नानावटी-मेहता आयोग ने 2002 के दंगों पर मंगलवार को अपनी अंतिम रिपोर्ट राज्य सरकार को सौंप दी। सूत्रों के मुताबिक आयोग ने दंगों में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी, उनके मंत्रिमंडल के साथियों, राजनेताओं, प्रशासनिक अधिकारियों या किसी अन्य के शामिल होने से इनकार किया है।
पूर्व जज जीटी नानावटी और अक्षय मेहता के आयोग ने मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को रिपोर्ट सौंपी। आयोग को 12 साल के कार्यकाल में 25 बार सेवा विस्तार मिला। 46,494 शपथपत्रों की जांच की गई। सूत्रों का कहना है कि आयोग को तत्कालीन सरकार की निष्क्रियता या धार्मिक नेताओं और नेताओं की सक्रियता के कोई सबूत नहीं मिले हैं। गोधरा में नृशंस वारदात के बाद लोगों का गुस्सा फूटा। जिस वजह से दंगे हुए। इस तरह आयोग ने मोदी की एक्शन-रिएक्शन थ्योरी को ही सपोर्ट किया है। सेना को बुलाने में देरी पर भी आयोग ने तत्कालीन मोदी सरकार को क्लीन चिट दी है। आयोग का कहना है कि राज्य सरकार के कहने पर बैरक में से निकलते ही सैनिक गली-कूचे में तैनात नहीं हो सकते। दंगों के वक्त यह नहीं कहा जा सकता कि- दंगों के समय सेना तैनात करने में सरकार ने इरादे के साथ विलंब किया।
फरवरी-2002 में गोधरा रेलवे स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस पर पथराव के बाद उपद्रवियों ने एस-6 बोगी में आग लगा दी थी। इसके बाद गुजरात के कई हिस्सों में सांप्रदायिक दंगे हुए थे। इस दंगे में 59 कारसेवक, जबकि सांप्रदायिक हिंसा में 1162 लोग मारे गए थे। गोधरा कांड और इसके बाद हुए दंगों की जांच के लिए राज्य सरकार ने केजी शाह आयोग बनाया था। बाद में रिटायर्ड जज नानावटी को इसमें शामिल किया गया। यह आयोग सितंबर 2008 में अंतरिम रिपोर्ट राज्य सरकार को सौंप चुका है।
सूत्रों के अनुसार आयोग तत्कालीन मुख्यमंत्री समेत अन्य मंत्रियों से पूछताछ कर सकता था। लेकिन कोई सबूत नहीं मिला, जिसके आधार पर किसी को समन भेजा जाए। हालांकि, आयोग ने यह भी कहा है कि सरकार और आयोग के बार-बार कहने के बाद भी बड़े अधिकारियों ने शपथ-पत्र नहीं दिए। हालांकि, आयोग ने अखबारों और टीवी चैनलों की आलोचना की है। कई घटनाओं को बेवजह तूल दिया गया, जिससे हालात और बिगड़े।
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