आलेख : राजनीति में ' जीतनराम' ......!!​ - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

आलेख : राजनीति में ' जीतनराम' ......!!​

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अपने  माही यानी टीम इंडिया के कप्तान महेन्द्र सिंह धौनी का जब भारतीय टीम में चयन हुआ तो अरसे तक मीडिया उन्हें धोनी - धोनी कहता रहा। आखिरकार उन्हें खुद ही सामने आकर कहना पड़ा कि वे धोनी नहीं बल्कि धौनी हैं। इसी तरह 2104 लोकसभा चुनाव के बाद बिहार की राजनीति में अचानक जिस तरह से मुख्यमंत्री के तौर पर जीतनराम मांझी का अवतरण हुआ तो शुरू में मुझे लगा कि नाम में कहीं कुछ गलती हो रही है। उनका असली नाम शायद जीतराम है । उन्हें गलती से जीतनराम कहा जा रहा है। लेकिन बाद में पता चला कि जीतनराम ही सही है। चुनाव में अपनी पार्टी की शोचनीय पराजय की जिम्मेदारी लेते हुए जब नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया और जीतनराम को अपनी कुर्सी पर बिठाया तो मुझे अचरज हुआ कि आखिर इसके लिए उन्हें जीतनराम ही उपयुक्त क्यों लगे। 

अाज नीतीश कह रहे हैं कि जीतनराम को मुख्यमंत्री बना कर उन्होंने गलती की। लेकिन देखा जाए तो भारतीय राजनीति में यह अनुभव काफी पुराना है। अपनी विरासत सौंपने को लेकर प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री यहां तक कि ग्राम - प्रधान से लेकर पंचायत प्रधान तक अतीत में इस प्रकार के कसैले अनुभव से दो - चार हो चुके हैं। 90 के दशक में शरद पवार ने अपनी जगह सुधाकर राव नाइक को महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनवा कर कुछ एेसा ही कड़वा स्वाद चखा था। जानकार तो बताते हैं कि खुद शरद पवार ने अतीत में अपने राजनैतिक गुरू के साथ कुछ एेसा ही सलूक किया था। इसी दौर में पूर्व प्रधानमंत्री  नरसिंह राव ने सीताराम केसरी को कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनवा कर उनसे जीतनराम जैसी परिस्थितयां झेली थी। शीर्ष स्तर पर ही  नहीं गांव - कस्बों तक में तपे - तपाए नेताओं को जीतनराम जैसी परिस्थितयां सपने में भी डराती है। मुझे याद है 1995 में पंचायत और नगरपालिका चुनावों में आरक्षण की शुरूआत हुई। तब कई दिग्गजों को मन मार कर अपने चुनाव क्षेत्रों के लिए आरक्षण के लिहाज से उम्मीदवार ढूंढने पड़े। अपने अनुभव के बल पर नौसिखिए उम्मीदवारों की जीत भी सुनिश्चित कर दी। लेकिन जल्द ही वे अपने बाल नोंचने लगे। जिस उम्मीदवार को चुन कर चुनाव में खड़ा कराया और अपनी जिम्मेदारी पर जनता से वोट देने की अपील की। उन्हीं के सामने कान पकड़ कर इसे अपने जीवन की बड़ी भूल बताने लगे। इसके बावजूद बहुत कम अपनी पुरानी जगह पहुंच सके। ज्यादातर के लिए उनकी तलाश भस्मासुर ही साबित हुए। 

नगरपालिका राजनीति के एक दिग्गज का चुनाव क्षेत्र अनुसूचित जनजाति उम्मीदवारों के लिए सुरक्षित हो गया। पार्टी के दबाव पर मन मार कर उन्होंने एक उम्मीदवार की तलाश की। जैसे - तैसे उसे जीता भी दिया। लेकिन जल्द ही मारे तनाव के  नेताजी सुगर - ब्लडप्रेशर दोनों के मरीज बन गए। कुरेदने पर बिफरते हुए नेताजी शुरू हो गए। अपनी तलाश को जीवन की भयंकर भूल बताते हुए  कहने लगे कि जनता उन्हें जानती है। जिनसे कह कर जिसे निर्वाचित करवाया, आज वही जनता उन्हें गालियां दे रही है। वजह जानने की कोशिश करने पर नेताजी ने अपनी भड़ास निकालते हुए कहा कि कमबख्त न कुछ समझता है न समझने की कोशिश करता है। तूफान पीड़ितों के मुआवजे की सूची बनी तो उसने उस पर हस्ताक्षर करने से यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि लाभार्थियों में उसके परिवार के सदस्यों को क्यों न शामिल किया जाए। जिद के आगे झुकते हुए सभासद की पतोहू का नाम लाभार्थियों में शामिल किया गया। पार्टी की सलाह को दरकिनार करते हुए सभासद पतोहू के साथ लाभ में  मिला समान रिक्शे पर लाद  कर घर पहुंचे। यह दृश्य देख उन्हें चुनाव जितवाने वाले तपे - तपाए नेता का ब्लड प्रेशर कई दिनों तक चढ़ा रहा। 

अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित एक अन्य चुनाव क्षेत्र के नेताजी का अनुभव तो और भी कड़वा रहा। अपनी आपबीती सुनाते हुए नेताजी ने कहा कि योग्य बता कर जिस नासमझ को निर्वाचित करवाया। उसकी कारस्तानी ने मुझे असमय ही दिल की मरीज बना दिया। क्योंकि वह अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं समझता था। जनता के उलाहने पर वह लोगों पर ही बरस पड़ता और उलटे सवाल करता कि क्या मैने आप लोगों से वोट मांगे थे। मैं तो इस पचड़े में पड़ना ही नहीं चाहता था। आप लोगों ने ही मुझे दबाव कर चुनाव लड़वाया। अब भुगतो। इस परिस्थिति में उसे क्षेत्र के परंपरागत उम्मीदवार पूरे पांच साल तक बेहद तनावग्रस्त रहे औऱ क्षेत्र के सामान्य श्रेणी में शामिल होने के बाद ही उनका उनसे पीछा छूटा। इसे देखते हुए मुझे राजनेताओं से सहानुभूति होने लगी है और समझ में आने लगा कि राजनीति में परिवारवाद इतना हावी क्यों है। 





तारकेश कुमार ओझा, 
खड़गपुर (पशिचम बंगाल) 
संपर्कः 09434453934 

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