प्रदोष काल में स्फटिक शिवलिंग को शुद्ध गंगा जल, दूध, दही, घी, शहद और शक्कर से स्नान व धूप-दीप जलाकर ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रूद्रः प्रचोदयात, मंत्र का जाप करने से समस्त बाधाओं का शमन होता है। महामृत्युंजय मंत्र ‘ॐ त्रयम्बकं यजामहे सुगंधिम पुष्टीवर्धनम. उर्वारुकमिव बंधनान मृत्योर मुक्षीय मामृतात.’ का जाप रुद्राक्ष की माला से करने से मिलता है सभी तरह के बीमरियों व अकाल मौतों होती है रक्षा
जब तपस्वीनी बनी पार्वती। तब तप से डोल उठी धरती। पर्वत पुत्री की भक्ति देखकर झूक गयी भोले की विरक्ति। खुल गयी भोले की झोली। बनने चले उमा के पति। तीनों लोक बने बाराती। हो गया शिव और शक्ति का मिलन। वो दिन कहलाएं महाशिवरात्रि। सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्यरात्रि को भगवान शंकर का ब्रह्मा से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था। प्रलय की बेला में इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त की। इसीलिए इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि भी कहा गया। इस दिन व्रत रखकर विधि-विधान से की गयी पूजा-अर्चना से होता है अद्भूत चमत्कार। भगवान भोलेनाथ शीघ्र हो जाते है प्रसन्न। खोल देते है भक्तों के किस्मत का द्वार। पूरी हो जाती है हर मनोकामना। शिव स्तिुति व उँ नमः शिवाय का ज पके साथ रात्रि जागरण करने से मिल जाता है हजार अश्वमेघ यज्ञ के समान फल। बेलपत्र का पत्ता-पत्ता बरसाता है खुशिया अपार। सभी भोगों के साथ हो जाता है मोक्ष की प्राप्ति और नास हो जाते है सभी पापों का क्षय करने वाले विघ्न। जी हां, इस बार यह महाशुभ दिन यानी महाशिवरात्रि 17 फरवरी को है। फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को पड़ने वाला महाशिवरात्रि पर्व हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। यह भगवान शिव के पूजन का सबसे बड़ा पर्व भी है।
वैसे तो हिन्दु ग्रंथों तथा मान्यताओं के अनुसार भगवान शिव को प्रत्येक माह की चतुर्दशी तिथि प्रिय है परन्तु सभी चतुर्दशी तिथियों में फाल्गुन माह की चतुर्दशी तिथि भगवान शिव को अतिप्रिय है। सत्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण तीनों गुणों में से तमोगुण की अधिकता अन्य दिन की अपेक्षा रात्रि में अधिक है। इस कारण भगवान शिव ने अपने लिंग के प्रादुर्भाव के लिए फाल्गुन माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की मध्यरात्रि को चुना। इस दिन विधिपूर्वक व्रत रखने तथा शिवपूजन, शिव कथा के साथ ही व्रत के दूसरे दिन ब्राह्माणों को यथाशक्ति वस्त्र-क्षीर सहित भोजन, दक्षिणादि प्रदान करके संतुष्ट करने का विधान हैं। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार इस सृष्टि से पहले सत और असत नहीं थे केवल भगवान शिव थे। तीनों लोकों की अपार सुंदरी तथा शीलवती गौरां को अर्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों और पिशाचों से घिरे रहते हैं। उनका रूप बड़ा अजीब है। शरीर पर मसानों की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटाओं में जगत-तारिणी पावन गंगा तथा माथे में प्रलयंकार ज्वाला उनकी पहचान है। बैल को वाहन के रूप में स्वीकार करने वाले शिव अमंगल रूप होने पर भी भक्तों का मंगल करते हैं और श्री-संपत्ति प्रदान करते हैं। यह दिन जीव मात्र के लिए महान उपलब्धि प्राप्त करने का दिन भी है। बताया जाता है कि जो प्राणि मात्र इस दिन परम सिद्धिदायक उस महान स्वरूप की उपासना करता है वह परम भाग्यशाली होता है। इसके बारे में संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी ने मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के मुखारविन्द से कहलवाया है कि शिवद्रोही मम दास कहावा, सो नर सपनेहु मोहि नहिं भावा अर्थात जो शिव का द्रोह कर के मुझे प्राप्त करना चाहता है वह सपने में भी मुझे प्राप्त नहीं कर सकता। इसीलिए श्रावण मास में शिव आराधना के साथ श्रीरामचरितमानस पाठ का बहुत महत्व होता है। शिव की महत्ता को शिवसागर में और ज्यादा विस्तृत रूप में देखा जा सकता है। शिवसागर में बताया गया है कि विविध शक्तियाँ, विष्णु एवं ब्रह्मा जिसके कारण देवी और देवता के रूप में विराजमान हैं, जिसके कारण जगत का अस्तित्व है, जो यंत्र हैं, मंत्र हैं. ऐसे तंत्र के रूप में विराजमान भगवान शिव को नमस्कार है। दक्षिण भारत का प्रसिद्ध और परमादरणीय ग्रन्थ नटराजम भगवान शिव के सम्पूर्ण आलोक को प्रस्तुत करता है। इसमें लिखा गया है कि मधुमास अर्थात् चैत्र माह के पूर्व अर्थात् फाल्गुन मास की चर्तुदशी को प्रपूजित भगवान शिव कुछ भी देना शेष नहीं रखते हैं। इसमें बताया गया है कि त्रिपथगामिनी’ गंगा जिनकी जटा में शरण एवं विश्राम पाती हैं, त्रिलोक अर्थात आकाश, पाताल एवं मृत्युलोक वासियों के त्रिकाल यानी भूत, भविष्य एवं वर्तमान को जिनके त्रिनेत्र त्रिगुणात्मक बनाते हैं।
चतुर्दशी तिथि के स्वामी है शिव
ज्योतिषि पं रामदुलार उपाध्याय का कहना है कि चतुर्दशी तिथि के स्वामी शिव हैं। सूर्य देव भी इस समय तक उत्तरायण में आ चुके होते हैं। चंद्रमा अपनी क्षीणस्थ अवस्था में पहुंच जाते हैं। इसके चलते बलहीन चंद्रमा सृष्टि को ऊर्जा देने में असमर्थ हो जाते हैं। चंद्रमा का सीधा संबंध मन से कहा गया है। अब मन कमजोर होने पर भौतिक संताप प्राणी को घेर लेते हैं तथा विषाद की स्थिति उत्पन्न होती है। जिससे कष्टों का सामना करना पड़ता है। चंद्रमा शिव के मस्तक पर सुशोभित है। अतः चंद्रदेव की कृपा प्राप्त करने के लिए भगवान शिव का आश्रय लिया जाता है। इसीलिए इसे परम शुभफलदायी कहा गया है। शिव को देवाधिदेव महादेव इसलिए कहा गया है कि वे देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, किन्नर, गंधर्व पशु-पक्षी एवं समस्त वनस्पति जगत के भी स्वामी हैं। शिव की अराधना से संपूर्ण सृष्टि में अनुशासन, समन्वय और प्रेम भक्ति का संचार होने लगता है। इसीलिए, स्तुति गान कहता है- मैं आपकी अनंत शक्ति को भला क्या समझ सकता हूँ. अतः हे शिव, आप जिस रूप में भी हों उसी रूप को मेरा आपको प्रणाम। शिव शब्द का अर्थ है ‘कल्याण करने वाला’। शिव ही शंकर हैं। शिव के श का अर्थ है कल्याण और क का अर्थ है करने वाला। शिव, अद्वैत, कल्याण- ये सारे शब्द एक ही अर्थ के बोधक हैं। शिव ही ब्रह्मा हैं, ब्रह्मा ही शिव हैं। ब्रह्मा जगत के जन्मादि के कारण हैं। अतः महाशिवरात्रि पर सरल उपाय करने से ही इच्छित सुख की प्राप्ति होती है। वैसे तो शिवरात्रि हर महीने में आती है। परंतु फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को ही महाशिवरात्रि कहा गया है। माना जाता है कि इस दिन शिव की शादी हुई थी। इसलिए रात्रि में शिवजी की बारात निकाली जाती है। इसलिए प्रायः ज्योतिषी शिवरात्रि को शिव अराधना कर कष्टों से मुक्ति पाने का सुझाव देते हैं। शिव आदि-अनादि है। सृष्टि के विनाश और पुनरूस्थापन के बीच की कड़ी हैं। वास्तव में शिवरात्रि का परम पर्व स्वयं परमात्मा के सृष्टि पर अवतरित होने की स्मृति दिलाता है। पौराणिक कथा है कि एक बार पार्वती जी ने भगवान शिवशंकर से पूछा, ऐसा कौन-सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्युलोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं? उत्तर में शिवजी ने पार्वती को शिवरात्रि के व्रत का उपाय बताया। इस दिन प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में सूर्योदय से पहले ही उत्तर-पूर्व में पूजन-आरती की तैयारी कर लेनी चाहिए। सूर्योदय के समय पुष्पांजलि और स्तुति कीर्तन के साथ महाशिव रात्रि का पूजन संपन्न होता है। उसके बाद दिन में ब्रह्मभोज भंडारा के द्वारा प्रसाद वितरण कर व्रत संपन्न होता है। यह अपनी आत्मा को पुनीत करने का महाव्रत है। इस व्रत को करने से सब पापों का नाश हो जाता है। हिंसक प्रवृत्ति बदल जाती है। निरीह जीवों के प्रति आपके मन में दया भाव उपजता है। शिव और शक्ति का सम्मिलित स्वरूप हमारी संस्कृति के विभिन्न आयामों का प्रदर्शक है। हमारे अधिकांश पर्व शिव-पार्वती को समर्पित हैं। शिव औघड़दानी हैं और दूसरों पर सहज कृपा करना उनका सहज स्वभाव है।
नौ ग्रहों से भी है शिवलिंगों का संबंध
मान्यता यह भी है कि जिस प्रकार भगवान शिव के त्रिशूल, डमरू आदि सभी वस्तुओं तथा शिव का संबंध नौ ग्रहों से जोडा गया है, उसी प्रकार भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों का संबंध बारह चन्द्र राशियों से जोडा गया है, जो इस प्रकार है-मेष राशि का संबंध श्रीसोमनाथ ज्योतिर्लिंग, वृष राशि का श्रीशैल ज्योतिर्लिंग, मिथुन राशि का श्रीमहाकाल ज्योतिर्लिंग, कर्क राशि का श्रीऊँकारेश्वर अथवा अमलेश्वर ज्योतिर्लिंग, सिंह राशि का श्रीवैद्यनाथधाम ज्योतिर्लिंग, कन्या राशि का श्रीभीमशंकर ज्योतिर्लिंग, तुला राशि का श्रीरामेश्वर ज्योतिर्लिंग, वृश्चिक राशि का श्रीनागेश्वर ज्योतिर्लिंग, धनु राशि का श्रीविश्वनाथ ज्योतिर्लिंग, मकर राशि का श्रीत्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग, कुम्भ राशि का श्रीकेदारनाथधाम से मीन राशि का संबंध श्रीघुश्मेश्वर अथवा श्रीगिरीश्नेश्वर ज्योतिर्लिंग से है।
व्रत व पूजन विधि
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री-पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध सभी इस व्रत को कर सकते हैं। इस व्रत के विधान में सवेरे स्नानादि से निवृत्त होकर उपवास रखा जाता है। व्रत को रखने वाले जन को उपवास के पूरे दिन भगवान भोले नाथ का ही ध्यान करना चाहिए। व्रत का संकल्प सम्वत, नाम, मास, पक्ष, तिथि-नक्षत्र, अपने नाम व गोत्रादि का उच्चारण करते हुए करना चाहिए। इसके लिये हाथ में जल, चावल, पुष्प आदि सामग्री लेकर शिवलिंग पर छोडना चाहिए। प्रातः स्नान करने के बाद भस्म का तिलक कर रुद्राक्ष की माला धारण करनी चाहिए। इसके ईशान कोण दिशा की ओर मुख कर शिव का पूजन धूप, पुष्पादि, पंचामृ्त (गंगाजल, दुध, दही, घी, शहद), सुगंधित फूल, शुद्ध वस्त्र, बेल पत्र, दीप, नैवेध, चंदन का लेप, ऋतुफल आदि पूजन सामग्री से पूजन करना चाहिए। इस व्रत में चारों पहर में पूजन किया जाता है, प्रत्येक पहर की पूजा में उँ नमः शिवाय व शिवाय नमः का जाप करते रहना चाहिए। अगर शिव मंदिर में यह जाप करना संभव न हों, तो घर की पूर्व दिशा में, किसी शान्त स्थान पर जाकर इस मंत्र का जाप किया जा सकता हैं। चारों पहर में किये जाने वाले इन मंत्र जापों से विशेष पुन्य प्राप्त होता है।
जलाभिषेक
उपावस की अवधि में रुद्राभिषेक करने से भगवान शंकर अत्यन्त प्रसन्न होते है। अभिषेक करने के लिये सबसे पहले एक मिट्टी का बर्तन लेकर उसमें पानी भरकर, पानी में बेलपत्र, आक धतूरे के पुष्प, चावल आदि डालकर शिवलिंग को अर्पित करते है। शिवपुराण का पाठ सुनना चाहिए। मन में असात्विक विचारों को आने से रोकना चाहिए। अगले दिन सवेरे जौ, तिल, खीर और बेलपत्र का हवन करके व्रत समाप्त किया जाता है। रात्रि में जागरण कर वेदमंत्र संहिता, रुद्राष्टा ध्यायी पाठ ब्राह्मणों के मुख से सुनने से यह व्रत और अधिक शुभ फल देता है। शिव प्रसन्न हो जाएं तो फिर परीक्षाओं में सफलता, असाध्य रोगों से छुटकारा, घर में खुशियों का वास होगा और नौकरी की बाधाएं दूर होंती है। विवाह संबंधी परेशानियां, अड़चनें दूर होंगी और जल्द विवाह का योग बनेगा। इस दिन शिवलिंग पर जल अथवा दूध की धारा लगाने से भगवान की असीम कृपा सहज ही मिलती है। इनकी कृपा से कुछ भी असंभव नहीं है। इस दिन त्रिपुण्ड लगाकर, रुद्राक्ष धारण करके, शिवजी को बिल्व पत्र, ऋतु फल एवं पुष्प के साथ रुद्र मंत्र अथवा ॐ नमः शिवाय मंत्र का जप करना चाहिए। जय-जय शंकर, हर-हर शंकर का कीर्तन करना चाहिए। कोई विशेष कामना हो तो शिवजी को रात्रि में समान अंतर काल से पांच बार शिवार्चन और अभिषेक करना चाहिए। किसी भी प्रकार की धारा लगाते समय शिवपंचाक्षर मंत्र दृ ‘नमः शिवाय’ का जप करना चाहिए।
रात्रि जागरण
शिवरात्रि पर सच्चा उपवास यही है कि हम परमात्मा शिव से बुद्घि योग लगाकर उनके समीप रहे। उपवास का अर्थ ही है समीप रहना। जागरण का सच्चा अर्थ भी काम, क्रोध आदि पांच विकारों के वशीभूत होकर अज्ञान रूपी कुम्भकरण की निद्रा में सो जाने से स्वयं को सदा बचाए रखना है। इस व्रत को लगातार 14 वर्षो तक करने के बाद विधि-विधान के अनुसार इसका उद्धापन कर देना चाहिए। शिवरात्रि के दिन एक मुखी रूद्राक्ष को गंगाजल से स्नान करवाकर धूप-दीप दिखा कर तख्ते पर स्वच्छ कपड़ा बिछाकर स्थापित करें। शिव रूप रूद्राक्ष के सामने बैठ कर सवा लाख मंत्र जप का संकल्प लेकर जाप आरंभ करें।
प्रमुख जाप मंत्र
शिवरात्रि के प्रदोष काल में स्फटिक शिवलिंग को शुद्ध गंगा जल, दूध, दही, घी, शहद और शक्कर से स्नान करवाकर धूप-दीप जलाकर ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रूद्रः प्रचोदयात, मंत्र का जाप करने से समस्त बाधाओं का शमन होता है। बीमारी से परेशान होने पर और प्राणों की रक्षा के लिए महामृत्युंजय मंत्र ‘ॐ त्रयम्बकं यजामहे सुगंधिम पुष्टीवर्धनम. उर्वारुकमिव बंधनान मृत्योर मुक्षीय मामृतात.’ का जाप करें। याद रहे, महामृत्युंजय मंत्र का जाप रुद्राक्ष की माला से ही करें। यह मंत्र दिखने में जरूर छोटा दिखाई देता है, किन्तु प्रभाव में अत्यंत चमत्कारी है।
व्रत में क्या करें भोजन?
व्रत के दिन चढ़ाया गया नैवेद्य खाना निषिद्ध है। जो इस नैवेद्य को खाता है वह नरक के दुखों का भोग करता है। इस कष्ट के निवारण के लिए शिव की मूर्ती के पास शालीग्राम की मूर्ती का रहना अनिवार्य है। यदि शिव की मूर्ती के पास शालीग्राम हो तो नैवेद्य खाने का कोई दोष नहीं है। व्रत के व्यंजनों में सामान्य नमक के स्थान पर सेंधा नमक का प्रयोग करते हैं और लाल मिर्च की जगह काली मिर्च का प्रयोग करते हैंफ। कुछ लोग व्रत में मूंगफली का उपयोग भी नहीं करते हैं। ऐसी स्थिति में आप मूंगफली को सामाग्री में से हटा सकते हैं। व्रत में यदि कुछ नमकीन खाने की इच्छा हो तो आप सिंघाड़े या कूटू के आटे के पकौड़े बना सकते हैं। इस व्रत में आप आलू सिंघाड़ा, दही बड़ा भी खा सकते हैं। साबूदाना भी खाया जा सकता है। साबूदाना में कार्बोहाइड्रेट की प्रमुखता होती है और इसमें कुछ मात्रा में कैल्शियम व विटामिन सी भी होता है। इसका उपयोग अधिकतर पापड़, खीर और खिचड़ी बनाने में होता है। व्रतधारी इसका खीर अथवा खिचड़ी बना कर उपयोग कर सकते हैं।
महाशिवरात्रि व्रत कथा
एक बार. एक गाँव में एक शिकारी रहता था। पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधवश साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी। शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया। अपनी दिनचर्या की भाँति वह जंगल में शिकार के लिए निकला, लेकिन दिनभर बंदीगृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल-वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो बेलपत्रों से ढँका था। शिकारी को उसका पता न चला। पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियाँ तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए। एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुँची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, मैं गर्भिणी हूँ। शीघ्र ही प्रसव करूँगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं अपने बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे सामने प्रस्तुत हो जाऊँगी, तब तुम मुझे मार लेना। शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी झाडि़यों में लुप्त हो गई। शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया. रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली। शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर न लगाई, वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, हे पारधी! मैं इन बच्चों को पिता के हवाले करके लौट आऊँगी। इस समय मुझे मत मार। शिकारी हँसा और बोला, सामने आए शिकार को छोड़ दूँ, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूँ। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे। उत्तर में मृगी ने फिर कहा, जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी, इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान माँग रही हूँ। हे पारधी! मेरा विश्वास कर मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूँ। मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के आभाव में बेलवृक्ष पर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्व करेगा। शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला, हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि उनके वियोग में मुझे एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े, मैं उन मृगियों का पति हूँ। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण जीवनदान देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे सामने उपस्थित हो जाऊँगा। मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटना-चक्र घूम गया। उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, मेरी तीनों पत्नियाँ जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएँगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूँ। उपवास, रात्रि जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ाने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गए। भगवान शिव की अनुकम्पा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा। थोड़ी ही देर बाद मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया। देव लोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहा था। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए।
सुरेश गांधी
भदोही
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