निर्विरोध पंचायतों को पांच लाख रूपए का ईमान देने तथा विकास कार्यों के लिए 25 प्रतिशत अधिक धनराशि उपलब्ध कराई जाने की मध्यप्रदेश सरकार की घोषणा सतही तौर पर आकर्षक लगती है, किन्तु भारत की सामाजिक व्यवस्था में यह न सिर्फ अलोकतांत्रिक, बल्कि सामंतशाही को बढावा देने वाली है। पिछले दिनों प्रदेश में ऐसी कई घटनाएं सामने आई, जो इस बात को साबित करती है।
निर्विरोध निर्वाचन पर सवालिया निशान लगाने वाली सबसे चिंताजनक घटना प्रदेश के मुरैना जिले में सामने आई, जहां दिमनी विधानसभा क्षेत्र की ‘’ऐसाह’’ नामक ग्राम पंचायत में 15 हजार रूपए का इनामी आरोपी अपने आतंक के दम पर निर्विरोध सरपंच बन गया है। उस पर हत्या, लूट और अवैध हथियार बेचेन के अपराध पंजीबद्ध है। उसके भय से पंचायत क्षेत्र के छह प्रत्याशियों ने अपने-अपने नामांकन फार्म ही वापस ले लिए। इसी तरह गुना जिले की ‘’खामखेडा’’ नामक ग्राम पंचायत में एक सम्पन्न व्यक्ति ने गौशाला के लिए 6 लाख रूपए देकर सरपंच का पद खरीद लिया। इसके बाद सभी प्रत्याशियों ने अपने नामांकन पत्र वापस ले लिए। किन्तु चुनाव लड़ने की इच्छुक एक महिला जब अपना नामांकन वापस लेने के लिए तैयार नहीं हुई तो उस पर गांव के कुछ लोगों ने इतना दबाव डाला कि उसने जहर खाकर आत्महत्या की कोशिश कर ली। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के समीप स्थित ‘’रायपुर’’ नामक ग्राम पंचायत के 20 वार्डो में से 19 वार्डो के पंच निविर्रोध निर्वाचित होने के बाद एक मात्र वार्ड में दो प्रत्याशियों के बीच वोट डाले जाने की नौबत आने पर वहां रिटर्निंग ऑफिसर ने ही पंचायत मुख्यालय पर निर्विरोध निवार्चित पंचायतों को ईनाम दिए जाने का बैनर लगवा लिया गया, जिसके प्रभाव में उस वार्ड के एक प्रत्याशी द्वारा अपना नामांकन वापस ले लिया गया।
निर्विरोध पंचायतों को एक ओर जहां प्रदेश सरकार पांच लाख रूपए का ईनाम दे रही है, वहीं उन पंचायतों के सम्पन्न लोग बोली लगाकर लोगों को चुनाव लडने से रोक रहे हैं। शिवपुरी जिले की ग्राम पंचायत दीघोदी में सरपंच पद की नीलामी हुई। कहा गया कि जो व्यक्ति मंदिर बनाने के लिए सबसे ज्यादा पैसा देगा, सरपंच का नामांकन वहीं भरेगा। यहां 12 लाख रूपए में सरपंच का पद नीलाम हुआ। इसी जिले की ‘’राधी’’ नामक ग्राम पंचायत में सरपंच का पद 14 लाख रूपए में बिका, वहीं दतिया जिले की ‘’सबलगढ’’ नामक ग्राम पंचायत में एक व्यक्ति को जमीन दान करने पर सरपंच चुन लिया गया। यानी इन पंचायतों में आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को सरपंच बनने का कोई अधिकार नहीं है, क्योकि उनके पास इतने पैसे नहीं है कि वह सरपंच पद को नीलामी के जरिये खरीद सकें।
निर्विरोध पंचायतों को ईनाम देने की सरकारी घोषणा से उन लोगों को बल मिला जो अपने धनबल और बाहूबल के सहारे सरपंच बनने की क्षमता रखते हैं। क्योकि जब सरकार ही निर्विरोध निर्वाचन की प्रक्रिया को बढावा देना चाहती है तो गांव के आम लोग की क्या बिसात की वह सरकार की मंशा और बहुबलियों की महात्वाकांक्षा के विपरीत जाकर अपना नामांकन दाखिल करें? इस संदर्भ में यह सोचना होगा कि आखिर सरकार निर्विरोध पंचायतों को प्रोत्साहित क्यों करना चाहती है? सरकार का मानना है कि सामंजस्य से बगैर मतदान के पंचायत का गठन कर लिया जाना ज्यादा बेहतर है। किन्तु हकीकत में इससे ग्रामवासियों की गुप्त मतदान की ताकत का ह्ास होता, जो लोकतांत्रिक सिद्धान्तों के विपरीत है। इस संदर्भ में हमें गांवों की सामाजिक संरचना पर गंभीरता से विचार करना होगा। आज भी हमारा ग्रामीण समाज विभिन्न जाति एवं वर्गों में बंटा है। कई स्थानों पर दलित समुदाय को बराबरी का सम्मान हासिल नहीं है, वहीं गांवों में कुछ एक सम्पन्न और दबंग लोगों का ही वर्चस्व रहता आया है। पंचायत राज व्यवस्था में दलित, आदिवासी एवं महिलाओं के आरक्षण ने इस सामंती व्यवस्था पर एक असरकारक प्रहार किया था। किन्तु निर्विरोध निर्वाचन को सरकारी प्रोत्साहन मिलने से इसकी धार कम हुई है और कई लोग दबंग तबकों तथा उनके समर्थित प्रत्याशियों के सामने चुनाव लडने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं।
दरअसल, जब चैपाल पर बैठकर किसी बात का फैसला लिया जाता है तो वह दृश्य सतही तौर पर तो हमें उत्साहित करता है, किन्तु उसके अंदर कई तरह के समीकरणों मौजूद होते हैं। चैपाल पर इकठ्ठे लोगों के बीच जब गांव के किसी वर्चस्वशाली एवं सम्पन्न व्यक्ति द्वारा कोई प्रस्ताव रखा जा रहा हो तो लोगों को उस प्रस्ताव के खिलाफ बोलने का हिम्मत नहीं होती, लिहाजा उस पर सामंजस्य और समरता से लिए गए फैसले की मुहर लग जाती है। जबकि मतदान केन्द्र में व्यक्ति अपना मत देने के लिए निडर और स्वतंत्र होता है।
इस तरह निर्विरोध निर्वाचित पंचायतों को प्रोतसाहित करने की सरकार की घोषणा व्यवहारिक धरातल पर लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन करती है। इससे पंचायत राज के माध्यम से आम गरीब-वंचित तबके को मिले अधिकारों का भी अप्रत्यक्ष रूप से हनन होता है। यह बात उपरोक्त घटनाओं से साफतौर पर साबित होती है। अतरू सरकार एवं राज्य निर्वाचन आयोग को चाहिए कि निविर्राध पंचायतों की जांच करवाई जाए और जहां भी पदों की नीलामी और वर्चस्वशाली तबकों द्वारा नामांकन पत्र वापस लेने के लिए दबाव डाला गया हो या प्रलोभन दिया गया हो, वहां नामांकन प्रक्रिया फिर से अपनाई जानी चाहिए। तभी उन ग्राम पंचायतों के लोगो को उनके लोकतांत्रिक अधिकार हासिल हो पाएंगे।
राजेन्द्र बंधु
(चरखा फीचर्स)
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