दिल्ली में जिस प्रकार के चुनाव परिणाम आए, उससे धर्मनिरपेक्षता का आवरण ओढ़े उन ताकतों को चिल्लाने अवसर मिल गया है जो राजनीतिक तौर पर पतन की ओर अग्रसर हो चुके हैं। लेकिन सत्य यह है कि आम आदमी पार्टी की यह अकल्पनीय जीत उन दलों के लिए भी किसी बड़े खतरे का संकेत तो है ही। हम जाते हैं कि दिल्ली में कांगे्रस का सूपड़ा साफ हो गया। एक राष्ट्रीय दल के लिए शून्य पर पहुंच जाना, क्या यह संकेत नहीं करता कि कांगे्रस के समान विचार धारा को लेकर चल रहे राजनीतिक दलों के लिए आगे की राह आसान नहीं है। जहां तक भाजपा की बात है तो यह सत्य है कि भाजपा भी दिल्ली में हारी है, लेकिन हम यह भली भांति जानते हैं कि राष्ट्रीय विकल्प और स्थानीय विकल्प में बहुत अंतर होता है। यह बात सही है कि आम आदमी पार्टी पूरे देश में अपना राजनीतिक प्रभाव स्थापित करने में सफल हो सकती है, लेकिन यह भी सत्य है कि राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यू, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल और बहुजन समाज पार्टी जैसे सत्ता केन्द्रित प्रभाव रखने वाले दल अपने आपको राष्ट्रीय विकल्प के तौर नहीं मान सकते। राष्ट्रीय विकल्प के रूप में देखा जाए तो आज भी भारतीय जनता पार्टी ही है। भाजपा के मत प्रतिशत के बारे में अध्ययन किया जाए तो भाजपा का प्रभाव दिल्ली में पहले के बराबर के करीब ही है, उसे कोई ज्यादा नुकसान नहीं हुआ है, लेकिन सीट कम क्यों आईं, इसके जवाब यही है कि कांगे्रस का बहुत बड़ा वर्ग आम आदमी पार्टी के खाते में चला गया।
दिल्ली में केजरीवाल की जीत को भले ही यह कथित धर्मनिरपेक्षतावादी ताकतें अपनी जीत जैसा मानकर प्रसन्न हो रहीं हों, लेकिन यह बहुत बड़ा संकेत है कि आम आदमी पार्टी जितना बड़ा खतरा इन सभी दलों के लिए प्रमाणित हो रही है, उतना भाजपा के लिए नहीं। दिल्ली चुनाव में हमने देखा कि भाजपा के मत प्रतिशत में केजरीवाल की जबरदस्त सफलता ने भी कोई असर नहीं डाला, इसके विपरीत कांगे्रस के मतों में जबरदस्त गिरावट आई। यह वास्तविकता है कि दिल्ली राज्य की विधानसभा के चुनाव में भाजपा की ऐसी पराजय हुई है कि जिसके बारे में गंभीर चिंतन की आवश्यकता है, यह भी हो सकता है कि भाजपा की चुनावी रणनीति सफल नहीं हुई। यह भी हो सकता है कि जिस रणनीति से भाजपा को लोकसभा चुनाव से लेकर बाद में हुए तीन विधानसभा के चुनाव में जिस चुनावी रणनीति से सफलता ही नहीं मिली वरन् सभी आंकलन को नकारते हुए नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया। इसके बाद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का दायित्व अमित शाह को मिला, क्योंकि उत्तरप्रदेश के प्रभारी होते हुए उत्तरप्रदेश में भाजपा को 72 सीटें मिली। इसके बाद उन्हें भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का दायित्व मिला। उनके नेतृत्व में हरियाणा, झारखंड, महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर में चुनाव हुए इनमें भी भाजपा ने विजयी परचम फहराया। तीन राज्यों में भाजपा की सरकारें है और जम्मू-कश्मीर में भी पीडीपी के साथ तालमेल कर सरकार की संभावना बढ़ गई है। अभी तक जिस अमित शाह की चुनावी रणनीति असफल नहीं हुई, उसको दिल्ली में असफलता क्यों मिली? इस सवाल का उत्तर तलाशने की कोशिश भाजपा अपने चिंतन में करेगी। हालांकि दिल्ली के गत विधानसभा में भाजपा को जितने प्रतिशत मत मिले थे, उससे केवल एक प्रतिशत कम मिले हैं। तैतीस प्रतिशत मत मिलने के बाद भी केवल तीन सीटें भाजपा को मिली।
इस चुनाव परिणाम से यह तो स्पष्ट होता है कि जनता बहुत जल्दी परिणाम चाहती है, राजनीतिक दलों से देश में जो घोर निराशा का वातावरण बना हुआ है, उस निराशा के भाव में आशा का नवसंचार प्रदान करने का सामथ्र्य पैदा करने वाला नेता ही जनता की उम्मीद कर सकता है। वर्तमान में केवल दिल्ली के लिए केजरीवाल और पूरे भारत में नरेन्द्र मोदी आशा का केन्द्र बने हुए हैं। 70 में से तीन सीटें मिलने से भाजपा की करारी हार ही मानी जाएगी और आआपा को 67 सीटें मिलने से उसकी महाविजय हुई। दिल्ली जैसे छोटे राज्य, जिसके पास पुलिस-प्रशासन के अधिकार भी नहीं है। उसके चुनाव में पराजय होना कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन इस जीत-हार का महत्व इसलिए है कि दिल्ली देश की राजधानी है। मीडिया का जमघट वहां होने से वहां की मामूली बात को तिल का पहाड़ बनाकर लोगों के सामने प्रस्तुत की जाती है। इसलिए मीडिया दिल्ली चुनाव परिणाम के नगाड़े महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड के चुनाव से भी अधिक बजा रहा है। आश्चर्य यह है कि दिल्ली राज्य जिसकी जनसंख्या करीब डेढ़ करोड़ है, एक करोड़ तैतीस लाख मतदाता के बहुमत ने आआपा को पसंद किया। इसका मतलब यह नहीं कि सवा सौ करोड़ जनता ने भाजपा को नकारा है। गत लोकसभा चुनाव में भाजपा को दिल्ली की सातों सीटों पर प्रभावी जीत दर्ज हुई थी। उसी जनता ने नौ महीने बाद आआपा को पसंद किया। यह लोकतंत्र का स्वाभाविक चरित्र है, लेकिन भाजपा की इस पराजय से देश की सेकुलर जमात को चिल्लाने का अवसर मिल गया। कांग्रेस के सफाए पर कोई विशेष प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता। लालू, मुलायम, ममता, मायावती सभी को भाजपा को घेरने और उस पर आरोप लगाने का अवसर मिल गया। वैचारिक दृष्टि से फिर दो विचारों का संघर्ष प्रारंभ हो गया है। एक ओर भाजपा है, जो प्रखर राष्ट्रवादी आधार पर खड़ी है, दूसरी ओर है कांग्रेस, मुलायम, लालू की सेकुलर जमात, जिन्होंने देशहित का अपने वोट के लिए हमेशा बलिदान किया है। इस जमात को पुन: दिल्ली चुनाव को आधार बनाकर चिल्लाने का अवसर मिल गया है। चुनाव में जो भी परिणाम आए वह बेहद डरावने ही कहे जा सकते हैं। जहां आम आदमी पार्टी इतनी बड़ी जीत से डरी हुई दिखाई दे रही है, वहीं भाजपा और कांगे्रस जैसे राष्ट्रीय दल भी भयग्रस्त हो गए हैं। अब केवल चिन्ता इस बात की भी है अरविन्द केजरीवाल ने जनता से जो वादे किए हैं, वे उसे पूरा करने के लिए वे कटिबद्ध रहें, नहीं तो यह जनता है, यह किसी को शिखर प्रदान कर सकती है तो धूल में भी मिलाने का दम रखती है।
---सुरेश हिन्दुस्थानी---
लश्कर, ग्वालियर म.प्र.
मोबाइल - 9425101815
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