वैष्विक स्तर पर भारत की विषेश पहचान लोककला, लोकसंगीत, लोकनृत्य व सांस्कृतिक समृद्धि के कारण है। भारत के विभिन्न राज्यों की अलग-अलग भाशा, परिधान, रहन-सहन आदि होते हुए भी यहां अनेकता में एकता की बेहतरीन मिसाल देखने को मिलती है और यह संभव हो सका है लोककलाओं के माध्यम से। हमारी अंतरराश्ट्रीय स्तर पर पहचान मधुबनी पेंटिंग व लोककला से ही है। मिथिला के लोकजीवन व लोक संस्कृति की जीवंत रेखांकन कपडे़ से लेकर कालीन तक देखने को मिलते हंै। यहां के बहुसंख्यक लोग गृहस्थ आश्रम में रहकर भी गायन-वादन के काफी षौकीन रहे हैं। विडंबना है कि जहां, बिहार के लोग विदेषिया नाच, सामा चकेवा, अल्हा-उदल, सोहर, चैती, झूमर, ठुमरी, कजरी, झिझिया आदि लोकगीत व नृत्य करके बिहार की मिट्टी की सोंधी महक बिखेरते थे। आज वहीं, आधुनिकता की चकाचैंध में लोककला व संस्कृति दम तोड़ रही है। अब गांव-कस्बों में झाल-करताल व मजीरे की मधुर आवाज सुनाई नहीं देती। गांव में न बचा झाल, न करताल। बिहार के लोकगीत, जीवन दर्षन , मंगल-अमंगल, प्रेम-करूणा, राग-द्वेश से उपजी झंझावतों की कहानी गेय पद में कहता था। संयोग, वियोग व मिलन की अप्रतिम काव्य की धारा अविरल बहती रहती थी। लोकगीत हमारी परंपरा व संस्कृति की जीवटता व्यक्त करता था। नाटक के मंचन के समय विद्यापति की पदावली के धुन बजाये जाते थे। कीर्तन व भजन तुलसी, कबीर, सूरदास, रहीम, जायसी आदि कवियों के पद, दोहे, चैपाई से षुरू होते थे। षास्त्रीय संगीत व कत्थक नृत्य जो संगीत की आत्मा है उससे हम दूर होते जा रहे हंै।
आज हमारा समाज किधर जा रहा है? मुजफ्फरपुर के कलाकर राॅबिन रंगकर्मी कहते हैं कि सांस्कृतिक प्रदूशण के कारण युवावर्ग अष्लील गानों पर थिरक रहे हैं। हाॅरमोनियम, ढोलक, तबला, बांसुरी, सारंगी, झाल, मजीरा आदि के स्वर से अनजान युवाओं को दो दषक पहले तक गांव या षहरों में गीत-संगीत व वाद्ययंत्र पर गायन का संस्कार दिया जाता था। आज हम आइटी युग में जी रहे हैं। हर हाथ में मोबाइल व लैपटाप है। पर इनका इस्तेमाल लोकगीत व लोककला से ज्यादा अष्लील व फूहड़ गीत व मूवी के लिए किया जा रहा है। भला ऐसी मानसिकता से भारत की लोक संस्कृति व कला को संजोये रखना दुष्कर काम है। एक दषक पहले तक दषहारे में झिझिया नृत्य व लोकगीत की बहार रहती थी। लेकिन षहरी चकाचैंध में झिझिया नृत्य गुम हो गया है। डांडिया-गरबां रास उत्सव के रूप में स्कूल, काॅलेज व क्लबों में क्या बड़े, क्या छोटे सभी नए-नए परिधानों में सज-धजकर देर रात तक फिल्मी धुन पर मस्ती के आगोष में झूमते नजर आते हैं। चाहुंओर उत्सव को लेकर जोरदार तैयारियां रहती है। इस षोर में बिहार (मिथिला) का लोकनृत्य झिझिया बेगाना नजर आने लगा है। परायेपन का दंष झेल रहा लोकसंगीत-नृत्य की चिंता किसी को नहीं। बस पूरे षहर में ध्ूाम मचा रहा है, तो डीजे मस्ती।
मुज. जिले के पश्चिमी क्षेत्र की गुडि़या, मुन्नी, अर्चना, कजली, पूजा जैसी छोटी-छोटी लड़कियों के भरोसे बची है झिझिया की टिमटिमाहट। इन बच्चियों की उम्र मात्र 8-12 वर्ष हीं है। लेकिन इनके सिर पर मिट्टी का पात्र है, तेल व घी से जलता हुए दीपक की रोषनी जब छिद्र से निकलती है, उसके साथ ही ‘झिझिया खेले आवले........ आदि गीत की बोल के साथ ही नृत्य की मनमोहक अदा लोगों को देखने के लिए विवष कर देती है। आसपास के लोग एक-दो और गाने की फरमाइष करने में देर नहीं करतें। सिर पर रखे हांडी के छिद्र की रोषनी में गीत के स्वर व दीपक के लौ भी नृत्य करते नजर आते हैं। लोग खषी-खुषी कुछ बख्षीष के तौरपर एकाध रुपये नन्हीं-मुन्नी नर्तकियों को दे देते हैं। षिक्षक अजय कुमार कहते हैं कि पूजा-पाठ का मानो मतलब बदल गया है। हरेक अवसर पर अष्लील गाने व डिस्को डांस का प्रचलन हमारी संस्कृति व लोक जीवन के लिए अषुभ संकेत है। षादी व धार्मिक अनुश्ठान के अवसरों पर महिलाएं गीत न के बराबर गा रही हैं। अब केवल रिकाॅर्डिंग गीत बजाया जा रहा है। वयोवृद्ध रामचन्द्र प्रसाद, राधेष्याम सिंह, रामाकांत सिंह आदि लोग कहते हैं कि पहले भिखारी ठाकुर, षारदा, सिंहा, भरत व्यास आदि के लोकगीत सुनने के लिए लोग उतारू रहते थे। लोकगीत में लोक जीवन की मंगल कामना निहित रहती है।
पौराणिक जनश्रुतियों में कहा गया है कि सीता को लक्ष्मी, भगवान विष्णु की पत्नी के रूप में माना गया था। जब राजा जनक अपनी सुबह की सैर कर रहे थे, उसी दौरान धरती के नीचे से सीता को देखा और बेटी के रूप में स्वीकार किया। उसी समय से झिाझिया लोक नृत्य बिहार में श्रद्धा और उत्साह के साथ किया जाने लगा। झिझिया नृत्य महिलाएं करती हैं। पूरे नवरात्रि के दौरान लक्ष्मी, पार्वती और सरस्वती के तीन रूपों के पूजनोत्सव के उपलक्ष्य में किया जाता है। महिलाओं के लिए एक बहुत ही पवित्र त्यौहार है। पूरे देषभर के जनजातिये समाज व अन्य वर्गों की महिलाएं उल्लास और श्रद्धा के साथ नृत्य करती हंै। बिहार के आदिवासियों में झिझिया नृत्य फसलों के पर्व के रूप में मनाये जाने की परंपरा है। इनके लोक जीवन पर आधारित नृत्य है। खेतीबारी, अन्न उत्पादन आदि के लिए झिझिया गीत-नृत्य से महिलाएं वर्शा के देवता इंद्र को रिझाने की कोषिष करती हैं।
वस्तुतः आधुनिकता की चकाचैंध से निकलकर यथार्थ के धरातल पर आना होगा। षादी के मौके पर फिल्मी गानों की जगह लोकगीत झूमर, लाचारी, कोहबर, विदाई आदि के गाने की परंपरा षुरू करनी पडे़गी। यज्ञ-प्रयोजन के दौरान भजन-कीर्तन जैसे गायन-वादन को बढ़ावा देना होगा। सुबह की षुरूआत डिस्को, राॅक डांस, अष्लील गाने के बजाये कबीर, तुलसी, सूर, मीरा व विद्यापति की चैपाई, दोहे, पदावली आदि से करना होगा। तब बचेगी लोकसंस्कृति व लोेकगीत की मिठास।
अमृतांज इंदीवर
(चरखा फीचर्स)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें