जड़ी-बूटियों अथवा आयूर्वेदिक औषधियों से भारत वर्ष में उपचार का प्रचलन काफी प्राचीन रहा है। साधारण से साधारण बीमारी हो या फिर असाध्य रोग, तमाम तरह के रोगों की अचूक दवा हुआ करती थीं जड़ी-बूटियाँ। इन औषधियों के इस्तेमाल से लोग स्वस्थ, स्फूर्त व मानसिक रुप से सबल रहा करते थे। वैदिक काल में लंबी उम्र के बावजूद ऋषि-मुनियों का स्वस्थ रहना इसी बात का द्योतक रहा है। धर्मग्रंथों, प्राचीन व दुर्लभ अभिलेखों में इस बात का जिक्र प्रमुखता के साथ उद्धृत है। जड़ी-बूटियों से उपचार में ऋषि-मुनियों को महारथ हासिल थी, क्योंकि पहाड़-जंगल, रेत-टिल्हों, नदी-झरनों के आजू-बाजू जहाँ एक ओर तपस्या में लीन इन्हें देखा जाता था, वहीं दूसरी ओर स्वच्छ व ताजी हवा तथा प्रकृति का नयनाभिराम दृश्य इनके आत्मा को स्वीकार्य व उद्देश्यों में शामिल हुआ करता था।
अश्विनी कुमारों की चिकित्सीय व्यवस्था काफी संपन्न थी। कहते हैं इस मामले में उनका कोई जोड़ नहीं था। धर्मग्रंथों में वर्णित और जन श्रुतियों के मुताबिक अजेय योद्धा दशानन रावण पुत्र मेघनाद के वाण से गंभीर रुप से घायल दशरथ पुत्र लक्ष्मण को संजीवनी बूटी से ही जीवन दान प्राप्त हुआ था। राम भक्त हनुमान को इसकी कोई जानकारी नहीं थी, पूरा का पूरा संजीवनी पहाड़ ही लाकर खड़ा कर दिया था उन्होनें। शूरवीर योद्धाओं, राजा-महाराजाओं, से लेकर आम नागरिकों तक का ईलाज हर्बल पद्वति से होने का पुख्ता सबूत आज भी मौजूद है। बबासीर, लिकुरिया, घुटना दर्द, मधुमेह, मिरगी, रतौंधी, धातुस्त्राव, मुर्छावस्था, पीलिया, मस्तिष्क ज्वर, पेशाब में जलन, अपच, बदहजमी, वायु व पित्त रोग, दस्त, डायरिया, शरीर में ऐठन, गर्भाशय व डिम्ब ग्रंथी में गड़बड़ी के कारण उत्पन्न खेत प्रदर व रक्स प्रदर तथा औरतों के अन्य गुप्त रोगों का उपचार इस पद्धति के द्वारा किया जाता है। राज दरबारों में बैद्यराज की काफी प्रतिष्ठा हुआ करती थी। वे देवताओं के अंश की तरह पूजित थे। उन्हें राजा के सबसे निकट रहने का दर्जा प्राप्त होता था। बड़े-बड़े हुक्मरानों के यहाँ उनका आयुर्वेदिक उपचार चला करता था। युद्धकाल में घायल सैनिकों को हर्बल उपचार से ही भला-चंगा किया जाता था। प्राचीन मिश्र में एक सभ्यता विकसित थी।
मेसोपोटामिया की सभ्यता। इस सभ्यता के जो अवशेष अब तक बचे हैं उनमें मिश्र के राज घरानों के लोगों की मृत्यु के बाद उनकी लाश हर्बल विधि से ही सुरक्षित रखा जाता था, जो कई-कई सौ वर्षों तक सुरक्षित बना रहता था। कई पिरामिड आज भी इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। जड़ी-बूटियों अथवा अन्य आयुर्वेदिक औषधीय पौधों से उपचार का प्रचलन आज भी जिन्दा है, लेकिन उस रुप में नहीं जैसे पहले हुआ करती था। जड़ी-बूटियों के माध्यम से उपचार करने व उपचार कराने वाले लोगों की तादाद दिन-ब-दिन घटती जा रही है। जंगल-पहाड़ में एक समय बहुतायत में पाऐ जाने वाले सताव, औंरा, बंदरा, काली तुलसी, वनबैगन, सिकटी, हर्रे, घृतकुमारी, पीपर, नीम, सफेद मुसली, सर्पगंधा, मीठा नीम, हरला-वाकस, जंगली (लाल) प्याज, रीठा, सीता पत्ता, मैदा वृक्ष, गुड़माड़ वृक्ष, बेलपत्र, इंदुजा, रामदतवन, धतुरा, कैक्टस, सफेद पलास, काली हरदी, सफेद चंदन, दुधी लता, बहेड़ा, सोमराज, वायडींग, पुनर्नवा, ब्राम्ही, चालमोगरा, दारु हल्दी, जंगली पिकवन, मुटीया लता, कीकर, देवदारु, खरेटी या बरीयार, महानीम्ब, लता कस्तुरी, लाटजीरा, चाकुन्दा, भृंगराज, गुलवेल, चालमोगरा, कुरची, पिप्पली, मकर घ्वज, प्रवाल पिष्टी, शतावरी, हीराकंश, देवनार्हुली, कार्पस, चित्रक जैसे औषधीय पेड़-पौधों सहित जड़ी-बूटियों की उपलब्धता दिन-व-दिन खत्म होती जा रही है।
विदेशी मूल्कों में उपरोक्त भारतीय औषधीय पौधों की माँग को देखते हुए संताल परगना के जंगलों से इनकी तस्करी भी पिछले कई वर्षों से निर्वाध जारी है। हर्बल गार्डन के रुप में प्रसिद्ध संताल परगना के जंगल-पहाड़ों से बड़े पैमाने पर जड़ी-बूटियों की तस्करी रोकनी होगी अन्यथा वंशागत पेशे से जुड़े लोगों को इसके भावी दुष्परिणाम भुगतने होगें। आर्थिक विपन्नता का दंश झेल रहे उन बहुसंख्यक जनजातीय समाज को भी चिकित्सीय दुष्परिणाम का सामना करना पड़ेगा जिनका अठूट विश्वास आज भी जड़ी-बूटियों में बना हुआ है।
अमरेन्द्र सुमन,
दुमका, झारखण्ड
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