भारतीय संस्कृति में दीपावली समूचे मानव समुदाय के लिए उल्लास और मौज-मस्ती का उत्सव तो है ही। इस त्योहार की प्रतीक्षा मृतक भी करते हैं। उनके लिए भी दीवाली उजाले का पैगाम लेकर आती है। इसीलिए दिवंगत आत्माएं साल भर से दीपावली की प्रतीक्षा करती हैं। वागड़ अंचल में दीवाली हर किसी को सुकून देती है फिर मृतात्माएं इससे वंचित कैसे रह सकती हैं। वागड़ की पुरातन परम्पराओं में हर साल दीपावली पर दीवड़ा की रस्म होती है।
यम के निमित्त दीप दान करने की इस रस्म में रूप चतुर्दशी की रात्रि के अंतिम प्रहर अर्थात दीपावली को तड़के चार से पांच बजे के बीच घर-परिवार में साल भर में दिवंगत हुए व्यक्तियों के अंधत्व दोष निवारण के लिए विधि-विधान पूर्वक दीप दान किया जाता है। इसे दीवड़ा कहते हैं। दीवड़ा रस्म के प्रभाव के बारे में कहा गया है - नैव पश्यन्ति जन्मान्धों, कामान्धों नैव पश्यन्ति
दीवडा नहीं तो अगले जन्म में अंधापन
पौराणिक मान्यता है कि जिस मृतक के निमित्त दीवड़ा अर्थात दीपावली पर वार्षिक यम दीप-दान विधान नहीं होता है, उन जीवात्माओं को अगले जन्म में अंधत्व का अभिशाप भुगतना पड़ता है। ऎसी आत्माएं अगले जन्म में जन्मांध होती हैं। इसके साथ ही पूरे विधि-विधान से दीवड़ा रस्म पूर्ण नहीं होने पर अगले जन्म में आँखे कमजोर रहती है।
पुराणों में यम दीप दान विधान है यह
चतुर्दशी भगवान शिव के साथ-साथ यम की तिथि भी मानी जाती है। दीपावली वाली चौदस को यम के दीपदान के लिए वार्षिक पर्व माना गया है। चतुर्दशी की रात के अंतिम प्रहर में अर्थात् दीपावली को तड़के दीवड़ा विधान का आयोजन गांव-शहर या कस्बे से बाहर जलाशय के किनारे होता है। माना जाता है कि पितरों का वास यहीें होता है। इसमें वे सभी लोग भाग लेते हैं जिनके घर-परिवार में वर्ष भर में किसी परिजन की मृत्यु हो चुकी होती है। ये लोग घर से स्नान करके आते हैं अथवा जलाशय में स्नान के बाद दीवड़ा की पूजा में शरीक होते हैं। क्रिया पूरी हो जाने के बाद फिर स्नान जरूरी होता है। इनमें मृतक के रिश्तेदार भी हिस्सा लेते हैं।
इसमें मृतक का नाम व गोत्र उच्चारित कर मृतक के तेज प्राप्ति व अंधत्व दोष निवारण का संकल्प लिया जाता है। इसमें पूर्ववर्ती पितरों वंश परम्परा का भी स्मरण किया जाता है। इसके उपरान्त सुपारी या शिला में भगवान श्रीविष्णु का आवाहन कर विष्णु की न्यास-ध्यानपूर्वक षोड़शोपचार से पूजा की जाती है।
गन्ने के ध्वज दण्ड और नवान्न का प्रयोग पूजा में
यहीं पर तीन सुपारियों में यमराज तथा पितरों का आवाहन किया जाता है तथा इनके निमित्त तीन घृत दीपक जलाकर यम एवं पितर मंत्रों के साथ पूजा की जाती है। इसके लिए कलश या मिट्टी का छोटा पात्र(जिसे वागड़ अंचल में सउड़ी कहा जाता है) लेकर इसमें नवान्न के रूप में सूखे पौहे भरे जाते हैं। कहीं चने भी भरते हैं। फल भी अर्पित होते हैं। दीपक के साथ ध्वज का विधान होने से लाल-पीले रंगीन ध्वज लगाए जाते हैं। इन ध्वजों के लिए ध्वजदण्ड के लिए गन्ने के टुकड़ों का इस्तेमाल किया जाता है। गन्ने के दण्ड इसलिए कि इन दिनों में गन्ने की ही फसल होती है। किन्हीं स्थानों पर बेाईले और किसी और पेड़ की लकड़ी का इस्तेमाल होता है। भगवान और यम तथा पितरों को प्रसन्न करने के लिए नई और ताजी सामग्री भेंट करने का विधान चला आ रहा है।
कुछ समाजों में जलाशय के किनारे इन सारे विधानों के बीच पितरों के लिए लकड़ी व कपड़े के टुकडों से डागरा(मचान) बनाया जाता है तथा पितरों को इस पर बिठाने की भावना भी की जाती है। यम तथा पितरों को दीप दान, विष्णु पूजा आदि हो जाने के बाद आरती कर सभी का विसर्जन कर दिया जाता है। यह पूजा विधि समाजों के गोरजी सम्पन्न कराते हैं। दीवड़ा हो जाने के बाद स्नान-ध्यान कर देव-दर्शनादि किए जाते हैं। दीवडा की रस्म पूरी हो जाने के बाद मृतक के घर में दीपावली को दिन में मृतक का स्मरण किया जाता है तथा ब्राह्मणों एवं सगे-संबंधियों को जिमाया जाता है। आम तौर पर भोजन में बरफी, दूध पाक खीर का नैवेद्य लगता है।
देव दीवाली को भी होता है दीवड़ा
जिनके यहां दीपावली के आस-पास किसी की मौत हो जाती है उनके मृतक परिजनों का दीवड़ा देव दीवाली को तड़के अर्थात कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी के अंतिम प्रहर में होता है। इसकी सारी प्रक्रिया वही होती है जिसका दिग्दर्शन दीवाली को तड़के जलाशयों के किनारे होता है। धर्म और अध्यात्म की परम्पराओं में काशी से होड़ रखने वागड़ अंचल में इसी प्रकार की अनूठी परम्पराएँ लोक जीवन के वैविध्य का दिग्दर्शन कराती रही हैं।
(डॉ. दीपक आचार्य)
महालक्ष्मी चौक, बाँसवाड़ा-327001
राजस्थान
सम्पर्क ः 9413306077
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