‘‘मैं आप के पास बेटी की जि़न्दगी की भीख मांगने आया हूं’’ पानीपत में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढाओ’ कार्यक्रम में प्रधानमंत्री के यह भावुक शब्द वास्तव में भारत में बेटी के प्रति हमारे समाज की संकीर्ण सोच को उजागर करते हैं। हमने आधुनिक परिधान और रहन-सहन तो अपना लिया परंतु मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया है। आज भी अधिकांश परिवारों में बेटा और बेटी में भेदभाव किया जाता है और यह भेदभाव संभ्रात और उच्च शिक्षित घरों में देखने को मिलता रहा है। इसका प्रमाण ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा शहरी क्षेत्रों में कन्या भ्रूण हत्या की खबरों की अधिकता है। 21 वीं सदी के इस दौर में आज भी कुछ परिवारों में लड़कों के मुकाबले लड़कियों के साथ दोहरा बर्ताव किया जाता है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि हमनें लड़कियो को कभी भी लड़कों की बराबर समझा ही नहीं। लड़का स्कूल जाता है, पर लड़की नहीं। कुछ परिवारों में लड़के को मां अपने पास बैठाकर खाना खिलाती है जबकि लड़की को नहीं। लड़के को बाहर जाने की पूरी आजादी होती है जबकि लड़की को नहीं। लड़के को माता-पिता बुढ़ापे की लाठी समझते हैं जबकि लड़की को नहीं। इसके विपरीत लड़की को परिवार वाले बोझ समझते कि जब यह बड़ी होगी तो इसकी षादी में दहेज देना पड़ेगा। परिवार के लोगों की इसी मानसिकता के चलते लड़कियों के साथ भेदभाव की कहानी पारिवारिक स्तर से ही षुरू हो जाती है। लड़के की इच्छा में लोग भगवान से दुआ करते हैं, व्रत रखते हैं जबकि लड़कियों को मां के गर्भ में जन्म लेने से पहले ही खत्म कर दिया जाता है।
राज्य सरकारों, केंद्र सरकार, तमाम सरकारी व गैर सरकारी संगठनों के लाख प्रयासों के बावजूद कन्या भ्रूण-हत्या के मामलों में लगातार वृद्धि हो रही है। दुर्भाग्य से संपन्न तबके में यह कुरीति ज्यादा है। गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, 1994 के अन्तर्गत, गर्भाधारण पूर्व या बाद लिंग चयन और जन्म से पहले कन्या भ्रूण-हत्या के लिए लिंग परीक्षण करना, इसके लिए सहयोग देना व विज्ञापन करना कानूनी अपराध है, जिसमें 3 से 5 वर्ष तक की जेल व 10 हजार से 1 लाख रूपये तक का जुर्माना हो सकता है। इस कानून के तहत लिंग जांच करवाने वाले व करने वाले दोनों ही दोशी होते हैं। कानून के अनुसार लिंग जांच करने वाले चिकित्सक का पंजीयन हमेषा के लिए रद्द हो सकता है। बावजूद कन्या भ्रूण-हत्या के मामलों में लगातार इजाफा होता जा रहा है। कन्या भ्रूण-हत्या के बढ़ते मामलों की वजह से स्त्री-पुरूश लिंगानुपात में कमी हो रही है और यह समाज के लिए एक बड़ा खतरा बनती जा रही है। 1000 पुरूशों पर महिलाओं की संख्या को लिंगानुपात कहते हैं। रेत की नगरी कहे जाने वाले राजस्थान में भी इस समस्या ने एक विकराल रूप लिया हुआ है। राजस्थान के बीकानेर, जोधपुर, जयपुर, श्रीगंगाधर डूंगरपुर, झालावाड़, बासवाड़ा, बाड़मेर और उदयपुर जि़ले में स्त्री-पुरूश अनुपात लगातार घटता जा रहा है। 2011 की जनगणना के अनुसार राश्ट्रीय स्तर पर जहां एक हजार पुरूशों के मुकाबले 940 महिलाएं हैं वहीं राजस्थान में यह संख्या 928 है जबकि 2001 की जनगणना के अनुसार यह संख्या 922 थी। राजस्थान में स्त्री-पुरूश अनुपात राश्ट्रीय स्तर पर पुरूश स्त्री अनुमान से 12 कम है। इसका मुख्य कारण यह है कि गर्भावस्था के दौरान ही बहुत से लोग यह पता करने की कोषिष करते हैं कि मां जिस बच्चे को जन्म देने वाली है वह लड़का है या लड़की। अगर वह लड़की होती है तो दुनिया में आने से पहले ही मां के गर्भ में खत्म कर दिया जाता है। यही वजह है कि राजस्थान समेत दूसरे राज्यों में स्त्री-पुरूश अनुपात घट रहा है। 1981 में 0.6 साल के बच्चों लिंग अनुपात 962 था, जो 1991 में घटकर 945 हो गया और 2001 में यह 927 रह गया। इसका श्रेय मुख्य तौर पर देष के कुछ भागों में हुई कन्या भू्रण की हत्या को जाता है। सरकार ने 2011 व 12 तक बच्चों का लिंग अनुपात 935 और 2016-17 तक इसे बढ़ाकर 950 करने का लक्ष्य रखा है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 315 एवं 316 के अनुसार जन्म से पहले व जन्म के बाद कन्या षिषूू हत्या कानूनी अपराध है। लिंग चयन का मूल कारण पुरूष-प्रधान समाज में महिलाओं और लड़कियों की निम्न स्थिति है जो लड़कियों के साथ भेदभाव करता है। पुत्र को महत्व देने की संस्कृति के चलते लिंग निर्धारण के लिए अल्ट्रासाउंड तकनीक का प्रयोग किया जाता है, जिसके बाद प्रायः कन्या भ्रूण की हत्या कर दी जाती है। लिंग चयन दहेज प्रथा का समाधान नहीं है। दहेज प्रथा तब तक कायम रहेगी जब तक लोग बेटियों को भार समझते रहेंगे। इसके लिए महत्वपूर्ण यह है कि इस समस्या को जड़ से खत्म करने के लिए समाज में महिलाओं को दोयम स्थिति से निकालकर बराबरी का दर्जा दिया जाए। लड़कियों को संपत्ति में बराबर का हिस्सा मिले तो दहेज की मांग रूकने के साथ उन्हें बराबरी का दर्जा भी मिलेगा। इससे लोग बेटियों को बोझ नहीं समझेंगे जिससे कन्या भ्रूण हत्या पर भी लगाम लग सकेगी।
वर्तमान में लड़कों के मुकाबले लकडि़यों की संख्या कम हुई है जिसकी वजह से असंतुलन होने के कारण समाज में लड़कियों के खिलाफ हिंसा पनपी है। आगे भी समाज में लड़कियों की असुरक्षा और उनके प्रति बर्बरतरा बढ़ेगी। समाज में हर स्तर पर महिलाओं के साथ छेड़छाड़, अपहरण और बलात्कार की घटनाओं में लगातार इजाफा इस बात का प्रमाण है। अगर कन्या भ्रूण-हत्या का यह सिलसिला इसी रफ्तार से चलता रहा तो भविश्य में स्त्री-पुरूश का लिंगानुपात में और कमी आएगी। अगर ऐसा हुआ तो इसका प्रभाव हमारी आने वाली नस्लों को सदियों तक भुगतना पड़ेगा। खतरे की घंटी बज चुकी है, इससे पहले की खतरा सिर पर आ जाए हमें इसके लिए जरूरी कदम उठाने होंगे। सोनोग्राफी के गलत इस्तेमाल को रोकने के लिए सरकार की ओर से बहुत सारे कदम उठाए गए हैं। बावजूद इसके इस तकनीक का गलत इस्तेमाल आज भी जारी है। जो लोग समाज और इंसानियत के कातिल हैं और जिन लोगों ने लड़कियों के कत्ल को अपना पेषा बना लिया है, उनके खिलाफ सख्त से सख्त कानूनी कार्रवाई की जानी चाहिए। लोगों को भी चाहिए कि वह सब मिलकर अपने समाज में रोषनी की एक नई षमा जलाएं और समाज को रूढि़वादी सोच से निकालकर बुलंदी और रोषनी की ओर ले जाएं। हमें गंभीरता से सोचना होगा कि यदि हम घर में खुशियां चाहते हैं तो केवल लक्ष्मी की पूजा से यह संभव नहीं है। हमें बेटियों के जीवन और उसकी महत्ता को समझना होगा। वंश की चाहत में अंधे समाज को समझना होगा कि बेटी को जि़दगी दिये बिना बेटे के जन्म का सपना हक़ीक़त में नहीं बदल सकता।
नियाज अहमद
(चरखा फीचर्स)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें