- गणतंत्र दिवस समारोह-2015 में 15 राज्यों से दिल्ली पहुँची झारखण्ड के मलूटी मंदिरों की झांकी का रहा स्थान द्वितीय। केन्द्रीय रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने सचिव सूचना एवं जनसंपर्क विभाग, झारखण्ड, राँची को प्रशस्तिपत्र देकर किया सम्मानित
- उप राजधानी दुमका स्थित मलूटी के मंदिरों की खोज के वास्तविक सच से अभी तक अबूझ लोग
झारखण्ड की उप राजधानी दुमका से तकरीबन 55 कि0मी0 की दूरी (झारखण्ड-प0 बंगाल सीमावर्ती क्षेत्र) पर अवस्थित 17 वीं शताब्दी में टेराकोटा शैली में निर्मित 108 मंदिरों का गाँव मलूटी इन दिनों राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय फलक पर छाया हुआ है। 66 वें गणतंत्र दिवस (26 जनवरी 2015) समारोह के अवसर पर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के राजपथ पर आयोजित 15 राज्यों की झाँकी में पुरातात्विक, धार्मिक व कलात्मक महत्वों से ओत-प्रोत मलूटी के मंदिरों की झाँकी को ़िद्वतीय स्थान से नवाजा गया। दिल्ली के राष्ट्रीय रंगशाला कैम्प में आयोजित पुरस्कार वितरण समारोह में केन्द्रीय रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने झारखण्ड के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के सचिव मस्तराम मीणा को इस एवज में प्रशस्तिपत्र देकर सम्मानित किया। पुरस्कार ग्रहण करने के उपरांत श्री मीणा ने कहा यह झारखण्ड राज्य के लिये गौरव की बात है। प्रचलित कथा व ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार मल्लभूम राज्य के अन्दर विष्णुपुर के मल्ल राजाओं का एक छोटा सा राज्य था जो मल्लहाटी के नाम से जाना जाता था। ननकर राजाओं ने 17 वीं शताब्दी में इसे अपनी राजधानी बनाया था, जो बाद में मलूटी के नाम से प्रसिद्ध हो गया। रामायण व महाभारत काल के संदर्भों पर आधारित मलूटी के मंदिरों की नक्काशी तथा भगवान शिव, माँ काली, माँ मौलीक्षा व भगवान विष्णु के 108 मंदिरों का निर्माण मध्ययुगीन स्थापत्यकला का बेजोड़ उदाहरण माना जाता है। प्रचलित कथानुसार तत्कालीन राजा बाज वसंत के वंशजों ने 15 से 60 फीट की उँचाई तक के मंदिरों का निर्माण कराया था। चूना-सुरकी व ईंट से निर्मित मलूटी के मंदिरों का अस्तित्व कालांतर में खत्म होता चला गया, परिणामस्वरुप कुल 108 मंदिरों में मात्र 72 मंदिरों का अस्तित्व ही शेष बचा रहा। वर्तमान में अवस्थित मलूटी के 72 मंदिरो में 58 मंदिर भगवान शिव के तथा बाकी बचे 14 मंदिरों में माँ काली, माँ मौलीक्षा व भगवान विष्णु ही विद्यमान हैं। मंदिर के मुख्य पैनल में महिषाशुरमर्दिनी, एक तरह के पाश्र्व पैनल में रामलीला से संबंधित चित्रकथा-सीताहरण, मारीचबद्ध, जटायुबद्ध तथा दूसरे पैनल में कृष्णलीला से संबंधित चित्रकथा-माखनचोर, वस्त्रहरण, गिरि गोवर्धन धारण जैसे दृश्यों को क्रमवार नीचे से उपर तक अंकित किया गया है। अधिकांश मंदिर के उपरी हिस्से में प्रोटो बंग्ला अक्षरों में संस्कृत व प्राकृत भाषा में प्रतिष्ठाता का नाम, स्थापना तिथि इत्यादि अंकित है। घ्वस्त दुर्गामंदिर के सम्मुख भाग में मनुष्यों की कुछ मूर्तियाँ, दो शेर व परियों के साथ विचित्र बनावट में इस्ट इंडिया कंपनी की संस्कृति परिलक्षित होती है। इन मंदिरो के निर्माण में तकरीबन 100 वर्ष लग गए। मलूटी के मंदिरों के संरक्षण में महती भूमिका निभाने वाले इतिहासकार गोपाल दास मुखोपाध्याय को गणतंत्र दिवस-2015 के अवसर पर उप राजधानी दुमका के पुलिस लाईन मैदान में सूबे के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने अंगवस्त्र, प्रशस्तिपत्र व सम्मान स्वरुप 50 हजार रुपये की धनराशि भेंट कर उन्हें सम्मानित किया। अपनी लेखनी के माध्यम से मलूटी के मंदिरों के प्रचार-प्रसार में निरंतर लगे रहे गोपाल दास मुखोपाध्याय ने वर्ष 1968 से 1992 तक लगातार मलूटी मध्य विद्यालय के प्रध्यापक पद पर कार्य किया। शिक्षक पद पर रहते हुए भी 108 मंदिरों के गाँव मलूटी के संरक्षण में उन्होनें ऐतिहासिक भूमिका निभाई। क्षेत्र में ऐसी मान्यता है कि गोपाल दास मुखोपाध्याय ने ही फर्श से अर्स तक मलूटी को पहचान दिलाने का काम किया, परिणामस्वरुप राष्ट्रीय स्तर पर मलूटी को द्वितीय स्थान की प्राप्ति हुई। गणतंत्र दिवस समारोह-2015 के अवसर पर वतौर मुख्य अतिथि विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्रांत्रिक देश अमेरिका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने भी तीन दिन की अपनी भारत यात्रा के दरम्यान मलूटी के मंदिरों की सराहना की थी। गोपाल दास मुखोपाध्याय ने ही मंदिरों के गाँव मलूटी को राष्ट्रीय फलक पर पहचान दिलाने का काम किया-बेबुनियाद, मनगढंत, व तथ्यों से कोसों दूर है।
मलूटी से संबंधित लगातार अखबारों में छप रही खबरों पर टिप्पणी करते हुए संताल परगना (एसपी काॅलेज) महाविद्यालय, दुमका के प्राचार्य डा0 सुरेन्द्र झा ने क्या कहा, सुनते हैं उन्हीं की जुबानी:- मलूटी एक छोटा सा गाँव है। 70 के दशक तक मलूटी के विषय में किसी को कोई जानकारी नहीं थी। किसी भी ब्रिटिश दस्तावेज, गजेटियर्स अथवा कलिंघम के पुरातात्विक सर्वेक्षण में मलूटी के मंदिरों का जिक्र नहीं है। मलूटी के एक प्रबुद्ध ग्रामीण गोपाल दास मुखोपाध्याय ने ही पहली दफा पत्रकारो, सरकारी पदाधिकारियों व बुद्धिजीवियों का ध्यान इस ओर आकृष्ट कराया। वर्ष 1983 में भागलपुर संग्रहालय के क्यूरेटर ए0 के0 सिन्हा व गोपाल दास मुखोपाध्याय ने बंग्लाभाषा में देवभूमि मलूटी के नाम से एक पुस्तिका का प्रकाशन कराया। बाद में बाजेर बदले राज नाम से एक दूसरी पुस्तक श्री मुखोपाध्याय ने लिखी। श्री मुखोपाध्याय का योगदान यह रहा कि पटना स्तर के कुछ प्रबुद्धों व्यक्तियों तक उन्होनें अपनी पुस्तक के माध्यम से मलूटी को आगे बढ़ाने का काम किया। वर्ष 2001 ई0 में पहली दफा झारखण्ड सरकार ने मलूटी पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। तत्कालीन संस्कृति व शिक्षा सचिव एन0 एन0 पाण्डेय मलूटी के मंदिरों को देखने दुमका पहुँचे। सिदो कान्हु मुर्मू विवि, दुमका की तत्कालीन कुलपति स्व0 इंदू धान की सलाह पर श्री पाण्डेय ने मुझसे भी चलने का अनुरोध किया। मलूटी के मंदिरों को देखने के बाद मैनें सलाह दी कि इससे संबंधित दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं, जिसे तैयार करने की जरुरत है। इसी संदर्भ में संस्कृति विभाग, राँची के समक्ष दस्तावेज प्रस्तुत करने का प्रस्ताव खुद के स्तर से भेजा। सरकार ने इसकी जिम्मेवारी मुझे दी। वर्ष 2003 में सरकार ने 50 हजार रुपये का अनुदान भी मुझे दिया। बाद में मैनें एक रिपोर्ट तैयार किया जिसका शीर्षक था डंसनजप ं टपससंहम व िज्मउचसमे ण् तत्कालीन भारतीय इतिहास काॅग्रेस के महासचिव स्व0 प्रो0 (डा0) विजय कुमार ठाकुर के द्वारा अतिशय जोर देने के बाद तत्कालीन संस्कृति सचिव एन0 एन0 सिन्हा ने इस रिपोर्ट के प्रकाशन का निर्णय लिया। लाल फीताशाही की वजह से रिपोर्ट का प्रकाशन टलता रहा। अंत में अपने शोध को एक नयी दिशा देते हुए और मलूटी में प्रचलित तांत्रिक साधना पद्धति के दार्शनिक पक्षों को उजागर करते हुए मलूटी पर एक नयी पुस्तक का प्रणयन किया। लखनउ विवि के प्राचीन भारतीय इतिहास एवं सस्कृति विभाग के लिये प्रो0 अमर कु0 सिंह की पहल पर प्रतिभा प्रकाशन के सौजन्य से वर्ष 2009 में यह पुस्तक प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक है-ैलदजीमेपे व िठनकीपेज ेंपतं - ैंाजं जंदजतंे - न्दादवूद ैपकींचपजीं डंसनजप ण् राष्ट्रीय स्तर पर इतिहासकारों व संस्कृतकर्मियों का ध्यान आकृष्ट करने के लिये मैनें कोलकाता की लब्ध-प्रतिष्ठ संस्था प्देजपजनजम व िभ्पेजवतपबंस ेजनकपमे.ज्ञवसांजं मे प्रसिद्ध पुरातत्वविद् व पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की निर्देशिका डा0 अमिता राॅय व यादवपुर विवि के चतव.म्उमतपजने क्त ब्ीपजजंइतंज च्ंसपज के हाथों पुस्तक का विमोचन कराया जिसपर इन्स्टीट्यूट के प्रतिष्ठित श्रवनतदंस फनंतजमतसल त्मअपमू व िभ्पेजवतपबंस ेजनकपमे में यादवपुर विवि के कला इतिहास की विशेषज्ञा डा नुपूर दास गुप्ता के द्वारा समीक्षा की गई। इस तरह मलूटी का मंदिर राष्ट्रीय फलक पर चर्चित हो गया। मलूटी पर किये गए शोध कार्यों में कुछ नये विन्दुओं की स्थापना मैनें की है-किंवदंतियों में गुम मलूटी के राजनीतिक इतिहास को मैनें ठोस ऐतिहासिक धरातल पर खड़ा किया है। किंवदंतियों और मलूटी ग्राम में प्रचलित कहानियों का तुलनात्मक अध्ययन कर बाबरनामा खण्ड-तृतीय के आधार पर मलूटी के प्रथम राजा बसंत राय की मृत्यु की तिथि निर्धारित की गई जो किंवदंतियों की गणना से बिल्कुल मिल गई। राजा वसंत राय की मृत्यु वर्ष 1529 ई0 में हुई। अलाउद्दीन हुसैन साह द्वारा जमींदारी के अनुदान का वर्ष 1504 ई0 तय हुआ। मलूटी राजा बसंतराय व उनके वंशजो की मूल राजधानी नहीं थी। वीरभूम के मोरेश्वर के समीप कटिग्राम थी। जिसके बाद वे मलूटी से 07 कि0मी0 दक्षिण डमरा में आकर बस गए थे। वीरभूम के जमींदारों ने मलूटी राज पर आक्रमण किया तो वे राजधानी छोड़कर मलूटी के जंगलों में आ गए। इसी जंगल को साफ करने के बाद मिट्टी के नीचे दबी पुरानी मूर्ति मिली जिसमें उन्होनें अपनी कुलदेवी सिेहवाहिनी दुर्गा की प्राण प्रतिष्ठा की। चूँकि यह मूर्ति बहुत प्राचीन और मौलिक थी और धरती के अन्दर सुशुप्त थी इसलिये इसका नाम सिद्ध तांत्रिक राजा राखड़ चन्द्र राय ने इसका नाम मौलीक्षा रखा जिसका अन्वय इस प्रकार हैः मौलीः-बराबर पुरातन काल से आर रही $ क्षा त्र पृथ्वी एवं सुशुप्त (देखें बामन आप्टे का संस्कृत शब्दकोश) यानि वह मूर्ति या प्रतिमा जो अत्यंत पुरातन काल से पूजित होती रही थी लेकिन पृथ्वी के अन्दर दबकर सुशुप्त हो गई थी, उसकी पुनप्र्रतिष्ठा के बाद उसका नाम मौलीक्षा रखा। मौलीक्षा नाम की कोई देवी हिन्दू, बौद्ध, शैक्य, शाक्य और जैन तंत्रों में नही पायी जाती है। गोपाल दास मुखोपाध्याय की व्याख्या भ्रामक है।
अमरेन्द्र सुमन
दुमका
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