राजसत्ता के लिए राजनेताओं को लुभाने वाली देश की बदहाल हिंदी पट्टी अपने भीतर अनेक विशेषताएं समेटे हैं तो कमियां भी। पता नहीं क्यों यह वैकुंठगमन के बाद स्वर्गवासी माता - पिता की सामर्थ्य से काफी बढ़ कर श्राद्ध करने और बच्चों की धूम - धाम से शादी करने में जीवन की सार्थकता ढूंढती है। अगर आपने बच्चों की शादी पर दिल खोल कर खर्च किया या स्वर्ग सिधार चुके निकट संबंधियों के श्राद्ध में पितरों को तृप्त करने में कोई कसर नहीं रहने दी। श्राद्ध भोज पर सैकड़ों लोगों के भोजन की व्यवस्था की। महापात्र को अपनी क्षमता से कई गुना अधिक दान दिया। पंडितों को गमछा और ग्लास के साथ 11 रुपए की जगह अपेक्षाकृत मोटी रकम पकड़ाई। साथ ही गृहस्थी में काम आने लायक कोई अन्य सामान भी दिया तो अाप एक सफल आदमी है । इसके विपरीत यदि आप दिखावा पसंद नहीं करते। व्यक्तिगत सुख - दुख को अपने तक सीमित रखना चाहते हैं तो आप ...।
इस बदहाल हिंदी पट्टी के दो बड़े राजनेताओं के बच्चों की बहुचर्चित शादी को ले पता नहीं क्यों मेरे अंदर कुछ एेसे ही सवाल उमड़ने - घुमड़ने लगे। हालांकि इस शादी की भव्यता पर मुझे जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ। क्योंकि यह इस क्षेत्र की विशेषताओं में शामिल है। आपसे एेसी ही उम्मीद की जाती है। धन कहां से आया यह महत्वपूर्ण नहीं बस शादी अच्छी यानी भव्य तरीके से होनी चाहिए। शादी में कितना खर्च हुआ और कितने कथित बड़े - बड़े लोग इसमें शामिल हुए , यह ज्यादा महत्वपूर्ण है। जिस घर में दर्जनों माननीय हों , बेटा मुख्यमंत्री तो पतोहू देश के सर्वोच्च सदन में हो, उसके घर की शादी में इतना तो बनता है। क्योंकि मूल रूप से उसी क्षेत्र का होने से मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि कई मायनों में अभिशप्त हिंदी पट्टी की सामान्य शादियों में ही लाखों का खर्च और सैकड़ों लोगों का शामिल होना आम बात है। इस संदर्भ में जीवन की एक घटना का उल्लेख जरूर करना चाहूंगा। कुछ साल पहले एक नजदीकी रिश्तेदार की शादी में मुझे अपने पैतृक गांव जाना पड़ा था। आयोजनों से निवृत्त होने के बाद वापसी की तारीख तक समय काटने की मजबूरी थी। लेकिन 12 घंटे की बिजली व्यवस्था के बीच भीषण गर्मी ने मेरा हाल बेहाल कर दिया। एक - एक पल काटना मुश्किल हो गया। आखिरकार मेजबान ने मुझ जैसे शहरी आदमी की परेशानी को समझा और समय काटने के लिहाज से एक अन्य संबंधी के यहां पास के गांव में आयोजित एक तिलक समारोह में चलने की दावत दी।
जोर देकर बताया गया कि दुल्हे के पिता बिजली विभाग में है और खाने - पीने की बड़ी टंच व्यवस्था की गई है। मरता क्या न करता की तर्ज पर न चाहते हुए भी मैं वहां जाने के लिए तैयार हो गया। लेकिन पगडंडियों पर हिचकाले खाते हुए हमारे वाहन के आयोजन स्थल पहुंचते ही मेरे होश उड़ गए। क्योंकि वहां का नजारा बिल्कुल सर्कस जैसा था। 12 घंटे की तत्कालीन बिजली व्यवस्था के बीच भी उत्तर प्रदेश के चिर परिचित जैसा वह पिछड़ा गांव दुधिया रौशनी से नहा रहा था। इसके लिए कितने जेनरेटरों की व्यवस्था करनी पड़ी होगी, इसका जवाब तो आयोजक ही दे सकते हैं। बड़े - बड़े तंबुओं के नीचे असंख्य चार पहिया वाहन खड़े थे। किसी पर न्यायधीश तो किसी पर विधायक और दूसरों पर भूतपूर्व की पदवी के साथ अनेक पद लिखे हुए थे। मंच पर आंचलिक से लेकर हिंदी गानों पर नाच - गाना हो रहा था। माइक से बार - बार उद्घोषणा हो रही थी कि भोजन तैयार हैं ... कृपया तिलकहरू पहले भोजन कर लें। इस भव्य शादी के गवाह मैले - कुचैले कपड़े पहने असंख्य ग्रामीण थे, जो फटी आंखों से मेजबान का ऐश्वर्य देख रहे थे।
यह विडंबना मेजबान को असाधारण तृप्ति दे रही थी। मैं समझ नहीं पाया कि एक सामान्य तिलक पर इतनी तड़क - भड़क औऱ दिखावा करना आखिर मेजबान को क्यों जरूरी लगा। आखिर यह कौन सी सामाजिक मजबूरी है जो आदमी को अपने नितांत निजी कार्यक्रमों में तथाकथित बड़े लोगों की अनिवार्य उपस्थिति सुनिश्चित करने को बाध्य करती है। दिमाग में यह सवाल भी कौंधने लगा कि जिस सामाजिक व्यवस्था में शौचालय के लिए कोई स्थान नहीं है । सुबह होते ही सैकड़ों बाराती शौच के लिए खुले खेतों में जाते हैं। कोई सामुदायिक भवन नहीं । इसके चलते बारातियों का खुले में खाना - पीना होता है। जिसे असंख्य स्थानीय भूखे - नंगे बच्चे ललचाई नजरों से देखते - रहते हैं। क्या एेसी भव्य शादियां करने वालों को यह विसंगतियां परेशान नहीं करती। यही सोचते हुए मैं उस तिलक समारोह से लौटा था।
तारकेश कुमार ओझा,
खड़गपुर (पशिचम बंगाल)
संपर्कः 09434453934
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