मोदी सड़कों पर झाड़ू लगाकर, वैश्विक नेताओं से मिलकर और महत्वपूर्ण जगहों पर अनिवासी भारतीयों को संबोधित करके खुद को और भी बड़ा स्टार बना रहे हैं। हालांकि, यह सब करने में प्रधानमंत्री के रूप में वे अपना काम ही कर रहे हैं। अपने व्यक्तिगत ब्रांड से पार्टी को जोड़कर उन्होंने और अधिक शक्ति हासिल कर ली है और भाजपा में लगभग हर किसी को गैर-जरूरी बना दिया है। वे भारत के अब तक के सर्वाधिक चतुर नेताओं में से एक है, पर वंशवादी दलों की तीसरी, चैथी, पांचवीं पीढ़ी के उत्तराधिकारियों को समझ में नहीं रहा है कि वे करें क्या? मतलब साफ है संघ से निकले मोदी सारे तीन-तिकड़म कर अपना एकाधिकार चाहते है वैज्ञानिक व सेक्युलरिज्म के बूते अपनी पहचान बनाकर 40 साल तक सत्ता पर राज कर चुके नेहरु-इंदिरा की तर्ज पर चलकर दिखाना चाहते है कि वह भी तेक इंन इंडिया की सोच से कुछ ऐसा ही कर सकते है। मोदी की इस कामयाबी को संघ बड़ी संभावना के रुप में देख रहा है। इन सबके बीच महाराष्ट्र व हरियाणा के चुनाव परिणाम ने तो मोदी की बांझे भर आई है, जो संकेत दे रही है कि लोगों में उनकी लोकप्रियता बनी हुई है। हालांकि लोकसभा चुनाव से तुलना करें तो कहा जा सकता है, कल तक उनके नाम की जो सुनामी चल रही थी वह महाराष्ट में फीका पड़ने से अब हवा का रुप ले लिया है।
जी हां, अक्सर लोगों के मुंह कहते सुना जाता है अकेला चना भुजा भार नहीं फोड़ता। लेकिन सब इसके उलट हो रहा है। जिंदगी में कुछ हासिल करने के लिए उन्हें रिस्क लेना ही पड़ता है जैसे फार्मूले को आगे बढ़ाते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कुछ ऐसा ही कर रहे है। चाय बेचकर कैरियर की शुरुवात करने वाले मोदी अगर आज सत्ता के उच्च शिखर पर है तो इसके पीछे उनका दृढ़ विश्वास ही है। इस विश्वास का ही नतीजा है कि अकेले दम न सिर्फ वह 300 से अधिक सीटे हासिल कर पीएम बने बल्कि महाराष्ट्र और हरियाणा को चुनौती के रुप में लेकर दोनों जगहों पर अपने नाम का जलवा बिखेरने में एक बार फिर सफल होते दिखाई दिए। दोनों जगहों पर भाजपा की ही सरकार बना। मतलब विरोधियों के तमाम विरोध व अटकलों के बावजूद पहले भूटान, नेपाल, चीन, जापान व अमेरिकी दौरे के बाद हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव नतीजों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता पर नए सिरे से मुहर लगाने के साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि कांग्रेस के साथ-साथ क्षेत्रीय दलों की राजनीतिक जमीन खिसकने का सिलसिला कायम है। मोदी के इस दांव से विरोधी पस्त तो हुए ही, उपचुनाव नतीजों के आधार पर खड़ा किया गया वह किला भी रेत के महल की तरह ढह गया कि उनका जादू तो उतार पर है। इससे नरेंद्र मोदी का राजनीतिक कद और अधिक बढ़ा हुआ नजर आने लगा है। इस बढ़े हुए कद का लाभ उन्हें राष्ट्रीय और साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी मिलेगा। कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री अपनी पहली अग्नि परीक्षा में पास हो गए हैं। इन चुनाव परिणामों ने न केवल क्षेत्रीय दलों व नेताओं के दर्प को तोड़ा है, बल्कि प्रधानमंत्री मोदी के ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के सिक्के को और चमकाया है।
हालांकि लोकसभा चुनाव के सापेक्ष तो कहा ही जा सकता है, कल तक उनके नाम की जो सुनामी चल रही थी दोनों प्रदेशों के परिणाम खासकर महाराष्ट में पूर्ण बहुमत न होने से अब हवा में बदल गई है। जनता के बीच अब वह लहर नहीं, लेकिन कहा जा सकता है कि जो सफलता मिली है वह मोदी की ही बदौलत है। मोदी समर्थक कार्यकर्ताओं व संघ को छोड़ दे तो उसमें भाजपा का दूर-दूर तक कोई करिश्मा नजर नहीं आती। हालांकि यहां जिक्र करना जरुरी यह है कि इन सबके बीच एक बड़ा सवाल उभर कर आ रहा है कि कहीं कांग्रेस मुक्त करो अभियान के बीच हरियाणा व महाराष्ट के चुनाव में जो समीकरण फीट गए, अपने सहयोगियों को बाहर का रास्ता दिखाया, उसके पीछे कहीं हिन्दुस्तान की सियासत में एकछत्र जलवा बिखेरने की मंशा तो नहीं। जैसा विशेषज्ञ भी कह रहे है कि यह चुनाव भाजपा नहीं मोदी ने लड़ी है। मतलब साफ है मोदी भी नेहरु व इंदिरा के ही नक्शे-कदम पर चलकर यह जताना चाहते है कि वह भी 40 साल तक अपने बूते सरकार चला सकते है। वैसे ये दोनों चुनाव इसलिए भी अहम था, क्योंकि बीजेपी ने उपचुनाव में मिली शिकस्त के बाद एकबार फिर से लोकसभा चुनाव की तर्ज दांव पूरी तरह से ब्रांड मोदी पर लगा रखा था। मोदी मैजिक के भरोसे महाराष्ट्र में शिवसेना का 25 साल पुराना साथ छोड़ दिया। शायद यही वजह रही कि पीएम मोदी ने खुद प्रचार का जिम्मा संभालाते हुए 10 दिन के अंदर महाराष्ट्र में 38 रैलियां कर डालीं और पूरे राज्य में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई। प्रचार के दौरान उन्होंने कांग्रेस और एनसीपी के खिलाफ जोरदार मोर्चा खोला, लेकिन शिवसेना पर चुप्पी साधे रखी। हरियाणा में भी मोदी ताबड़तोड़ रैलियां संबोधित करते नजर आए। परिणाम यह रहा कि हरियाणा में 90 में से 45 सीटे लेकर बीजेपी अपने दम पर सरकार बना रही है। जबकि आईएनएलडी को 20, कांग्रेस को 15 व एचजेसी को 2 सीटों पर जीत मिली। 19 अन्य के खाते में है।
हालांकि महाराष्ट में बहुमत की सरकार तो नहीं बन रही, लेकिन 288 में 123 सीट दिलाकर मोदी ने पार्टी के जलवा में चार चांद लगाने का काम तो कर ही दिया है। यहां भी दुसरे नंबर शिवसेना ही है, जिसके खिलाफ मोदी ने पूरे चुनाव भर बयान देने से कतराते रहे। लेकिन जिसके खिलाफ आवाज बुलंद की उसका सुपढ़ा ही साफ हो गया। एनसीपी को 41, कांग्रेस 43, एमएनएस को 2 सीट पर ही संतोष करना पड़ा, 19 अन्य के खाते में है। विश्लेषकों की मानें तो यहां भी सरकार बीजेपी की ही बनेगी। हरियाणा में भाजपा तीन बार सत्ता में साझीदार रही है, लेकिन यह पहला मौका है जब वह अपने खुद के बूते सरकार बनाई। 1996 में बंसीलाल की सरकार में भाजपा साझीदार रही है। हविपा को 33 और भाजपा को 11 सीटें मिली थी और बंसीलाल मुख्यमंत्री थे। 2000 में मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चैटाला को भाजपा ने समर्थन दिया था। इनेलो के 47 विधायक थे, जबकि भाजपा के 6 विधायक बने। इससे पहले 1987 में चै. देवीलाल की सरकार को भाजपा विधायकों ने समर्थन दिया था। उस समय भाजपा के 16 विधायक चुनकर आए थे। लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद अपने बूते विधानसभा चुनाव में कूदना भाजपा के लिए फायदे का सौदा साबित हुआ। कभी डेढ़ दर्जन से अधिक सीटें भी नहीं जीतने वाली भाजपा आज प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। भाजपा को जहां केंद्र में अपनी पार्टी की सरकार होने का फायदा मिला है, वहीं प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता विरोधी लहर का लाभ भी मिला। भाजपा का चुनाव नतीजों से पहले मुख्यमंत्री घोषित न कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही चेहरा बनाकर मैदान में उतरना सही रणनीति साबित हुआ। पार्टी इससे एकजुट होकर मैदान में उतरी और भितरघात की संभावनाओं को सिरे से खारिज कर दिया।
निः संदेह महाराष्ट्र में भाजपा अपने बलबूते सरकार बनाने में सफल नहीं हो सकी, लेकिन यह सहज-सामान्य नहीं कि अकेले लड़ने के बावजूद उसे पिछली बार के मुकाबले दोगुनी से अधिक सीटें मिलीं। यदि भाजपा ने थोड़ा और पहले अकेले दम चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया होता तो शायद वह अपने बलबूते सरकार बनाने की स्थिति में होती, क्योंकि लोकसभा चुनाव नतीजे यही झलक पेश कर रहे थे कि भाजपा विधानसभा चुनाव में अपने दम पर परचम फहरा सकती है। हरियाणा में चार सीटों से लगभग 12 गुना लंबी छलांग लगाकर भाजपा सरकार बनाने जा रही है। तो महाराष्ट्र में भी छोटे भाई की भूमिका से उबरकर भाजपा ने यह बता दिया है कि यहां भी सिक्का उसी का चलेगा। अपने पुराने बड़े भाई शिवसेना के मुकाबले भाजपा लगभग दोगुनी आगे है। जाहिर है अब अगर उसे इसमें लोकसभा से खराब सफलता मिलती तो नेतृत्व मंडली पर सवाल उठते। इसलिए अचरज नहीं कि उपचुनावों से स्वाभाविक ढंग से दूर रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सबसे ज्यादा हरियाणा पर ध्यान दिया। कुलदीप बिश्नोई के साथ रहते हुए लगता था कि भाजपा भी गैर-जाट वोटों के धु्रवीकरण का प्रयास करेगी, पर जब उसने बड़े जाट नेता तोड़ लिए, जाट इलाकों से सांसद जितवा लिए तो यह रणनीति छोड़ दी और विश्नोई को बाहर का रास्त दिखा दिया। जब स्थानीय इकाई कमजोर रही हो तो सारे फैसले केंद्रीय नेतृत्व ने ही लिए, पर सबसे ज्यादा बागी भाजपा में हैं तो सबसे ज्यादा मुंह फुलाने वाले भी। और दस साल सत्ता से बाहर रहकर भी चैटाला और उनकी इंडियन नेशनल लोकदल के पास इतने पक्के कार्यकर्ता और उम्मीदवार हैं कि भाजपा या कांग्रेस को उनसे मुकाबला करने में मुश्किल रही है। हनी सिंह जैसे यंग आइकन को लाकर चैटाला की पार्टी ने भाजपा के युवा आधार को भी डगमगाया है। इसके बावजूद मोदी इफेक्ट ही है कि भाजपा राज्य की 90 में से 47 सीटें जीत ली।
महाराष्ट्र और विशेषकर मुंबई में अगर 123 सीटे मिली है तो कहा जा सकता है कि यहां भी मोदी इफेक्ट ही रहा, जो युवाओं को जोड़ने में सफल रहा। बता दें कि 288 सीटों वाली महाराष्ट्र विधानसभा में सरकार बनाने के लिए 145 सीटों की जरूरत होती है। पिछले 25 वर्षो से शिवसेना के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ती रही भाजपा की जीत का प्रतिशत हमेशा शिवसेना से ज्यादा रहता आया है। 2009 के चुनाव में भाजपा 119 सीटों पर लड़कर 46 सीटें जीती थी, जबकि शिवसेना 169 सीटों पर लड़कर भाजपा से दो सीट कम 44 सीटें ही जीत सकी थी। तालकटोरा स्टेडियम में भाजपा की एक बैठक में मोदी ने ऐलान किया था कि जनता में बदलाव के लिए तड़प देखते हुए भाजपा को अपनी शक्ति पहचान लेनी चाहिए और अपनी ही शर्तो पर आगे बढ़ना चाहिए। मंत्र था- भाजपा मजबूत होगी तो साथी भी आएंगे और गठबंधन भी मजबूत बनेगा। लोकसभा चुनाव में उस मंत्र की परख भी हो गई थी। जाहिर है कि विधानसभा चुनाव में भी मोदी-शाह की टीम उसी मंत्र पर काम करने वाली थी और फिर से उसका असर भी दिखा और मोदी का साहस भी। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में साहस ज्यादा अहम इसलिए है, क्योंकि लोकसभा की बड़ी जीत के बाद विधानसभा चुनाव में रिस्क लेने से बचा जा सकता था, लेकिन मोदी ने शाह के साथ मिलकर न सिर्फ फैसला लिया, बल्कि चुनाव में खुद को पूरी तरह से झोंक भी दिया। खासतौर पर तब जबकि मोदी को इसका अहसास था कि सफलता न मिलने की दशा में वह विपक्ष के सीधे निशाने पर होते।
विचारधारा, दृष्टि-पत्रों (विजन डॉक्यूमेंट) और घोषणा-पत्रों की बजाय क्या आज के युग में एक व्यक्तित्व पार्टी का चेहरा हो जाता है और फिर वही परिभाषित करता है कि पार्टी के साथ क्या गलत और क्या सही है? तो जबाव है हां, ऐसा ही है। मुख्यधारा का मीडिया और सोशल मीडिया, दोनों विचारों की बजाय व्यक्तित्वों के प्रति अत्यधिक झुकाव रखते हैं। आदर्श स्थिति तो यही है कि आपके पास व्यक्तित्व भी हो और विचारधारा भी। हालांकि, यदि आपके पास ऐसा व्यक्तित्व नहीं है, जो आज की पीढ़ी के साथ जुड़ सके तो आप जीत नहीं सकते। भाजपा को छोड़कर लगभग सारे दलों में ऐसे व्यक्तित्वों का अभाव है। भाजपा में भी मुख्यतः मोदी ही हैं जो पहले सियासी राॅक स्टार है जिन्होंने मैडिसन स्क्वायर से मुंबई और गांधी नगर से गोहाना तक अपनी असरदार शैली, अभूतर्पू कारपोरेट समर्थन और खास पैकेजिंग के बल पर लोगों को एकहद तक मुग्ध कर सकते है। बाकी में तो ऐसे लगता है जैसे आवाज का बटन कम होते-होते मौन यानी म्यूट पर ही चला गया है। किसी भी पार्टी में ऐसा व्यक्तित्व लगभग नहीं ही है, जो मोदी के एक अंश के बराबर भी प्रेरणा दे सके, भरोसा पैदा करे और जो लगातार नजर में बना रहे। बेशक, सत्ता में आने के बाद मोदी के लिए लोगों की नजर में बने रहने के मौके ज्यादा हो गए हैं और विपक्ष का काम और भी कठिन।
इस सबके बावजूद विपक्षी दल गाफिल हैं। इन दलों के वरिष्ठ नेता सोचते हैं कि शीर्ष पर बड़े व्यक्तित्व का कोई ज्यादा महत्व नहीं है। सही नारा देकर और मार्केटिंग अभियान चलाकर किसी को भी भरोसेमंद और प्रेरक व्यक्तित्व के रूप में स्थापित किया जा सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसी सोच में कोई तथ्य नहीं है। यदि उन्हें ऐसे किसी व्यक्तित्व की जरूरत महसूस भी हो तो अपनी पार्टी में उसे खोजना उनके लिए मुश्किल हो जाएगा। ज्यादातर दलों में योग्यता के लिए ज्यादा गुंजाइश नहीं है। ऐसी दशा में आज जब महत्वाकांक्षी मतदाता ऐसा नेता चाहते हैं, जिसनेजमीनी काम कर दिखाया हो, वह खुद को अच्छी तरह से पेश कर सके और काफी हद तक सत्यनिष्ठा दिखाई हो, तो ये दल मुश्किल में पड़ गए हैं। कोई भी पार्टी इस बारे में क्या कर सकती है? मोदी सड़कों पर झाड़ू लगाकर, वैश्विक नेताओं से मिलकर और महत्वपूर्ण जगहों पर अनिवासी भारतीयों को संबोधित करके खुद को और भी बड़ा स्टार बना रहे हैं। हालांकि, यह सब करने में प्रधानमंत्री के रूप में वे अपना काम ही कर रहे हैं। अपने व्यक्तिगत ब्रांड से पार्टी को जोड़कर उन्होंने और अधिक शक्ति हासिल कर ली है और भाजपा में लगभग हर किसी को गैर-जरूरी बना दिया है। वे भारत के अब तक के सर्वाधिक चतुर नेताओं में से एक हैं और वंशवादी दलों की तीसरी, चैथी, पांचवीं पीढ़ी के उत्तराधिकारियों को समझ में नहीं रहा है कि वे करें क्या? लोग अब भ्रष्टाचार और संकीर्ण राजनीति से उब चुके है, उन्हें जिस तरफ भी बेहतर विकल्व मिलता है उधर के हो जाते है। इसलिए राजनेताओं के लिए यह चुनाव एक सबक है। उन्हें या तो पारंपरिक राजनीति छोड़नी होगी, क्योंकि बीते 6 दशक की चुनावी राजनीति में जीत-हार को कभी राजनीतिक तौर-तरीके बदलने के दायरे में नहीं रखा गया, लेकिन पहली बार अपने बूते देश की सत्ता पर काबिज होने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस तेवर के साथ गांव, किसान, मजदूर से लेकर डाक्टर, कारपोरेट और उद्योगिक घरानों को भी मेक इन इंडिया से जोड़ने की बात कही और संपंन चुनावों में जनता के बीच सीधे संवाद बनाई, नतीजा आने के बाद बदलती राजनीति संकेत नही ंतो और क्या है।
कहा जा सकता है कि नेता सत्ता पाने के बाद सत्ता की ठसक में न रहकर सीधे संवाद बनाना ही होगा और विकास की परिभाषा को जाति या धर्म में बांटने से बचना ही होगा। ध्यान दे तो मोदी ने बेहद बारीकी से अपने भाषणें में उस आर्थिक सुधार को निशाने पर लिया है, जिसने मंडल-कमंडल की राजनीति को बदला। जिसने भारत को बाजार में बदल दिया। लेकिन राजनीतिक तौर-तरीके बदलने शुरु हो गए है। क्योंकि कांग्रेस ही नहीं शरद पवार हो चोटाला, उद्धव हो या फिर यूपी-बिहार के गैरभाजपाई सभी के तौर-तरीके पुराने ढर्रे पर ही है, जबकि दो पीढि़या इस जमाने में वोटर के रुप में जन्म ले चुकी है, जिसे साधने में मोदी मास्टर साबित हो रहे है। सत्ता संभालने के 145 दिनों के भीतर बतौर पीएम जिस अंदाज में कालाधन, गंगा सफाई, जजों की नियुक्ति, जनधन योजना, ई-गवर्नेंस, स्कील इंडिया, डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया, आर्दश गांव, स्वच्छ भारत और श्रमेव जयते जैसे एलानों की झड़ी लगाई उससे संदेश यही गया कि कमोवेश हर तबके के लिए कुछ न कुछ है। सवाल उठता है कि कोई कैसे भरोसा पैदा करके प्रेरक व्यक्तित्व बन जाता है? इसे ऐसे समझा जा सकता है। एक, वास्तविक काम करके, लोगों को इसके बारे में बताएं, उन्हें आपका काम जानने दें। दूसरे शब्दों में ऐसा कोई सकारात्मक काम करें, जो प्रदर्शित किया जा सके और फिर इसकी जोरदार मार्केटिंग करें। इसमें से निकलने का कोई शॉर्टकट नहीं और कोई नारेबाजी और किसी तरह की चालाकी ही काम सकती है। यदि आपको असली ताकत चाहिए तो असली काम करके भी दिखाना होगा। और हां, आपको इस व्यक्तित्व को केंद्र में रखकर पार्टी के पूरे समर्थन के साथ जोरदार मार्केटिंग करनी होगी। आपको देश की चिंता करनी होगी। आपकी हर कार्रवाई, आपके हर शब्द में यह झलकना चाहिए। विपक्ष से नफरत करने से तो जीत नहीं मिलेगी पर भारत से प्यार करके मिल सकती है। खबरों की भूख के इस जमाने में आपको लगातार ऐसी नई चीजें देनी होंगी, जिन पर चर्चा हो, ऐसी चीजें प्रदर्शित करनी होंगी, जिन पर नजर पड़े और ऐसे ढेर सारे आइडिया देने होंगे, जिनमें लोगों को भागीदार बनाया जा सके। वरना आप कालबाह्य हो जाएंगे, आपका वजूद खत्म हो जाएगा।
हालांकि यहां जिक्र करना जरुरी यह है कि अगर लोकसभा चुनाव के साथ प्रांतीय चुनाव होते तो शायद पूरे देश में सिर्फ मोदी वाली भाजपा ही नजर आती। महाराष्ट्र में 110 की जगह बीजेपी 144, शिवसेना 108, एनसीपी 24 और कांग्रेस 12 सीटों पर काबिज होती, जबकि हरियाणा में बीजेपी 63, आइएनएलडी 18 और कांग्रेस 9 सीटों पर ही संतोष करना पड़ता। क्योंकि लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के दौरान दोनों प्रदेशों में सभी पार्टियों ने इसी अनुपात में लोकसभा सीटें जीती थीं। महाराष्ट्र में कांग्रेस को दो और हरियाणा में महज 1 लोकसभा सीट पर कामयाबी से संतोष करना पड़ा था। लेकिन चार महीने बाद नतीजे बदल गए हैं। बीजेपी 144 नहीं 110 के आसपास है और कांग्रेस 12 नहीं 40-50 के आसपास है। शिसवेना 108 की जगह 50-60 के बीच झूल रही है और शरद पवार की पार्टी का कांटा भी 50 पर टक्कर मार रहा है। महाराष्ट्र में चार महीने में ऐसा क्या बदल गया? कम से कम कांग्रेस ने कोई ऐसा महान काम तो नहीं किया कि चार महीने में उसकी संभावित सीटों में 350 फीसदी का इजाफा हो जाए और मीडिया में भ्रष्टाचार के आरोपों से बुरी तरह बदनाम हो चुकी एनसीपी 2009 के स्तर से थोड़ी ही नीचे आए।
सवाल है तो फिर बदला क्या? जाहिर है, बदला है वो जुनून जो लोकसभा चुनाव के समय था। नरेंद्र मोदी की आक्रामक रैलियां, केंद्र की राजनीति में उनकी कुंवारी छवि और एक बेहद आक्रामक चुनाव प्रचार अभियान। उनके सामने किसी प्रतिद्वंद्वी का न होना। कहने को राहुल गांधी थे, लेकिन वे बस कहने को ही थे। उस चुनाव में जब हम पत्रकार गांवों से गुजरते हुए शहर दर शहर घूमते थे तो मोदी-मोदी की सनसनी हवा में घुली थी। शायद वह सनसनी चार महीने में उतर गई है। कहा जा सकता है मोदी अब लोकप्रिय नेता हैं। लेकिन लहर, आंधी या सुनामी नहीं हैं। लोकतंत्र के लिए यह अच्छा संकेत है। पिछला अक्टूबर. तब मोदीजी को हल्दी चढ़ी थी, तो बीजेपी ने कहा था कि प्रधानमंत्री पद के लिए वही उसके वर हैं। उसके बाद मध्य प्रदेश और राजस्थान के चुनाव में जनता ने विपक्ष को एक-एक सीट के लिए तरसा दिया। छत्तीसगढ़ में उम्मीद थी कि जीरम घाटी में मरे कांग्रेसी नेताओं की सहानुभूति जैसी कोई लहर होगी लेकिन मोदी लहर के आगे कोई लहर नहीं चली। ऐसे में महाराष्ट्र और हरियाणा का जनादेश स्वस्थ लोकतंत्र का संकेत है। संसद में जनता की आवाज कभी सत्ता पक्ष नहीं उठाता, विपक्ष उठाता है। शायद इसी आवाज ने राम मनोहर लोहिया, विश्वनाथ प्रताप सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और शरद यादव को जनप्रिय नेता बनाया जबकि उस समय जनता बहुमत नेहरू, इंदिरा या राजीव को देती थी। जनता लोकतंत्र की इस उलटबांसी को दिल से लगाए रहेगी लोकतंत्र मजबूत होता रहेगा।
यहां गौरतलब है कि इन नतीजों का यह मतलब कत्तई नहीं है कि अब भाजपा जहां चाहे अपने गठबंधन के साथियों से पीछज्ञ छुड़ाने के लिए ह रवह कोशिश करने लगे जैसा देखने को मिल रहा है। झारखंड हो या पंजाब समझदारी यही होगी एकला चलों रे नारे को चुनावी हथियार न बनाएं जब तक निर्णायक और निर्विवाद रुप से भारत को कांग्रेस मुक्त कर नहीं कर दिया जाता, तब तक भाजपा को प्रभुता का मद नहीं होना चाहिए। जनतंत्र में विपक्षी अल्पसंख्यकों को ही नहीं साथी अल्पसंख्यकों को भी अपनी बात कहने का मौका दिया जाना चाहिए। इन दोनों राज्यों में भाजपा की सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि उसके पास कोई सीएम का चेहरा नहीं था। जबकि सीएम को देखकर ही वोटिंग होती है। लेकिन अगर जनता ने व्यक्ति को केन्द्र में रखकर पार्टी और पार्टी की विचारधारा के साथ प्रधानमंत्री मोदी को देखकर वोट किया है तो मतलब साफ है अभी भी मोदी का जलवा जनता के बीच कायम है।
(सुरेश गांधी)
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