कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने लोकसभा चुनाव के बाद से लगातार हर चुनाव में पार्टी को मिल रही शर्मनाक पराजय से उत्पन्न पस्तहिम्मती से पार्टी को उबारने के लिए जो पहल तत्काल में की है उससे कांग्रेस फिर से चर्चा में आ गई है। नरसिंहा राव और सीताराम केशरी युग में कांग्रेस बुरी तरह धराशाई हो गई थी तब सोनिया गांधी ने अïवतार की तरह पार्टी की कमान संभाल कर सफलतापूर्वक उसका तारण किया। अïवतार से मतलब यह नहीं है कि सोनिया गांधी अपने आप में कोई दैवीय करिश्मा रखती हैं। कांग्रेस को पुनर्जीवन देने में उनके द्वारा पूरा होमवर्क करके तैयार की गई रणनीति की कारगर भूमिका थी। सोनिया गांधी ने पुत्र मोह और बीमारी के कारण पार्टी के मामलों में एक तरह से विश्राम जैसा ले लिया था लेकिन राहुल गांधी अपने आप को सूझबूझ से भरे नेता साबित नहीं कर पाए। उनकी नालायकी के चलते पार्टी की लुटिया डूबती चली गई।
लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद भी सोनिया गांधी ने पार्टी को राहुल के भरोसे छोडऩे की नीति पर पुनर्विचार नहीं किया जिससे कांग्रेस जमीन में दफन होने पर आ गई। तमाम राज्यों के चुनाव में वह अपने आप को दूसरे स्थान पर भी कायम नहीं रख पाई। खबरें छपीं कि कांग्रेस जिस राज्य में मुख्य मुकाबले से बाहर हुई उसमें फिर कभी वह अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो पाई। फिर बात भले तमिलनाडु की हो या उत्तर प्रदेश की। इस आधार पर कांग्रेस के भविष्य का चित्रण बेहद भयावह हो उठा और सदमे में डूबे कार्यकर्ता अïवसाद की हद तक मायूसी की ओर बढऩे लगे। ऐसे में ही जनता दल परिवार की एकता का नाम देकर लोकदल परिवार के नेताओं ने गिरोहबंदी करके ऐसी शिगूफेबाजी शुरू कर दी जैसे कांग्रेस हमेशा के लिए हाशिए पर चली गई हो और उनमें इतना दमखम हो कि वे राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का बहुत ताकतवर विकल्प अपने को साबित कर सकते हों। हालांकि परिस्थितियां और तथ्य उनके इस खोखले बड़बोलेपन से मेल नहीं खातीं फिर भी उन्होंने मीडिया मैनेजमेंट करके ऐसा वातावरण बना लिया था कि लोग यकायक उनके दावे की चकाचौंध से प्रभावित हुए जो कांग्रेस के आप्रासंगिक होने के क्रम में ताबूत की अंतिम कील की तरह प्रतीत होने लगा था।
पर लगता है कि अब सोनिया गांधी को होश आ गया है। इस कारण उन्होंने आगे की लड़ाई के लिए राहुल को सेनापति का कार्यभार सौंपने का इरादा छोड़कर खुद मोर्चा संभालने की एकबार फिर से ठान ली है। सोनिया गांधी की सबसे बड़ी विशेषता पश्चिम की कामयाब कार्यसंस्कृति के अनुरूप यह है कि उनकी आगामी कार्ययोजना ठोस तथ्यों पर आधारित होती है। उन्होंने जब पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष का पद संभाला था तभी सर्वे कराकर यह जान लिया था कि देश की बागडोर के बारे में वही फैसला लागू होगा जिसे दलित पिछड़े अल्पसंख्यक और महिलाएं लिखेंगे। यह लोग बहुसंख्या में हैं और इनमें पर्याप्त राजनीतिक चेतना आ चुकी है। इस कारण मुट्ठी भर लोगों द्वारा देश की राजनीति की नियति तय करने के दिन लद गए हैं इसीलिए उन्होंने उसी समय ऐलान कर दिया था कि पार्टी की निचले से निचले स्तर तक की इकाइयों में बावन फीसदी पद दलित पिछड़े अल्पसंख्यक व महिलाओं के लिए आरक्षित किए जाएंगे। इससे कांग्रेस में जड़ों तक एक नई सोशल इंजीनियरिंग की प्रक्रिया शुरू हुई और आखिर कांग्रेस फिर से सत्ता में वापस आने में कामयाब हुई।
इस दौरान उन्होंने जयपाल रेड्डी, मोहन प्रकाश जैसे जनता दल के समय के सामाजिक न्याय अभियान के चेहरों को पार्टी में स्थान दिया जबकि पुराने कांग्रेसी वीपी सिंह के विश्वासपात्र इन लोगों को पार्टी में महत्व देने के खिलाफ थे लेकिन सोनिया गांधी ने जैसे यथास्थिति को तोडऩे का इरादा बना लिया था। सोनिया गांधी ने अपनी पार्टी की राज्य सरकारों के रिपोर्ट कार्ड को नियमित रूप से चेक करने की व्यवस्था बनाई। इसका आधार तय किया। मानव विकास सूचकांक के शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला विकास जैसे बिंदुओं को इससे कांग्रेस की राज्य सरकारें मानव विकास सूचकांक को ऊपर ले जाने का माडल बन गईं। इसी सुनियोजित रणनीति का परिणाम था कि कांग्रेस ने विपरीत परिस्थितियों में भी आखिर न केवल सत्ता हासिल की बल्कि दस साल तक मनमोहन सिंह जैसे प्रधानमंत्री के नेतृत्व में केेंद्र में सफलतापूर्वक शासन चलाया जबकि मनमोहन सिंह में जननेता का कोई गुण नहीं था।
राहुल गांधी के हाथ में जैसे ही सोनिया गांधी ने पार्टी की बागडोर सौंपनी शुरू की वैसे ही मामला गड़बड़ाने लगा। दरअसल राहुल गांधी में कोई राजनीतिक सोच नहीं है। वे उन कांग्रेसियों के चंगुल में फंस गए जिन्हें पार्टी में ताजी और नई हवा आने देने के लिए झरोखे खोलना मंजूर न था। यथास्थिति वाद की ओर वापस लौटने का राहुल गांधी का उपक्रम पार्टी को बहुत भारी पड़ा। तथाकथित वंशानुगत कांग्रेसियों ने पार्टी की सत्ता के समय जनता के धन को लूटने और सत्ता का दुरुपयोग करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जब पार्टी संकट में आई तो भले ही वे दूसरी पार्टी में जाने पर अपेक्षित हैसियत न मिल पाने के डर की वजह से दलबदल से बचे रहे हों लेकिन व्यवहारिक रूप से सत्ता के साथ रहने के आदी होने की वजह से उन्होंने दूसरी पार्टियों के लिए काम किया। गली-गली में कांग्रेस के ऐसे पुराने पेशेवर कार्यकर्ता बिखरे पड़े हैं जो पार्टी को अपनी बपौती समझते हैं और नया वोट बैंक तो जुडऩे ही नहीं देते खुद भी चुनाव आने पर रिश्तेदारी या जातिवाद के नाम से दूसरी पार्टियों को ही वोट करते हैं। वैचारिक स्पष्टता न होने की वजह से मोदी के मुकाबले चुनाव में बहस के स्तर पर जिस तरह से पाला खेलकर लडऩे की जरूरत थी वह भी ऐसे कार्यकर्ताओं नेताओं की वजह से संभव नहीं हो पाया। जिन नेताओं ने पार्टी की लाइन के अनुरूप साहसिकता और निर्भीकता दिखानी चाही उन्हें पार्टी की छवि बिगाडऩे वाला करार देकर हतोत्साहित किया गया। यह लोग जाने-अनजाने में कांग्रेस को भाजपा की कार्बन कापी साबित करने का काम कर रहे थे। जाहिर है कि जब यथास्थिति की लाइन में ही चुनाव करना है तो मतदाता आरिजनल को चुनेंगे कार्बन कापी को क्यों चुनें।
बहरहाल चुनाव हारने के बाद भी राहुल गांधी ने वैचारिक आधार पर भाजपा के खिलाफ जनमत संगठित करने का कोई प्रयास नहीं किया। उन्होंने राजनीतिक पराक्रम दिखाने के लिए कुछ ऐसे नाटकीय प्रयास किए जिससे तेजतर्रार नेता के रूप में देखे जाने की बजाय वे विदूषक के रूप में देखे गए। अब सोनिया गांधी को समझ में आ गया है कि यह पार्टी के लिए गर्दिश का दौर है। पार्टी सत्ता में नहीं है जो वे राहुल गांधी का राजतिलक यह सोचकर कर दें कि बेटा धीरे-धीरे सबकुछ सीख लेगा। फिलहाल तो राजपाट वापस लाने की लड़ाई है जिसके लिए सूझबूझ की जरूरत है। कांग्रेस अध्यक्ष ने पहले की तरह खुद ही मैदान संभालने का संकेत देने के क्रम में हाल में दो पहल कीं। पहली तो जम्मू कश्मीर की त्रिशंकु विधान सभा में भाजपा द्वारा अपने मुंह मियां मिट्ठू बनकर देखे जा रहे शेखचिल्ली के सपने को तोडऩे की। भाजपा यह मान बैठी थी कि पीडीपी सत्ता की बंदरबांट के उतावलेपन में उसके साथ गठबंधन सरकार चलाने की पेशकश को मान लेगी। उसने जम्मू कश्मीर को भी महाराष्ट्र समझ लिया था और पीडीपी को शिवसेना पर जब पीडीपी ने अपनी मांगें पेश कीं तो भाजपा के छक्के छूट गए। न केवल उसने भाजपा का मुख्यमंत्री मंजूर करने से इनकार कर दिया बल्कि सशस्त्र बल क्षेत्र विशेष अधिनियम और अनुच्छेद 370 के मामले में भी ऐसा रुख दिखाया कि भाजपा से समझौते की गुंजाइश ही खत्म हो गई। इसी बीच पीडीपी तो पीडीपी नेशनल कांफ्रेंस ने भी रंग बदल दिया। उसने सारे अनुमानों को धता बताते हुए पीडीपी को समर्थन देने तक का संकेत दे डाला।
जम्मू कश्मीर एक छोटा सा राज्य है लेकिन इस समय मसला कुछ ऐसा बन गया है कि यह पूरी राष्ट्रीय राजनीति के केेंद्र बिंदु में आ गया है। इसने राष्ट्रीय राजनीति में लोकदल परिवार के नेताओं की औकात को स्पष्ट कर दिया। वे कहीं राष्ट्रीय भूमिका में होते तब तो कोई बयान या पहल कर पाते। सोनिया गांधी ने ऐसे में राष्ट्रीय पार्टी के रूप में कांग्रेस की बरकरार धाक को फोन पर पीडीपी के नेता मुफ्ती मुहम्मद सईद से बातचीत करके स्पष्ट कर दिया। इसके बाद से भाजपा में पूरी तरह निराशा का माहौल है। महबूबा सईद 30 दिसंबर को गर्वनर से भेंट करने वाली हैं। पीडीपी के प्रवक्ता का बयान आ गया है कि राज्य में पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के महागठबंधन की सरकार बन सकती है। निर्दलीय भी भाजपा के पाले से छिटक गए हैं। लोन ने भी पाला बदलने का संकेत दे दिया है। सोनिया गांधी की इस पहल ने राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस की एहमियत को लेकर भ्रम की स्थिति को समाप्त कर दिया है। इसके बाद कांग्रेस के स्थापना दिवस पर उन्होंने फिर से पार्टी पदों पर पचास प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की है। जाहिर है कि जिस फार्मूले से 1999 के बाद कांग्रेस का पुर्नोदय शुरू हुआ था पार्टी अब सोशल इंजीनियरिंग के उस आजमाए हुए कामयाब फार्मूले पर चलकर यथास्थितिवाद से आई कमजोरी से उबरने की कोशिशों में लग गई है।
ऐसा नहीं है कि एक-दो वर्षों में कांग्रेस के लिए कोई चमत्कार हो जाएगा। मोदी मार्केटिंग के गुर से राजनीतिक लक्ष्य साधने में अपनी महारथ साबित कर चुके हैं जिसमें उन्हें मात देना कांग्रेस को अभी लंबे समय तक मुश्किल रहेगा पर कांग्रेस के लिए एक अच्छी बात यह है कि मोदी के भस्मासुर यानी हिंदू संगठन कुछ समय तक धीरज रखने के उनके अनुरोध को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। धु्रवीकरण की राजनीति को अगर तेजी मिलती है तो कांग्रेस 1999 के दौर से इस कारण ज्यादा फायदे में रहेगी क्योंकि तब तीसरा मोर्चा इतना कमजोर नहीं था जितना आज है। इस कारण कांग्रेस के अपने वोट बैंक में बंटवारे की स्थितियां बनी हुई थीं लेकिन अब तथाकथित तीसरे मोर्चा में शामिल नेताओं की हालत यह है कि उनका वोट बैंक राज्य के चुनाव में भले ही उनका समर्थन करे लेकिन राष्ट्रीय चुनाव में उनकी उपस्थिति को वह शिखंडी ही समझेगा जिसकी वजह से शायद ही उस वोट बैंक में बंटवारा हो। बहरहाल अभी अगला चुनाव बहुत दूर है। साथ ही फिलहाल मोदी के काम का जादू भी बरकरार है लेकिन लोकतंत्र की मजबूती के लिए जरूरी है कि विपक्ष सशक्त हो और शायद कांग्रेस के सशक्तीकरण की जो नई सुबह उगती नजर आ रही है उससे यह जरूरत अवश्य ही पूरी होगी।
के पी सिंह
ओरई
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें