मानवता के मूल्य को समझें यही हमारी संस्कृति रही है - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

मानवता के मूल्य को समझें यही हमारी संस्कृति रही है

humanisam and life
बरसों पहले एक प्रसिद्ध फिल्म नेर्देशक से बातें हो रही थी और उन्होंने कहा था "एक दिन मैं बम्बई में एक फिल्म शूटिंग देख रहा था उस दिन मेरे मन में आया सिनेमा सबसे अच्छा माध्यम है लोगों तक अपने विचारों को पहुंचाने का."  उसके बाद ही हमने  पुणे फिल्म इंस्टिट्यूट में दाखिला लेने का निर्णय लिया और निर्देशन को चुना.

सच सिनेमा वह शसक्त माध्यम है जिसके जरिए निर्देशक अपनी बातें आम लोगों तक पहुंचा सकता है, समाज को नई दिशा दिखा सकता है. जिन छोटी छोटी बातों पर हम गौर नहीं करते उनका आईना हमें निर्देशक सिनेमा के माध्यम से दिखा सकता है. परन्तु आज हमारे यहाँ हर जगह राजनीति इतनी हावी हो गई है, लोगों की भावनाएं इतनी कलुषित हो गई हैं कि समाज सदा दो भागों में बंट जाती है, लोग आपस में उलझकर रह जाते है, विषय के मतलब ही बदल जाते हैं. जिस उद्देश्य से निर्देशक ने अपनी बात रखी वह तो बेमानी हो जाती है. सिनेमा मनोरंजन के लिए बनाई जाती है........देश के नेता उसे धर्म, देवी देवता पर आक्रमण कह चिंगारी भड़काने का काम करते हैं, उसे धर्म और कौम से जोड़ देते हैं. 

हम इक्कीसवीं सदी में में कहने को तो जी रहे हैं लेकिन आज भी हमारे विचारों में ईश्वर का खौफ विद्यमान है. जो जितना पाप करता है वह उतना ज्यादा पूजा पाठ धर्म का आडम्बर करता है. मैं नहीं कहती पूजा नहीं करनी चाहिए. पूजा करना या किसी विशेष धर्म का अनुयायी होने का मतलब यह नहीं होता कि हम दूसरों को भी उसके विचारों को मानने के लिए बाध्य करें और सहमत न होने पर उसे भला बुरा कहें, धर्म हमें दूसरों का आदर करना सिखाता है, हमें अनुशासित बनाता है न कि उद्दंड.

ईश्वर हैं या नहीं इसपर बात करूँ इतनी विदूषी मैं नहीं पर इतना जरूर कहूँगी कि आज के युग में, धर्म के ठेकेदार बाबा और संत हो ही नहीं सकते. संत की परिभाषा क्या होती है यह भी आज के बाबाओं और संतों को मालुम नहीं होगा. हाँ लोगों में आगे बढ़ने की जल्दबाजी और डर ने आज व्यावसायिक बाबाओं, संतों को जन्म दिया है जो धर्म के नाम पर लोगों को ठगते हैं और लोगों के मन में बसे डर और लालच उन्हें ठगने का मौका देती है. उन्हें धर्म की जानकारी हो या न हो इतना अवश्य मालूम है कि धर्म के नाम पर देश को बांटा जा सकता है. 

पंडित, पुजारी,मौला, पादरी या बाबाओं को हम भगवान का प्रतिनिधि मानते हैं और हमारी इसी कमजोरी का फायदा आजके ये प्रतिनिधि उठाते हैं. एक प्रश्न मैं करना चाहूंगी अगर सच में ईश्वर हैं.....और अगर  हम इन प्रतिनिधियों का वहिष्कार कर खुद से अपने ईश्वर या ईष्ट की पूजा करें तो क्या हमारे ईश्वर हमारी नहीं सुनेंगे और यदि नहीं सुनेंगे तो फिर ईश्वर कैसे ?

हमारे यहाँ एक सिनेमा आज देश के प्रबुद्ध वर्ग से कहना चाहूंगी कि वे जागें और अपने विचारों पर किसी को हावी न होने दें. धर्म के आधार पर किसी को अपनी भावना पर अधिकार न करने दें . मानवता के मूल्य को समझें यही हमारी संस्कृति रही है उसे विलुप्त न होने दें.





---कुसुम ठाकुर ---


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