अन्तरमन के उल्लास को मानव सहज रूप से अंग संचालन एवं नृत्य की मनोहारी भंगिमाओं में अभिव्यक्त करता आया है। यों तो उत्सव और नृत्य का अंतः संबन्ध प्रायः देश के सभी क्षेत्रों मेें लक्षित होता है किन्तु जीवन को भरपूर आनन्द से जीने की जो अभीप्सा और जिजीविषा आदिम जातियों में देखी जाती है वह विलक्षण है। प्रकृति के स्वच्छंद वातावरण में उन्मुक्त विहार करने वाली वाग्वर अंचल की जनजातियों का समग्र जीवन ही लोक संगीत और नृत्यों से भरा हुआ है। इनमें हर पर्व और त्योहार पर अलग-अलग लोक संगीत और नृत्य परम्परा से जुड़े हुए हैं। इनमें वोरी नृत्य प्रसिद्ध है जिसका संबन्ध दीपोत्सव से है।
राजस्थान के धु्रव दक्षिण में सीमावर्ती गुजरात और मालवा क्षेत्र की जनजातीय लोक संस्कृति की गंध बिखेरने वाले वागड़ अंचल के ये वनवासी ही हैं जिनके हर कर्म से माटी की सौंधी गंध महकती रहकर ताजगी और जीवन्तता का अहसास कराती है।
दीपावली पर रोशनी और चकाचौंध से दूर ग्रामीण अंचलों में निवास कर रहे वनवासी किस तरह इस त्योहार पर असली आनंद और उमंग की धाराओं से सराबोर हो जाते हैं, इसका दिग्दर्शन भी कम रोचक नहीं है। यों देखा जाए तो वनाँचल का हर पर्व और त्योहार लोक जीवन के कई-कई रंगों का दिग्दर्शन और रसों का आस्वादन कराता रहा है। इनमें दीपावली का पर्व उल्लास वृष्टि और नवजीवन का संचेतक पर्व है जब समूचा दक्षिणाँचल सामाजिक, धार्मिक और लोक रस्मों से भरा रहकर आनन्द का ज्वार उमड़ाता है।
शहरीकरण के लगातार कसते जा रहे पाश और पाश्चात्य विकृतियों भरे परिवेश के बीच भी यहाँ की सांस्कृतिक परंपराएं अक्षुण्ण बनी रहकर शाश्वत और सनातन लोक धाराओं को प्रतिबिम्बित करती रही हैं। मानव ने जीवन में नित नवीनता और उसके प्रति ललक पैदा करने के लिए पर्व और त्योहार के रंगों को निमित्त बनाया है। वनवासियों की दीवाली हो और उसमें लोकरंग तथा नृत्य नहीं हो? यह भला कैसे संभव है।
दीपावली पर इन वनवासी अंचलों में जो लोकनृत्य प्राचीन काल से प्रचलित रहा है उसे ‘‘वोरी’’ नृत्य कहते हैं, जो दीवाली के दिनों में अरावली पहाड़ियों को लोकनृत्याें की धूम से गूंजायमान कर देता है। तब लगता है दूर-दूर तक बिखरी अरावली की ये पर्वत श्रेणियां भी वनवासियों के साथ दीवाली का मजा लूटने में व्यस्त हैं। ‘‘वोरी नृत्य’’ संभवतः गवरी नृत्य का ही अपभ्रंश है जो गौरी तथा बाद में ‘वोरी’ होकर रह गया। गांवों में युवकों-प्रौढ़ों की अलमस्त टोलियां लोकगीतों और लोक वाद्यों के नादों पर थिरकती-झूमती सड़कों पर निकल आती हैं।
टोली में कोई फक्कड़ किस्म का सुन्दर युवक साड़ी, लहंगा आदि स्त्रीयोचित परिधान पहन कर युवती का रूप धारण करता है इस युवक को ‘‘वोरी’’ कहा जाता है, जबकि अन्य युवक जो इसके साथ नाचते गाते हैं ‘‘वोरा’’ कहे जाते हैं। इनके साथ दस बीस से लेकर पचास साठ जनों की टोली जुट आती है। ये लोग भांति-भांति के श्रृंगार, प्रेम, करुण रस भरे, धार्मिक, सामाजिक रस्मों से संबंधित गीत गाते थिरकते नृत्य करते हुए गांवों में मोहल्लों-घरों पर जाते हैं व लोगों का मनोरंजन करते हैं। इस रोचक एवं मनमोहक नृत्य को देखने गांव भर के बच्चों का झुण्ड भी इनके पीछे ही चलता है। लोग बाग इस टोली के लोगों को प्रसन्न होकर अनाज दाना, पैसा आदि भेंट देते हैं।
आम तौर पर ‘‘वोरी’’ को लोकदेवी और ‘‘वोरा’’ को भैरूजी का प्रतीक माना जाता है। वोरी नृत्य के दौरान ढोल-नगाड़ों के नाद तीव्र होते ही नृत्यरत लोगों को भार आते हैं। ऎसा माना जाता है कि दिव्य आत्माएं इनके शरीर में प्रवेश कर इन्हें असामान्य कर देती हैं। इन नादों पर अनेक पुरुष महिलाएं भी थिरक उठते हैं, जो वोरी नृत्य में शरीक हो जाते हैं।
इस समय आनंद के अतिरेक में डूबे इन वनवासियों का यह नाच-गान वाकई बड़ा ही अद्भुत और आकर्षक होता है। लोग टकटकी बांधे इनके करतबों से अपना मनोरंजन करते हैं। एक गांव में एकाधिक टोलियां भी वोरी नृत्य करती हैं। वोरी को कहीं-कहीं ‘‘राई गुड़िया’’ भी कहा जाता है। वोरी नृत्य का यह क्रम अनेक क्षेत्रोंं में दो-चार दिन तक चलता रहता है व रात को भी नाच गाकर जश्न मनाया जाता है। पाँवों में घुंघरु बांधे वोरी बना पुरुष जब नारी के रूप में नाचता है तब अद्र्धनारीश्वर की कल्पना सहज ही साकार हो उठती है। ताल पर नाचते हुए इनकी मादक लय और रोचकता उस समय चरम हो उठती है जब वोरा बना युवक वोरी को प्रेमिका की तरह बांहों में भींच लेता है। तब दर्शक समुदाय भी हर्ष नाद कर उठता है।
नारी और पुरुष अनादिकाल से एक दूसरे के पूरक रहे हैं और यही सृष्टि का मूल आधार है। आलिंगनबद्ध यह वोरा- वोरी युगल शिव और महागौरी की नृत्य मुद्रा और परस्पर समाहित हो एकाकार होने का भास कराते हैं। वोरी नृत्य के माध्यम से ये लोग विभिन्न करतबों से जन मनोरंजन करते हैं और सूरज के छिपते ही गांव के बाहर किसी मंदिर या खुले स्थान पर इकट्ठा होकर सामूहिक गोठ का आनंद भी लेते हैं। वोरी नृत्य को गवरी के लघु संस्करण के रूप में भी मंचित होते हुए देखा जा सकता है। दक्षिणांचल के आदिवासियों के लिए यह दीपावली का नृत्य है जिसे ग्राम्यांचलों, खासकर सुदूरवर्ती इलाकों में सहज ही देखा जा सकता है।
(डॉ. दीपक आचार्य)
महालक्ष्मी चौक, बाँसवाड़ा - 327001
(राजस्थान)
सम्पर्क - 9413306077
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