बेशक, बिहार में सबकुछ ठीक था। निःसंदेह, उसके लिए नीतीश कुमार ने काफी मेहनत भी की। अराजकता की भेंट चढ़ चुका बिहार में फिर से सुशासन की नींव भी रखी। लोगों ने उन पर पूरा भरोसा कर दुबारा राजगद्दी भी सौंपी। लेकिन अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण उन्होंने बिहार को राजनीतिक भंवर में डाल दिया, इसमें कोई अतिश्योक्ति भी नहीं। मतलब साफ है अगर आज हालत बेकाबू है, पूरे देश में बिहार प्रहसन का विषय बन गया है, तो इसके लिए सिर्फ जीतन राम मांझी ही नहीं नीतीश कुमार भी बराबर के दोषी हैं और और हाईवोल्टेज राजनीतिक घटनाक्रम के बाद मांझी ने इस्तीफा दिया तो नीतिश फिर से मुख्यमंत्री बन गए। लेकिन माझी के साथ खड़ी भाजपा को बड़ा पुरस्कार तो नहीं मिला, लेकिन मकसद में वह कामयाब जरुर रही। कहा जा सकता है कि वह नीतीश का दलित विरोधी चेहरा बेनकाब करने में सफल रही है। क्योंकि नीतीश कुमार ने एक महादलित को मुख्यमंत्री बनाकर खुद को महिमामंडित कराया और बाद में जब वे रिमोट से संचालित होने से इन्कार कर दिए तो उन्हें हटाकर अपमानित करने का काम किया। और इसे आगामी चुनाव में बीजेपी यहकर भुनायेगी कि संकट के वक्त वह माझी के साथ रही। फिरहाल मांझी को जिस तरह हटाया गया उससे जदयू एक बड़े वोट बैंक से हाथ धोता हुआ दिख रहा है। यदि मांझी अपने पक्ष में उमड़ी सहानुभूति को देखते हुए अपना कोई दल गठित करते हैं तो वह कुल मिलाकर जदयू के लिए एक चुनौती ही बनेगा। जो भी हो, बिहार एक बार फिर जातिवादी राजनीति के कुचक्र में घिरता दिख रहा है। इस तरह की राजनीति किसी भी राज्य का भला नहीं कर सकती
ताजा माहौल में जीतन राम माझी ने बहुमत से पहले इस्तीफा यह कर दे दिया कि उनके समर्थकों को खतरा है। सवाल यह नहीं है कि उन्हें खतरा है या उनके समर्थकों को या संख्याबल में कमजोर पड़ गए। सवाल यह है कि जो सोचकर नीतिश ने महादलित कार्ड खेलकर माझी को मुख्यमंत्री बनाया अब मनचाहा न होने पर तीन-तिकड़म से उन्हें बेदखल कर खुद मुख्यमंत्री बन गए। मतलब माझी रबर स्टम्प नहीं बनना चाहते थे तभी तो नीतिश का सत्ता स्वाभिमान फिर से जाग उठा। इन सबके बीच जो हुआ या जो होने वाला है उसे किसी भी तरह जायज नहीं कहा जा सकता। पिछले नौ महीने से बिहार को लेकर नकारात्मक बातें ही सुनने को मिली हैं। हाल के घटनाक्रमों से न सिर्फ बिहार बदनाम हुआ, बल्कि राज्य के संपूर्ण राजनीतिक नेतृत्व की छवि धूमिल हुई है। बिहार के मतदाता इस बात को विधानसभा चुनाव के वक्त जरूर याद रखेंगे। जो भी इस उठापटक में बीजेपी को कही न कही से फायदा तो हुआ है। माझी को समर्थन देकर भाजपा ने संदेश दे ही दिया कि वह पीडि़तों के साथ तो है ही माहदलितों की भी शुभचिंतक है। कहा जा सकता है मांझी को जिस तरह हटाया गया उससे जदयू एक बड़े वोट बैंक से हाथ धोता हुआ दिख रहा है। यदि मांझी अपने पक्ष में उमड़ी सहानुभूति को देखते हुए अपना कोई दल गठित करते हैं तो वह कुल मिलाकर जदयू के लिए एक चुनौती ही बनेगा। भाजपा पहले से ही उसके लिए एक चुनौती बनी हुई है। इन सबके बीच बड़ा सवाल यही है कि चुनाव के दौरान जिस लालू यादव के जंगलराज की दुहाई देकर नीतिश मुख्यमंत्री बने थे अब उन्हीं के साथ मिलकर सुशासन की बात कर रहे है। खुद को राजनीतिक रूप से ताकतवर मान रहे है, लेकिन बिहार और साथ ही शेष देश लालू यादव को भ्रष्टाचार और कुशासन के पर्याय के रूप में ही देखता है। अच्छा तो यही होता कि नीतिश विधानसभा भंग कर फिर से चुनाव कराते, और जनता जो फैसला करती उसके अनुरुप चलते। फिरहाल इस मुद्दे के साथ-साथ मांझी फैक्टर चुनाव में हावी रहेगा, इसके संकेत मिलने लगे है।
इनसबके बीच विधानसभा चुनाव तक चाहे जो भी सियासी समीकरण बनें-बिगड़े, इतना तो तय है कि उनमें मांझी फैक्टर सबसे ऊपर होगा। नीतीश के दोबारा कुर्सी हासिल करने के रास्ते में मांझी ही वो मोहरा थे जिसका बीजेपी इस्तेमाल कर सकती थी। बीजेपी ने इसके लिए कोई कसर बाकी भी नहीं रखा। फ्लोर टेस्ट में मांझी को समर्थन देने के लिए बीजेपी के तैयार होने की वजह भी नीतीश को ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंचाना ही रहा। राजनीति के अखाड़े में सबसे बलवान वही होता है जिसके पास संख्या बल हो। सदन के भीतर विधायकों का सपोर्ट और बाहर जन समर्थन। फिलहाल मांझी के पास दोनों में से कोई भी नहीं था। पिछले लोकसभा चुनाव में भी मांझी को मुंहकी ही खानी पड़ी थी। आने वाले चुनावों में अगर मांझी, बीजेपी का साथ देते हैं फिर तो कोई बात ही नहीं। अगर मांझी बीजेपी से दूरी बनाए रहते हैं तो वो प्रत्यक्ष तौर पर पासवान को और परोक्ष रूप से बीजेपी को भी नुकसान ही पहुंचाएंगे। बीजेपी को भी पता है उसे अब फूंक-फूंक कर कदम रखना ही होगा। नीतीश को मांझी से अब कोई प्रॉब्लम नहीं है। मांझी को किनारे लगाने के लिए उन्हें एड़ी चोटी का जोर लगाना जरूर पड़ा लेकिन राजनीतिक फायदे के लिए नीतीश इसे भुला सकते हैं। अगर उन्हें लगता है कि मांझी का दूर जाना ज्यादा नुकसानदेह हो सकता है तो वो येन केन प्रकारेण चाहेंगे कि मांझी जेडीयू में बने रहें. हां, किसी भी मामले में नीतीश को अब उन पर भरोसा नहीं रहेगा। चुनावों में पहले तो मांझी खुद को शहीद साबित करने की कोशिश करेंगे. लोगों को समझाने की कोशिश करेंगे कि उनके साथ जो भी हुआ वो महज दलित होने के चलते हुआ। बात में दम भी है। दलित होने के कारण ही नीतीश ने उस वक्त मांझी को मुख्यमंत्री बनाया। बाद में दलित होने के नाते ही उन्हें कुर्सी छोड़ने के लिए मजबूर किया गया।
फिरहाल नौ महीने पुरानी मांझी सरकार के तौर-तरीके और उसके पतन की कहानी ने इतना साफ कर दिया है कि बिहार की राजनीति में अभी कई मोड़ आएंगे। आगे चुनाव है और सियासी झांकियों-झलकियों का क्लाइमेक्स अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। सदन में बहुमत साबित करने के ऐन पहले नाटकीय ढंग से मांझी के कुर्सी छोड़ देने के भविष्य में कई मायने हो सकते हैं। मांझी के शिल्प-शैली में अभी राजनीति की कई कहानियां लिखी जा सकती हैं। आने वाले दिनों में मांझी प्रकरण को भुलाया नहीं जा सकेगा। चुनावी साल और वोटों की सियासत में मांझी को हाशिये पर ढकेलना इतना आसान नहीं होगा। नीतीश कुमार राजनीति के चाणक्य हैं। मांझी के सहारे भाजपा की वार को वे किसी भी हाल में कुंद करना चाहेंगे। शायद नीतीश के मकसद और मंशा को भांप कर ही उनके विधायक मांझी के इस्तीफे की सूचना मिलते ही उत्साहित हो गए और विधानसभा परिसर में ही अपने वरिष्ठ नेता रमई राम को सर-आंखों पर बिठा लिया। राजनीतिक विश्लेषक इसे जदयू में एक और मांझी की तलाश की कोशिश मान रहे हैं। यह अलग बात है कि नई सरकार में रमई राम को उप मुख्यमंत्री से कम कोई पद नहीं चाहिए। अपनी खास शैली में बिहार में नौ महीने तक सरकार चलाकर जीतन राम मांझी खुद में भी एक हस्ती बन गए हैं। सत्ता में रहकर मांझी ने अपने बेबाक अंदाज और तथ्य-कथ्य से एक बड़े वर्ग को प्रभावित भी किया है। अब इतना तो तय है कि मांझी चाहे जिस खेमे में रहें, वे खुद में एक बड़े मांझी होंगे। विधानसभा चुनाव से पहले उनका अगला कदम क्या होगा, यह देखने लायक होगा। अपने कुनबे में विस्तार के लिए वे अपनी अलग पार्टी बना सकते हैं। भाजपा के साथ भी गठबंधन कर सकते हैं या विकल्पों के ओर दरवाजे भी खुले रख सकते हैं। बिहार की लगभग 20 प्रतिशत महादलितों की आबादी और जीतन राम मांझी के रूप में एक नए नेता के उभार ने भाजपा को सोचने पर मजबूर कर दिया है। दिल्ली विधानसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद भाजपा बिहार में फूंक-फूंक कर कदम रख रही है और यही वजह है कि किसी भी हाल में वह मांझी की ताकत को नजरअंदाज नहीं करना चाहेगी। मतलब साफ है कि हर हाल में भाजपा को मांझी का पतवार चाहिए। किसी वजह से अगर ऐसा नहीं हो सका तो जदयू की तरह भाजपा की भी कोशिश होगी कि वह अपने दल में ही मांझी जैसे किसी शख्स को आगे बढ़ाए, नेता बनाए। लोकसभा चुनाव में उदित राज को पार्टी में शामिल कर और रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा से गठबंधन कर भाजपा ऐसी ही कोशिश कर चुकी है।
लोकसभा चुनाव के बाद से जितने भी राज्यों में चुनाव हुए उनमें बिहार भाजपा के लिए सबसे अहम होगा। दरअसल बिहार कुछ मायनों में नाक की भी लड़ाई है। ऐसे में मांझी प्रकरण का अंत भाजपा के लिए आशा और आशंका दोनों लेकर आया है। नीतीश के महादलित वोटबैंक में सेंध लगाने की कोशिश सफल हो गई है। भाजपा ने यह फैसला किया था कि विश्वासमत के दौरान भाजपा विधायक मांझी का समर्थन करेंगे। जाहिर है कि अगले छह महीने में होने वाले चुनाव में इसका लाभ उठाने की कोशिश होगी। मांझी ने खुद ही इस्तीफा दे दिया, यह भाजपा के लिए और बड़ी राहत है। क्योंकि भाजपा कभी नहीं चाहती कि उनके समर्थन को मांझी सरकार के कामकाज पर मुहर के रूप में देखा जाए। मांझी सरकार बचती तो बड़ी आफत हो सकती थी। उस परिस्थिति में अगले छह महीनें तक भाजपा को मांझी सरकार के कामकाज की सफाई देनी होती। परोक्ष रूप से सरकार में न रहते हुए भी चुनाव के वक्त भाजपा के खिलाफ भी सत्ताविरोधी लहर हो सकती थी और इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है कि उसमें भाजपा का अपना वोटबैंक भी कुछ बिखर सकता था। सूत्रों की मानी जाए तो भाजपा को इसका संकेत पहले ही मिल गया था कि मांझी इस्तीफा दे सकते हैं। लेकिन यह आशा थी कि विधानसभा के अंदर दलित मुद्दों को उठाते हुए मर्मस्पर्शी भाषण देते, वह नहीं हुआ। भाजपा को यह कसक है। दिल्ली में यह दर्द भाजपा के कुछ नेताओं में दिखा भी। औपचारिक समीक्षा तो बाद में होगी लेकिन आशंका भी है कि छह महीने में नीतीश पार्टी से लेकर गठबंधन और विलय तक के मुद्दों को कहीं दुरुस्त न कर लें। भाजपा के नेता भी मानते हैं कि पार्टी में नीतीश के मुकाबले कोई सर्वमान्य चेहरा नहीं है। पुरानी दुश्मनी को भूलते हुए राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद ने नीतीश को चेहरा मान लिया है। अब जबकि वह सरकार में होंगे तो ऐसे कई अवसर हो सकते हैं जिसके जरिये महादलितों का विश्वास फिर से जीतने की कोशिश भी हो और विलय की प्रक्रिया भी आसान बनाई जा सके। गौरतलब है कि मांझी को भाजपा ने पूरे महादलित का नेता भले ही करार दिया हो, यह भी सत्य है कि महादलितों में भी हर कोई उन्हें अपना नेता नहीं मान सकता।
मांझी ने अपने संबोधन में एक बार फिर नीतीश कुमार पर निशाना साधकर बताने की कोशिश किया कि नीतीश यही चाहते थे कि वे जो चाहे वही हो। ऐसा दो महीने तक हुआ भी। मुझसे कहा गया कि आप सिर्फ कागजों पर दस्तखत कीजिए। कैबिनेट के मंत्रियों की सूची पर भी मैंने सिर्फ दस्तखत ही किया। मैंने सिर्फ ट्रांसफर की फाइलों पर साइन किया। वह गरीब हो सकते हैं, लेकिन धोखेबाज नहीं हैं। जनता कह रही है कि जदयू-राजद और कांग्रेस का दलित विरोधी गठबंधन बेनकाब हो गया है। माना जायेगा कि कांग्रेस-राजद और जदयू ने पिछड़ों-अति पिछड़ों, दलितों और महादलितों को सिर्फ वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जेपी, लोहिया और कर्पूरीजी जैसे जननायकों के नाम पर राजनीति करने वालों का इतिहास ही दलित विरोधी राजनीति का रहा है। आज भी सत्ता के लिए इनकी दलित विरोधी सियासत सामने आ रही है। इस नौटंकी में नौ महीने पहले भाजपा ने जद-यू में फूट डालने और उसके जरिये राजनीतिक संकट बढ़ाने में अपना फायदा देखा। उसकी निगाह में पहला लाभ संभवतः यह है कि नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री रहते अपनी पार्टी के लिए महादलित समुदाय का जो राजनीतिक समर्थन तैयार किया, मांझी के हुए कथित अपमान से उसमें सेंध लगने की संभावना है। मांझी ने महादलित कार्ड खेलते हुए ही पहले जद-यू नेतृत्व को दबाव में लाने की कोशिश की। इसमें विफल रहे तो भाजपा को अपने पीछे खड़े होने के लिए तैयार किया। बहरहाल, माझी के इस्तीफा बाद राष्ट्रपति शासन लागू करने की नौबत आई, तो मुमकिन है कि भाजपा का दांव उलटा पड़ जाए। अपनी अनियंत्रित जुबान और जातीय दांवपेच के कारण मुख्यमंत्री के रूप में मांझी जद-यू की परेशानी बन गए थे। ऐसी स्थिति का सामना भाजपा को भी करना पड़ सकता है।
भाजपा को इतनी कसक तो रह ही गयी कि जिस तरह पूरे प्रकरण में नीतिश का छीछालेदर वह चाहती थी नहीं हो पाया। क्योंकि बहुमत नीतीश के साथ था, लेकिन तय हुआ था कि राज्यपाल के अभिभाषण के बाद मुख्यमंत्री मांझी अपने विश्वास मत प्रस्ताव पर भाषण देंगे और उसके बाद इस्तीफा देने के लिए राजभवन जाएंगे। लोकसभा में अटल विहारी वाजपेयी ने भी ऐसा ही किया था। लेकिन अचानक मांझी ने इस्तीफा देकर सब गुड़गोबर कर दिया। बहरहाल, भाजपा की कोशिश मांझी के सहारे सिर्फ नीतीश कुमार-लालू प्रसाद यादव गठबंधन की फजीहत करवाने की थी। उसमें वह कुछ हद तक कामयाब रही, रामविलास पासवान के दलित आधार में अगर यह महादलित आधार भी जुड़ गया, तो यह काफी बड़ा वोट बैंक हो सकता है और नीतीश कुमार ने दलितों से महादलितों को अलग करके जो राजनीति की थी, उसकी यह काट भी हो सकती है। लेकिन यह देखना होगा कि महादलितों में मांझी का वास्तविक आधार कितना है और क्या मांझी को पद से हटाना महादलितों की अस्मिता का सवाल बन सकता है? मुख्यमंत्री बन जाने के बाद मांझी काफी महत्वाकांक्षी और मुखर हो गए और भाजपा ने उसी महत्वाकांक्षा को हवा दी। अब महत्वाकांक्षी और मुखर मांझी को भाजपा कैसे संभालती है, इसमें उसके राजनीतिक कौशल की परीक्षा है। भाजपा का स्वाभाविक आधार अगड़ी जातियों में है और वह नहीं चाहेगी कि मांझी की वजह से इसमें दरार आए। अगर नीतीश-लालू गठबंधन बरकरार रहता है, तो अगले विधानसभा चुनावों में भाजपा और उसके सहयोगियों के लिए कठिन चुनौती हो सकती है। नीतीश के लिए चुनौती यह है कि वह गठबंधन को भी बनाए रखें और सुशासन की अपनी छवि को भी।
राष्ट्रपति शासन लगा तो अपने को अन्याय का शिकार बताकर नीतीश कुमार जनता के बीच भाजपा के लिए कठिन प्रश्न खड़े कर सकते हैं। अगर नीतीश कुमार की मुख्यमंत्री के रूप में वापसी हुई तो वही होगा, जो नीतीश चाहते थे। उनका दांव अरविंद केजरीवाल की तर्ज पर खुद को बेहतर विकल्प के रूप में पेश करते हुए चुनाव में पलड़ा अपनी तरफ झुकाने पर है। आरजेडी, कांग्रेस, सीपीआई आदि को साथ लेकर वे भाजपा विरोधी व्यापक गठबंधन बनाने की तैयारी में हैं। बहरहाल, सत्ता में होने का नुकसान उनके साथ होगा। असल में भाजपा इसका लाभ उठाने की रणनीति पर चलती, तो शायद उसके लिए ज्यादा फायदे की बात होगी, लेकिन मांझी के दांवपेच में शामिल होकर उसने बड़ा जोखिम लिया है, जिसका परिणाम अनिश्चित है। मांझी का व्यक्तित्व भी भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी कर सकता है। वे मांगों की सूची रखकर भाजपा को परेशान कर सकते हैं। भाजपा को उन्हें लेकर सतर्कतापूर्वक आगे बढ़ना होगा। बिहार की जनता देख रही है कि ये लोग कैसे सत्ता के लिए महादलित का अपमान कर रहे हैं। भाजपा दलितों के अपमान का विरोध कर रही है, दलित हितों की बात कर रही है तो नीतीश कुमार कह रहे हैं कि बिहार की पांच में चार पार्टियां उनके साथ हैं। भाजपा ने बता दिया कि नीतिश के साथ चार पार्टियां हों या चालीस, भाजपा दलितों-महादलितों का अपमान बर्दाश्त नहीं करेगी। समर्थन समाज के गरीब, पिछड़े-अति पिछड़े, महादलित जैसे वंचित तबकों के पक्ष में है। भाजपा का विरोध बिहार को बर्बाद करने वाली नीतियों, अराजकता और तानाशाही शासन से है।
बिहार में कुल 38 सुरक्षित सीटें हैं। मांझी चाहें तो इन्हीं पर फोकस करें और इनमें से ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतकर बार्गेन लायक स्थिति बना लें। पिछले चुनाव में इनमें से 19 जेडीयू को, 18 बीजेपी को और एक आरजेडी को मिली थीं। दलितों को एकजुट करने के लिए मांझी अपने हथकंडे भी अपनाते रहते हैं। पटना के एक हॉस्टल में मांझी कहा था दलित छात्रों को जात-पात से उपर उठकर अंतरजातीय विवाह करना चाहिए। अगर हमें एक बड़ी राजनीतिक ताकत बनना है तब हमें अपनी जनसंख्या को 16 से बढ़ाकर 22 फीसदी करनी होगी। मांझी के पास खुद को दलितों का सबसे बड़ा नेता साबित करने की चुनौती होगी। नौ महीने के शासन के दौरान मांझी ने नौकरशाहों और विधायकों के बीच दलितों की आवाज बन कर उभरने की पूरी कोशिश की। अपनी कैबिनेट से उन्होंने पासवान बिरादरी को महादलित में शामिल कर एक ही साथ नीतीश कुमार और लोक जनशक्ति नेता राम विलास पासवान दोनों पर निशाना साधा। अब मांझी के फैसले किसी भी वजह से हकीकत भले ही न बन पाएं लेकिन दलित हितों के लिए काम करने का उनका दावा पुख्ता तो होता ही है।
जीतनराम मांझी की सरकार को समर्थन देकर भाजपा ने स्पष्ट किया है कि वह नीतीश कुमार को दोबारा मुख्यमंत्री पद की कुर्सी पर नहीं आने देना चाहती। भाजपा की ओर से जीतनराम को समर्थन देने के फैसले के बाद नीतीश कुमार को नए सिरे से यह कहने का मौका मिला है कि बिहार में जो कुछ हो रहा है उसके पीछे भाजपा है, लेकिन अब जब वह विपक्ष का नेता बनने के लिए तैयार हो गए हैं तो फिर उन्हें उसी भूमिका का निर्वाह करना चाहिए। फिलहाल यह कहना कठिन है कि भाजपा को जीतनराम को समर्थन देने के बदले अपेक्षित राजनीतिक लाभ मिलेगा ही। उसकी रणनीति जोखिम भरी नजर आ रही है। नीतीश कुमार को मात देने के लिए जीतनराम मांझी पर दांव लगाना उसे महंगा भी पड़ सकता है। यह सही है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद जीतनराम महादलितों के नेता के रूप में उभर आए हैं और यह किसी से छिपा नहीं कि पिछले कुछ समय से वह एक के बाद एक फैसलों के जरिये अपने वोट बैंक को मजबूत करने का काम कर रहे हैं, लेकिन इस बारे में सुनिश्चित नहीं हुआ जा सकता कि वह आगामी विधानसभा चुनाव तक भाजपा के साथ बने ही रहेंगे और उसी के हिसाब से शासन करेंगे। जीतनराम अपने विचित्र बयानों के लिए भी जाने जाते हैं। अभी तक उनके ऐसे बयानों के लिए उन्हें निशाना बनाती रही भाजपा को अब उनका बचाव करना होगा। बिहार में जैसे राजनीतिक हालात उभर आए हैं उसे देखते हुए उचित यही होगा कि वहां जल्द से जल्द नए सिरे से विधानसभा चुनाव हों। एक के बाद एक राजनीतिक प्रयोग बिहार के विकास को बाधित करने का काम कर सकते हैं। यह ठीक नहीं कि पहले नीतीश कुमार ने लोकसभा चुनाव में हार की कथित जिम्मेदारी लेते हुए मांझी को आगे कर एक प्रयोग किया और फिर जब इससे भी बात नहीं बनी तो उन्होंने लालू प्रसाद से हाथ मिलाकर दूसरा प्रयोग किया। अब भाजपा भी एक नया प्रयोग करती दिख रही है। अपने-अपने राजनीतिक समीकरणों को दुरुस्त करने के लिए ऐसे प्रयोग करते समय यदि सुशासन को सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं दी जाती तो इससे कुल मिलाकर आम जनता के हितों की अनदेखी ही होती है। बेहतर हो कि एक दूसरे को मात देने के फेर में सक्रिय राजनीतिक दल इस पर विशेष ध्यान दें कि राज्य की जनता क्या चाहती है? नीतीश कुमार खुद मानते हैं कि उत्तराधिकारी के चयन में उनसे गलती हो गई। बहरहाल खराब कानून-व्यवस्था को लेकर बिहार की फिर से चर्चा शुरू हो गई। दूसरे मोर्चे पर भी बिहार की आलोचना शुरू है। विधानसभा चुनाव में जब सिर्फ आठ माह शेष रह गए हों, ऐसे समय में मुख्यमंत्री की कुर्सी किसी चुनौती से कम नहीं। कानून-व्यवस्था, शासन-व्यवस्था दुरुस्त करने, अधिकारियों पर नियंत्रण रखने से लेकर अपनी पार्टी को भी ठीक रखना होगा। जीतन राम मांझी के जाने से उनके वोट बैंक में ठीक-ठाक सेंध लग गई है। उसे ठीक करने की चुनौती है, तो लालू फैक्टर भी है। उसी लालू के शासन के विरोध में 2005 में चुनाव जीत कर आए थे। राजनीतिक मजबूरी ने एक साथ ला खड़ा किया है। देखना यह कि इंजीनियरी की पढ़ाई करने वाले नीतीश इन नई चुनौतियों से निपटने के लिए कौन सी इंजीनियरिंग करते हैं। अभी जनता परिवार के विलय का टास्क भी शेष है। नीतीश कुमार, को सरकार बनाने का निमंत्रण मिला है। फिर उनको सदन में बहुमत साबित करना होगा। चूंकि नीतीश कुमार जुगाड़ तकनीक में माहिर हैं, इसलिए खरीद-फरोख्त में इनका कोई जोड़ नहीं। यह भी संभव है वे सदन में बहुमत साबित भी कर दें, पर उन्होंने बिहार को राजनीतिक अस्थिरता के दौर में धकेल दिया है। उनकी वजह से डेढ़ साल में बिहार को चार-चार मुख्यमंत्री देखना पड़ेगा।
जो भी जिस तरह नीतिश ने शक्ति प्रदर्शन कर चैथी बार मुख्यमंत्री बने है और उनके शपथ ग्रहण समारोह में जनता परिवार के नेताओं के अलावा जिस तरह ममता बनर्जी से लेकर तरुण गोगोई तक शामिल हुए उससे ऐसा लगता है कि भाजपा विरोधी मोर्चे को और मजबूत करने की कोशिश की जा रही है। इस कोशिश के परिणाम सामने आने में समय लगेगा। इसलिए और भी, क्योंकि अतीत में इस तरह के जो भी प्रयास हुए हैं वे असफल ही अधिक साबित हुए हैं। नीतीश कुमार ने शपथ ग्रहण के पहले यह स्पष्ट किया कि करीब नौ माह पहले उन्होंने मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देकर गलती की थी, लेकिन इसमें संदेह है कि आम जनता उनकी इस गलती को स्वीकार कर लेगी, क्योंकि जिस समय उन्होंने मुख्यमंत्री पद छोड़ा था तब उन्होंने यह कहा था कि वह नैतिकता के आधार पर कुर्सी छोड़ रहे हैं। अच्छा हो कि जदयू की ओर से कोई यह स्पष्ट करे कि सच्चाई क्या है? उन्होंने गलती की थी या नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दिया था? अच्छा होता कि वह उस तरह का कोई उदाहरण पेश करते जैसा कर्नाटक के मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े ने पेश किया था। 1984 में लोकसभा चुनावों में बुरी तरह पराजित होने के बाद उन्होंने इस्तीफा देने के साथ ही राज्य विधानसभा के चुनाव नए सिरे से कराना पसंद किया था। वह फिर से चुनाव जीतने में भी कामयाब हुए थे और अपनी राजनीतिक ताकत को रेखांकित करने में भी। इसके विपरीत नीतीश कुमार ने अपनी सारी ताकत अपने ही द्वारा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाए गए जीतनराम मांझी को हटाने में लगा दी और वह भी यह स्पष्ट किए बगैर कि आखिर वह ऐसा क्यों कर रहे हैं? चंद दिनों पहले तक जदयू के सभी नेता जीतनराम मांझी की वाहवाही करने में लगे थे। कोई नहीं जानता कि अचानक ऐसा क्या हुआ कि उनमें खामियां ही खामियां नजर आने लगीं। कहीं यह सब राजद से हाथ मिलाने का परिणाम तो नहीं? यदि मांझी अपने पक्ष में उमड़ी सहानुभूति को देखते हुए अपना कोई दल गठित करते हैं तो वह कुल मिलाकर जदयू के लिए एक चुनौती ही बनेगा। भाजपा पहले से ही उसके लिए एक चुनौती बनी हुई है। भले ही नीतीश कुमार राज्य के विकास को लेकर बड़े-बड़े दावे कर रहे हों, लेकिन इसमें संदेह है कि वह अगले पांच-छह महीनों में अपनी उस छवि को फिर से हासिल कर सकेंगे जो उन्होंने अपने कार्यकाल के प्रारंभ में अर्जित की थी और जिसके चलते देश में यह विश्वास पैदा हुआ था कि बिहार पटरी पर लौट रहा है।
सुरेश गांधी
लेखक आज तक टीवी न्यूज चैनल से संबद्ध है
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