मनुष्य के जीवन की सार्थकता का आधार सफलता रहती है । ठीक उसी तरह लोकतंत्र मे भी अस्तित्व के लिए सफलता मूल तत्व है ।आम आदमी पार्टी ने दिल्ली विधान सभा चुनाव मे विकास की सकारात्मक राजनीति कर के जिस तरह विजयी परचम फहराया और लोकप्रियता की नई इबारत लिखी है वह इस बात को साबित करती है ।वैकल्पिक राजनीति के उपज अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली मे कामयाबी का जो इतिहास रचा वह वह नौ माह पहले मोदी की सफलता से भी बड़ी मानी जा रही है ।उन्होने ना केवल मोदी के विजयी रथ को रोका वरन चुनावी राजनीति मे पिछले 12 साल से नाबाद चल रहे मोदी को दिल्ली की राजनीति से आउट कर दिया ।आप की ये जीत मोदी के विकास माडल ,आधुनिक भारत का सपना ,आर्थिक सुधार की दिशा मे बढ़ते कदम ,गरीबों के हित को प्रभावित करने वाले नये कानून और उन तमाम चुनावी वादों पर भी सवाल खड़ा करती करती है जो वह मई 2014 के पहले से देश की अवाम से करते आये हैं ।केजरीवाल की जीत से ये भी संकेत मिल रहा है कि देश मे अब जातिवाद ,वर्गवाद और मजहबी साम्प्रदायिकता का प्रदूषण भी समाप्त हो रहा है ।दिल्ली के इस
आप्रत्याशित नतीजों ने देश मे विपक्ष की राजनीति को भी एक नई ताकत भी दी है ।लोकसभा चुनावों मे भाजपा की भारी सफलता ,कांग्रेस की करारी हार के बाद विपक्ष की राजनीति सुस्त पड़ गयी थी ।इस दूसरे शब्दों मे इस तरह कहा जा सकता है कि देश की राजनीति एकात्मवाद पर चल रही है ।यानी हर – हर मोदी घर – घर मोदी के नारों ने कुछ अहंकार पैदा कर दिया था ।दिल्ली के विधान सभा चुनावों मे बीजेपी की ये लगातार पांचवी हार है ।दिल्ली की जनता ने इस बुरी तरह से भाजपा को पहले कभी नही नकारा था ।मोदी उभार के ,लोकसभा मे ऐतिहासिक सफलता के बाद भी दिल्ली मे भाजपा 16 साल पहले चली गयी है ।सन 1998 मे उसे शीला दीक्षित के हाथों बड़ी हार का सामना करना पड़ा था ।भाजपा के नेता बड़े गर्व से कहते थे कि मोदी जी के विजय अभियान को रोकने की क्षमता किसी के पास नहीं है। दिल्ली के बाद अब वे बिहार, बंगाल और फिर उत्तर प्रदेश में अपनी विजय-पताका फहराने के सपने देख रहे थे । लेकिन, दिल्ली में भाजपा को अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने जिस बुरी तरह से मात दी है, उसकी कल्पना मोदी और उनकी टीम ने भी नहीं की थी ।वह भी तब जब लोकसभा चुनाव में ‘आप’ को दिल्ली में एक भी सीट नहीं मिली थी ।वह किरण बेदी भी चुनाव हार गयी जिन की काबलियत पर मोदी और अमित शाह को नाज था ।जिनके चलते बीजेपी के उन वफादार नेताओं की भी अनदेखी कर दी गयी जिन्होने संध से हर हाल मे पार्टी के लिए जीना मरना सीखा था ।बेदी को आमआदमी के एस के बग्गा ने 24 सौ मतों से हराया ।
किरण बेदी भले ही भाजपा की मुख्यमंत्री के रूप मे मतदाताओं के सामने थी लेकिन असल चुनाव प्रधानमंत्री नोन्द्र मोदी और अमितशाह ने ही लड़ा है ।दिल्ली का हर कोना मोदी के आदमकद पोस्टरों से पटा पड़ा था ।स्थानिय नेता कहीं दिखायी नही पड़े ,पन्ना प्रमुख के आगे कार्यकर्ता महत्वहीन से रहे , हर सभा मे मोदी के वादों की गूंज होती रही ।तो जाहिर है ऐसे मे इस हार को मोदी और अमितशाह की हार मानने से इंकार नही किया जा सकता है ।केजरीवाल की सुनामी ने मोदी की लहर को समेट दिया । ये सवाल भी पैदा होता है कि क्या देश की राजनीति अब मौलिक तौर पर बदल रही है ?देश की जनता दिल मे उसे ही जगह देती है जो सकारातमक राजनीति की राह पर चलता है ।लोकसभा मे मोदी ने ये विश्वास चताया था तो दिल्ली मे केजरीवाल इसे बनाने मे कामयाब हो गये ।दिल्ली के प्रचार अभियान पर अगर नजर डालें तो भाजपा का पूरा अभियान नकारात्मक राजनीति पर टिका दिखता है ।खुद मोदी जी और भाजपा के बड़े नेताओं ने व्यक्तिगत हमलें किये और केजरीवाल को जी भर कर कोसा ।नक्सली और भगोड़ा तक कहा गया ।शायद दिल्ली के एक करोड़ 33 लाख मतदाताओं को ये उन जबानों से सुनना नागवार लगा जो कुछ दिन पहले तक विकास के नारे दे रही थी ।ये साबित होता है कि देश की अवाम ने लवजेहाद ,धर्मान्तरण और इस तरह की तमाम बातों को फिर नकार दिया है ।यानी जनता अब धर्मान्तरण नही अपनी समस्याओं का रूपांतरण चाहती है ।केजरीवाल ने ऐन मतदान के पहले जिस हिम्मत से शाही इमाम बुखारी के प्रस्ताव को नकारा उसे भी जनता ने सकारात्मक रूप से लिया । यह अब राजनीतिक चिन्तन – मनन का विषय है कि मोदी विचार की जो आंधी गुजरात से चल कर महाराष्ट्र और हरियाणा तक पहुंची अधिकांश भारत को अपने चपेट मे लेलेगी ।इस विचार व्वस्था को उस प्रदेश
की जनता ने ही सिरे से नकार दिया जहां उसे सबसे बड़ी कामयाबी की उम्मीद थी ।
ये भी सही है कि देश की जनता बदलाव की चाहत रखती है और अपने सपनों को उूड़ान भी देना चाहती है ।लेकिन ये जरूरी नही कि हर जगह विकल्प एक ही हो ।महराष्ट्र और हरियाणा मे भाजपा का विकल्प नही था लेकिन जहां जंहा मतदाताओं को कांग्रेस और भाजपा का विकल्प मिला वहां उसने उस पर भरोसा जताया ।आमआदमी पार्टी की ऐतिहासिक और अभूतपूर्व जीत ने भी जता दिया कि वोटरों को ये कतई पसंद नही है कि बात करो गरीबों कि और शान रखों अमीरों जैसी ।केजरीवाल आज भी उसी तरह से जैसे अन्ना आंदोलन के दौरान थे ।उन्होने इंडिया गेट से दूर आबाद उस दिल्ली को अपनी प्रथमिकता मे रखा जहां आज भी जिंदगी की बुनियादी जरूरतें नदारत हैं ।फुटपाथ पर जिंदगी गुजारने , रेहड़ी पटरी वालों और 15 हजार से कम आमदनी वालों ने आमआदमी पार्टी को अपनी आवाज समझा ।अब ये कहने मे हर्ज नही कि दिल्ली के चुनाव मे पहली बार अभाव ग्रस्त , थके हारे और व्यवस्था की मार से उदास लोगों की बात की गयी ।उन साठ लाख लोगों की भी आवाज उठी जो दिल्ली की तंगहाल और अवैध कालोनियों मे रहतें हैं ।केजरीवाल ने जीत के तुरंत बाद अपने लोगों को सम्बोधित करते हुये ठीक ही हिदायत दी कि अगर आप ने भी अहंकार पाला तो फिर उसकी भी वही हालत होगी जो आज जनता ने कांग्रेस और भाजपा का किया है ।कितनी अजीब बात है कि जिस दल ने केवल नौ माह पहले 60 सीट ( लोकसभा की सात ) पर जीत हासिल की उसी को अब सदन मे विपक्ष के नेता के पद के लाले भी दिख रहें हैं ।पूरे पंद्रहसाल तक दिल्ली पर शासन करने वाली कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया ।सौ साल पुरानी कांग्रेस के लिए निश्चीत रूप से ये समय आत्म मंथन का समय है ।दिल्ली के नतीजे के फौरन बाद देश के कुछ इलाकों से एक बार फिर राहुल गांधी की नीतियों और नेतृत्व पर सवाल उठने लगे हैं ।प्रियंका गाधी को लाओ कि आवाजें भी आने लगी हैं ।इस बात मे फिलहाल शक नही दिखता कि आने वाले दिनों मे इस तरह की आवाजें और तेज होगी ।मोदी की अब तक की सफलता के बाद से माना जा रहा था कि देश मे क्षेत्रिय दलों का वजूद संकट मे पड़ने वाला है और जनता की पसंद अब राष्ट्रीय दल ही बनेंगें ।लेकिन अब दिल्ली के नतीजे तो दन दावों के खिलाफ दिख रहे हैं ,आम आदमी पार्टी अब दिल्ली की उसी तरह से से पार्टी बन गयी दिखती है जैसे दक्षिण के क्षेत्रिय दल या फिर सपा ,बसपा और जदयू जैसे दल हैं ।
वैसे तो दिल्ली को आज तक पूर्ण राज्य का दर्जा भी नहीं मिला है, पर इसकी 70 सदस्यीय विधानसभा के चुनाव
राष्ट्रीय-राजनीति के लिए महत्वपूर्ण बन गये हैं ।इन चुनावों की अहमियत के चलते ही , जनसंघ-भाजपा राजनीतिक धारा के 63 साल के इतिहास में यह पहला मौका था, जब पार्टी को अपने किसी ‘तपे-तपाये नेता’ के बदले बाहर से ‘सक्षम नेतृत्व’ उधार लेना पड़ा । मोदी-शाह की जोड़ी ने देश की पहली महिला आइपीएस (अवकाशप्राप्त) अधिकारी और अन्ना आंदोलन में केजरीवाल के साथ रहीं किरण बेदी को पार्टी में शामिल किया और स्थानीय नेताओं की असहमति-विरोध की परवाह किये बगैर कुछ ही घंटे के अंदर उन्हें मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी भी घोषित कर दिया ।शायद कांग्रेस सहित भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में किसी राष्ट्रीय दल ने ऐसा राजनीतिक-प्रयोग कभी नहीं किया!अब नतीजों के बाद इससे राजधानी की सियासत मे इस तरह के सवाल तैरने लगे कि क्या देश भर में अपनी गर्जना से मतदाताओं को मोहित करनेवाले मोदी क्या दिल्ली में अपना ‘जादुई-आकर्षण’ खो बैठे हैं? क्या एकमात्र ‘जिताऊ ताकत’ का उनका खिताब दिल्ली में प्रासंगिक नहीं रह गया है? एक अंजान उम्मीदवार से किरण बेदी की हार ने इन सवालों का जवाब दिल्ली की जनता ने दे दिया है ।
दरअसल दिल्ली में मोदी की मुश्किलें कुछ खास वजहों से थी । पहली खास वजह है कि यहां भाजपा अपना चुनाव-अभियान गरमाने के लिए कोई ‘पसंदीदा शत्रु’ नहीं खोज सकी। वह किस पर निशाना साधे! दिल्ली में बीते आठ महीने से तो वही सरकार चला रही है। राष्ट्रपति शासन के तहत राज तो केंद्र का ही है । महंगाई, सुरक्षा तंत्र के मामले में शासकीय विफलता, पानी-बिजली संकट, स्वास्थ्य समस्या की तोहमत वह किसके माथे मढ़े! एक खास वजह ये भी थी कि दिल्ली में भाजपा को चुनौती एक कार्यकर्ता-आधारित पार्टी से मिली । फिर भूमि अधिग्रहण अध्यादेश, श्रम कानून में संशोधन की पहल, छोटे दुकानदारों, रेहड़ी-खोमचे वालों से उगाही आदि पर कोई अंकुश न लगने के नकारात्मक असर से राजधानी का माहौल कम से कम भाजपा-मय हो गया ।असल मे दिल्ली सिर्फ एक शहर नहीं है, इसमें सौ-सवा सौ छोटे-मझोले गांव और देहाती इलाके भी हैं। इनमें अनेक हैं, जहां आज भी खेती-बाड़ी ही होती है।इस लिए यहां के किसानों को भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का भय सता रहा है। इन मुद्दों को केजरीवाल ने बहुत खूबसूरती से जनता के बीच रखा ।जिससे भाजपा को जनता ने सिरे से नकार दिया । ये माना जा सकता है कि दिल्ली के नतीजों का असर बिहार और देश के अन्य प्रदेशों के चुनावों पर भी पड़ सकता है ।
** शाहिद नकवी **
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