एक ओर जहाँ केंद्र और राज्य सरकारें आम आदमी के लिए बुनियादी सुविधाओं तक पहुँच को आसान बनाने पर ज़ोर दे रही है, वहीं दूसरी ओर इसकी उपलब्धता पर भी विशेष फोकस किया जा रहा है। जिन बुनियादी आवश्यकताओं को केंद्रित किया जा रहा है उनमे सभी के लिए बिजली और पानी की उपलब्धता भी शामिल है। यही कारण है कि लोकसभा से लेकर विधानसभा चुनाव तक राजनितिक दल इस विषय को प्रमुख रूप से अपना मुद्दा बनाते रहे हैं। वास्तव में बिजली की ज़रूरत हर परिवार के लिए सर्वोपरि रहा है। किसी भी आम आदमी की छोटी सी छोटी ज़रूरतों की पूर्ति से लेकर बड़े-बड़े उधोगों के संचालन के लिए बिजली अनिवार्य बन चुका है। बेशक़ बिजली आज आम परिवार की बुनियादी ज़रूरत है। लेकिन आज भी देश के हज़ारों परिवारों तक बिजली के तार नहीं पहुँच सके हैं। जहाँ पहुंचे भी है तो बिजली का होना भी न होने के बराबर है।
जम्मू एवं कष्मीर के सीमावर्ती जि़ले पुंछ जि़ले का ही उदाहरण लेते हैं। जि़ले की तहसील सुरनकोट मरहोट गांव के कालाबन वार्ड नंबर 4 के लोग वर्षों से 25 केवी ट्रांसफार्मर की उम्मीद लगाये बैठें थे। इसके लिए बिजली विभाग के चक्कर भी लगाए गए। उन्हें बिजली तो नहीं मिली अलबत्ता नेताओं की तरह विभाग के कर्मचारियों की ओर से आज और कल के आश्वासन ज़रूर मिलते रहे हैं। 21वीं सदी में भी अंधेरे में जीने वाले यहाँ के लोगों ने इसके बावजूद हिम्मत नहीं हारी और एक अदद ट्रांसफार्मर के लिए प्रयासरत रहे। आखिरकार उनकी मेहनत रंग लाई और उनके घर भी लटकते तारों में बिजली का करंट दाड़ने लगा। लेकिन आज उन गांव वालों को समझ में नहीं आ रहा है कि वह इस पर खुषी मनाये अथवा आंसू बहायें। दरअसल विभाग ने इनके साथ छल करते हुए गांव में ट्रांसफार्मर लगाने की जगह बगल के गांव के ट्रांसफार्मर से बिजली की सप्लाई दे दी। परिणामस्वरूप विभाग का यह क़दम गांव के लोगों की जान का ही दुश्मन बन गया है। बिजली सप्लाई के लिए नंगी तारें पेड़ोें के सहारे उपलब्ध कराई गई हैं। जो बारिश के दिनों में जानलेवा साबित हो रहा है। गांव के लोगों की जि़ंदगी से खिलवाड़ करने वाला विभाग इस काम के बदले प्रति परिवार 360 रुपए भी वसूल करता है। वहीं दूसरी ओर सप्लाई करने वाले ट्रांसफार्मर पर अधिक लोड होने के कारण लोगों को इसका विशेष लाभ नहीं मिल रहा है। घर में बल्ब जलने के बावजूद आवश्यकता पड़ने पर टॉर्च से काम चलाना पड़ता है। ज्ञात रहे कि यह क्षेत्र पाकिस्तानी सीमा के बहुत नज़दीक होने के कारण काफी संवेदनशील है। जहां घुसपैठ की लगातार आशंका बनी रहती है। ऐसे में प्रशासन की ओर से इस क्षेत्र को बिजली जैसी बुनियादी सुविधा से वंचित रखना भारी पड़ सकता है।
2011 की जनगणना की रिपोर्ट में बिजली की पहुँच को लेकर जो आंकड़े दिए गए हैं वह इस बात को प्रमाणित करते हैं कि हम अब भी विधुतीकरण के मोर्चे पर बहुत पीछे खड़े हैंै। आंकड़ों के अनुसार देश में अब भी ऐसे हज़ारों गांव हैं, जहां विद्युतीकरण का काम आज तक पूरा नहीं हो सका है। हालांकि आंकड़े इस बात को भी दर्शाते हैं कि प्रति परिवार बिजली की उपलब्धता के मामले में जम्मू कश्मीर का रिकॉर्ड राष्ट्रीय औसत से काफी अच्छा है। प्रति परिवार बिजली उपलब्धता जहां राष्ट्रीय औसत 67.2 है वहीं जम्मू कश्मीर में यह 85.1 है। लेकिन यह आंकड़े और ज़मीनी सच्चाई कई प्रश्न खड़े करता है। सवाल उठता है कि क्या केवल घरों तक बिजली के तार पहुँचाना ही विधुतीकरण प्राप्त करने को लक्ष्य माना गया है अथवा उनमे करेंट का सप्लाई भी मुख्य बिंदु है? साथ ही साथ एक प्रश्न यह भी है कि क्या घरों में जुगनुओं की तरह टिमटिमाते बल्बों को शत प्रतिशत बिजली पहुँचाने के लक्ष्य के रूप में इंगित किया जाता है?
वास्तव में ग्रामीण अंचलों की बात तो दूर बड़े शहरों और महानगरों में भी बिजली की मांग और आपूर्ति के बीच बड़ेे असंतुलन की स्थिति बनी हुई है। बिजली के मुद्दे पर देश की राजधानी तक अछूता नहीं है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यहां चुनावों में सभी राजनितिक दलों के एजेंडे में बिजली एक प्रमुख मुद्दे के रूप में शामिल रहता है। इसका सीधा अर्थ है कि अभी भी देष की राजधानी के लोगों को भी सही ढ़ंग से बिजली उपलब्ध नहीं हो पाई है। इस समय देश में 2 लाख मेगावाट बिजली की आवश्यकता है जबकि हम मात्र एक लाख 76 हज़ार मेगावाट का ही उत्पादन कर पाते हैं। ऐसे में हमें ऊर्जा के दूसरे स्रोतों को भी ढूंढना होगा ताकि कालाबन जैसे देश के दूरदराज़ और अतिसंवेदनशील क्षेत्रों को भी रौशन किया जा सके। यहां के लोगों को राज्य में बनने वाली नई सरकार से बहुत उम्मीदें हैं। यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा कि नई सरकार इनके घरों को बिजली से रोषन करती है या नहीं?
मोहम्मद हफ़ीज़ भट्ट
(चरखा फीचर्स)
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