खिलाते हैं। ऎसी मान्यता है कि इससे वर्ष भर पशु स्वस्थ रहते हैं व पशु धन में वृद्धि होती रहती है।
कई लोग पशुशाला में घण्टाकर्ण के मंत्रों से अभिमंत्रित पीपल के पत्ते बांधते हैं। इसके साथ ही ‘‘गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मेरक्षचण्डिके..... ’’ तथा ‘‘ॐ’’ पशुपतये नमः आदि मंत्रों का पाठ किया जाता है। इसके अलावा भगवान शंकर पर गौदुग्ध चढ़ाकर अभिषेक किया जाता है और साबर मंत्रों से पशु रक्षा की कामना की जाती है।
गांव में पशुओं को महामारी या अनिष्ट से बचाने के लिए गांव भर के लोग दूध इकट्ठा करते हैं व पतली धार से सारे गांव के चारों ओर काल्पनिक रेखा बना देते हैं।
गांवों में पशु पालकों द्वारा अभिमंत्रित काली रस्सी को गांव में पशु आवागमन के मुख्य मार्ग पर बांध दिया जाता है। जन मान्यता है कि इस रस्सी से नीचे होकर गुजरनेे वाले पशुओं पर अनिष्ट का साया नहीं पड़ता है और गांव का पशुधन सुरक्षित रहता है। ग्वालों को सम्मानित किया जाता है व उन्हें अन्न-वस्त्र, धन राशि इत्यादि भेंट की जाती है।
गोवर्धन पूजा का यहां सर्वत्र खासा प्रचलन है और लोग श्रद्धा के साथ गोवर्धन पूजा करते हैं। दीपावली या अगले दिन कई गांवों में पशुक्रीड़ा के आयोजन होते हैं और इनसे अगले वर्ष का भविष्य भी जाना जाता है। वागड़ अंचल में गुर्जरों की दीवाली भी देखने लायक होती है। बांसवाड़ा के समीप निचला घण्टाला में इस दिन गुर्जरों द्वारा पारंपरिक अनुष्ठान किया जाता है।
(डॉ. दीपक आचार्य)
महालक्ष्मी चौक, बाँसवाड़ा - 327001
(राजस्थान)
सम्पर्क - 941330607
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