विशेष : यूपी बजट में दिखा 2017 के फतह की झलक - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

विशेष : यूपी बजट में दिखा 2017 के फतह की झलक

जी हां, यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का बजट आम गरीब जनता, किसान व व्यापारियों के लिए कुछ खास तो नही, लेकिन माफिया जनप्रतिनिधियों व उनसे सांठ-गांठ रखने वाले अधिकारियों को योजनाओं का बंदरबांट कर तिजोरी भरने का पूरा मौका जरुर है। क्योंकि ये माफिया जनप्रतिनिधि व आईएएस अमृत त्रिपाठी, आईपीएस अशोक शुक्ला व दर्जनों लूट, हत्या व डकैती में शामिल इंस्पेक्टर संजयनाथ तिवारी, यादव सिंह सहित तमाम भ्रष्ट अधिकारियों को कमाने के लिए बजट में अच्छी-खासी धन का प्राविधान है। मतलब साफ है, जैसा कि हर कोई जानता है सड़क, पुल, लैपटाॅप, कन्या विद्याधन, मेट्रो और एक्सप्रेस-वे सहित अन्य निर्माण कार्यो में कुल योजना का 25 फीसदी भी हिस्सा मानक के अनुरुप नहीं खर्च होता। इन योजनाओं का 75 फीसदी रकम सरकारी कल-कारखानों व ठेकेदारी में जुटे माफिया जनप्रतिनिधि व भ्रष्ट अधिकारियों की भेंट चढ़ जाता है। इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है कि निर्माण के कुछ ही दिन बाद गुणवत्ता व मानके के अभाव में न सिर्फ उखड़ जाते है बल्कि काफी हद तक तहस नहस भी हो जाते है। घोटालों का जिक्र करेंगे तो पूरी किताब ही लिख उठेगी। किसी भी सूबे का विकास व युवाओं को रोजगार कल-कारखानों, नए-नए उद्योगों के खुलने या रोजगार के अवसर उपलब्ध करने से होता है जो इस बजट में नदारद है। बजट में अगले चुनावों की तैयारी के संकेत भी बेहद स्पष्ट हैं   

akhilesh budjet
यह सही है कि देश के सबसे बड़ा सूबा यूपी के बजट में सरकार ने कोई नया टैक्स तो नहीं लगाया, लेकिन बजट का बड़ा हिस्सा पार्कों और दूसरे गैर जरूरी मदों को देकर माफिया जनप्रतिनिधियों, ठेकेदारों, व लूटेरा हो चुके पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों को योजनाओं का बंदरबाट व लूट खसोट का पूरा मौका जरुर दिया गया है। जहां तक वर्ष 2013-14 में प्रदेश की विकास दर पांच प्रतिशत बढ़ा है जो देश की विकास दर 4.7 फीसदी से अधिक है, के दावे का सवाल है तो इसकी सच्चाई मौके के हालात खुद बया कर रही है। हां, विकास हुआ है तो भ्रष्ट अधिकारियों व माफिया जनप्रतिनिधियों का, जो इनके काले कारनामों का काला चिठ्ठा खोले या आवाज उठाई उसके खिलाफ कही फर्जी मुकदमें दर्ज कर घर-गृहस्थी लूट लिया गया या साजिश के तहत दंगा कराकर उनकी आवाज को बंद करने की कोशिश की गयी। बजट में योजनाओं की राशि बढ़ाने का मकसद सिर्फ इतना है कि अपने हिस्से का ज्यादातर हिस्सा दे चुकी केंद्र और वित्तीय संस्थाओं के मिलने वाले लोन को दुगुना किया जा सके, क्योंकि जब योजनाओं में राशि रहेगी तभी तो इनके अलंबरदार अधिकारी व माफिया जनप्रतिनिधियों को बंदरबांट का मौका मिलेगा। लैपटाप देने से बेहतर है इस राशि को ऐसे बच्चों पर खर्च किया जाता जो शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। उनके बीच में यह पैसा बांटा जाता या सुविधाएं मुहैया कराई जाती तो ज्यादा अच्छा होता। इस बजट से आम गरीब जनमानस का कोई लेना देना नहीं है, सिर्फ सरकार अपने भ्रष्टाचारी कलपूर्जो का ख्याल रखा है। राजधानी को छोड़ दें तो बाकी बड़े शहरों को ठेंगा ही दिखाया गया है। पूर्वांचल के लिए तो कुछ भी खास नहीं है। जबकि स्वास्थ्य और शिक्षा के नए संस्थानों की सख्त जरूरत थी। जबकि प्रदेश को माफियाओं के साथ मिलकर लूट रहे पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों पर नकेल कसने का कोई प्राविधान नहीं है। 

किसान केंद्रित वर्ष होने के बावजूद बजट का लगभग 3.9 फीसदी हिस्सा ही किसानों से सीधा जुड़ता है। विशेषज्ञों का कहना है कि इसका किसानों की सेहत पर कोई सीधा फर्क नहीं दिखता है। गन्ना मूल्य भुगतान से लेकर धान की खरीद तक में मार खा चुके किसान के लिए बजट में लगभग 12465 करोड़ रुपये आए हैं। विशेषज्ञ कहते हैं कि इसमें 11484 करोड़ रुपये नॉन प्रोडक्टिव मद में है। ऐसे में परेशान किसान की मुस्कान की कोई वजह बनती नहीं दिखाई देती है। पिछले साल के गन्ना मूल्य का अब तक भुगतान नहीं हो सका है जबकि बजट में महज 1596 करोड़ रुपये इसके लिए रखे गए हैं। 7000 करोड़ रुपये गांवों में 16 घंटे और खेती के लिए 8 घंटे बिजली पर खर्च होंगे। सीधे तौर पर यह पैसा भी कृषि के खाते में न होकर ऊर्जा के खाते में जाता है। चीनी मिलों की स्थापना से लेकर सहकारी बैंक खोलने के प्रस्ताव भी फौरी राहत के रास्ते नहीं दिखाते। किसान वर्ष कहना सबसे बड़ा मजाक है। कुल राज्य आय का महज 1 फीसदी खेती पर खर्च हो रहा है। गांवों में 16 घंटे और खेती के लिए 8 घंटे बिजली के विभेद का आधार भी साफ नहीं है। ग्रामीण विकास के नाम पर कृषि का बजट मारा जाता है जबकि दोनों में बुनियादी अंतर है। बजट में कोई नया कृषि निवेश नजर नहीं आता। पिछले वर्ष उनकी सरकार ने गेहूं और धान के खरीद केन्द्रों से एक दाना नहीं खरीदा गया। बजट में पहली बार किसानों पर बात हुई है। नई मंडी, दो कृषि विश्वविद्यालय, एक हजार किसान सेंटर का जिक्र है लेकिन कोल्ड चेन और भंडारण की व्यवस्था पर बजट में बात नहीं है। यह बड़ी समस्याओं में है। इस पर सरकार को ब्लू प्रिंट रखना होगा। बजट में बंधक रखकर कर्ज लेने वाले किसानों का 1779 करोड़ रूपये का कर्ज माफ करने की बात सिर्फ दिखावा क्योंकि अभी तक गन्ना किसानों को भुगतान नहीं हुआ है। 

बजट की शुरुआत ही असत्य पर आधारित है। लघु उद्योग शुरू करने के लिए सरकार युवाओं को प्रोत्साहित नहीं कर रही है। बीते वित्तीय वर्ष में सरकार न आमदनी बढ़ा सकी है और न ही योजनाओं की धनराशि को ही खर्च कर सकी है। पिछले बजट का बड़ा हिस्सा अभी खर्च होने का इंतजार कर रहा है। 2013-14 में सरकार ने राजस्व प्राप्तियों का अनुमान 2.70 लाख करोड़ रखा था। इसे भी बाद में रिवाइज कर सरकार को 2.58 लाख करोड़ करना पड़ा। भू राजस्व का अनुमान आधा करना पड़ा। स्टांप और रजिस्ट्रेशन से लेकर बिक्री कर में सरकार को प्राप्तियों के अनुमान घटाने पड़े हैं। अपने ही बजट में प्राप्तियों में लक्ष्य से पीछे रहने के बावजूद इस बार सरकार ने अनुमान बढ़ाकर 2.96 लाख करोड़ कर दिया है। ऐसे में सरकार का नया दावा भी सवालों के घेरे में है। मतलब साफ है सरकार ने इस बजट में उन्हीें योजनाओं की धनराशि बढ़ाई है, जिसमें 75 फीसदी से अधिक राशि आसानी से डकारी जा सके। इन भ्रष्ट अधिकारियों व माफिया जनप्रतिनिधियों की कमाई बढ़ाने के लिए ही कई विभागांे का लक्ष्य सिर्फ इसलिए बढ़ा दिया गया है कि जब पैसा रहेगा तभी तो लूट सकेंगे। शायद इसीलिए नौ हजार 388 करोड़ रुपये की नई योजनाओं के साथ ही एक्सप्रेस वे, मेट्रो और इंटरनेशनल स्टेडियम पर झोली खोल दी गई है। सेहत और सुरक्षा व्यवस्था के बिन्दुओं पर कड़ी मोर्चेबन्दी जरुर दिखती है। अकेले लखनऊ में सरकार इनसे जुड़े प्रोजेक्ट्स पर करीब 5000 करोड़ रुपये खर्च करने की योजना बनाई है। चुनावी हवा को भांपते हुए लैपटॉप योजना में हाई स्कूल के छात्रों की एंट्री कर वाहवाही लूटने का प्रयास किया गया है। 

विकास दर देश की विकास दर से अधिक बताई है, जबकि देश की विकास दर 6.9 फीसदी है। गरीबों, पिछड़ों और दलितों को कुछ नहीं दिया गया है। बजट में विकास केवल सैफई के आस-पास ही घूमता नजर आ रहा है। बजट भाषण में सिर्फ लोक लुभावने वादे किए गए हैं। वादों को पूरा करने के लिए सरकार धन कहां से लाएगी, इसका उल्लेख बजट में नहीं किया गया है। बजट में औद्योगिकीकरण, चिकित्सा, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के लिए किसी प्रकार का कोई भी पर्याप्त प्राविधान नहीं किया गया है। बजट के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सरकार जनता और उद्यमियों पर और बोझ डाल सकती है। कर वसूली के ज्यादातर लक्ष्यों में राज्य सरकार फेल रही है। उद्यमियों के लिए बजट में कुछ खास ऐलान नहीं किया गया है। पावर सेक्टर में 26 हजार करोड़ रुपये खर्च करने की बात कही है। डिस्ट्रीब्यूशन और ट्रांसमिशन पर भी फोकस किया है। सरकार अपने दम पर यह नहीं कर सकती है। इसके लिए उसे पीपीपी मोड पर जाना होगा, ऐसे में प्राइवेट पार्टनर्स की जरूरत होगी। फिलहाल बजट में इसके लिए इंतजाम नहीं है। मुस्लिम वक्फ विभाग के लिए सरकार ने बजट में नई योजना को शामिल नहीं किया है लेकिन पिछले साल की अपेक्षा बजट करीब 81 करोड़ रुपये अधिक का है। इस बजट में विभाग को 2776 करोड़ रुपये आवंटित हुए हैं। अल्पसंख्यक समुदाय के छात्रों की छात्रवृत्ति एवं फीस प्रतिपूर्ति 977 करोड़ रुपये। मदरसा आधुनिकीकरण योजना के लिए 285 करोड़ रुपये। कब्रिस्तानों की बाउंड्री कराने के लिए 200 करोड़ रुपये। 146 नए आलिया स्तर के स्थाई मान्यता प्राप्त मदरसों को अनुदान के लिए 42 करोड़ रुपये का प्राविधान है। सरकार का बजट आंकड़ों की साइकल पर सवार होकर किसान वर्ष की मुनादी कर रहा है। हालांकि, कानों को दूर से लुभा रही यह साइकल की घंटी नजदीक से पर्दे फाड़ती ही नजर आती है। 

दिखाए गए आंकड़ों में 778 करोड़ राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, 600 करोड़ किसान दुघर्टना बीमा योजना और 180 करोड़ राष्ट्रीय फसली बीमा योजना के हैं जो केंद्र की योजनाओं के हैं। इसलिए उत्पादकता बढ़ाने और किसानों को फसल के बेहतर दाम की कवायदें बजट में कमजोर ही नजर आती हैं। विकसित देश जीडीपी का 12 से 15 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं। यूपी में स्वास्थ्य में जीडीपी का मात्र 1.2 प्रतिशत ही खर्च किया जा रहा है। जब तक यह बढ़कर 8 से 10 प्रतिशत नहीं होगी तब तक सुधार होना सम्भव नहीं है। मुख्यमंत्री ने अक्टूबर, 2016 में गांवों और शहरों में अधिक बिजली सप्लाई का जो लक्ष्य रखा है। उसमें निजी क्षेत्र पर निर्भरता ज्यादा है। निजी क्षेत्र की कंपनियां जिन प्रोजेक्ट्स पर काम कर रही हैं। वो तय समय के भीतर पूरा होने की उम्मीद कम ही है। प्रदेश सरकार को जिन यूनिट्स से बिजली मिलने की उम्मीद है। उनसे बिजली निकासी के लिए ट्रांसमिशन लाइन बनाने का काम निजी कंपनियों को दिया गया है। इनमें से ज्यादातर ट्रांसमिशन लाइनें तय समय के भीतर नहीं बन पाएगी। इसके अलावा 765 केवी, 400 केवी के ट्रांसमिशन उपकेन्द्रों का निर्माण 2016 तक पूरा होना बहुत ही मुश्किल है। 

गोमती और मेट्रो के लिए अच्छा बजट तो दिया गया लेकिन हकीकत में इतने बजट के बाद भी इन प्रॉजेक्ट्स की नैया पार लगना मुश्किल है। मेट्रो के प्रियोरिटी सेक्शन पर टीपी नगर से चारबाग तक पियर्स से लेकर गर्डर ढालने तक का काम तेजी पकड़ चुका है। ऐसे में सिविल वर्क में कोई रुकावट न हो इसके लिए सरकार ने 450 करोड़ रुपये का बजट दिया। इस बीच मार्च के अंत तक मेट्रो के डिब्बे (रोलिंग स्टॉक) और सिग्नलिंग के लिए करीब एक हजार रुपये का टेंडर होना है। ऐसे में प्रॉजक्ट के सिविल वर्क के बाद बजट के लिए केंद्र और वित्तीय संस्थाओं से लोन का ही सहारा होगा। मेट्रो के लिए अभी पीएसी 32वीं वाहिनी में डिपो का टेंडर भी होना है। सरकार प्रियोरिटी सेक्शन पर दिसंबर 2016 तक मेट्रो चलाने का दावा कर रही है। ऐसे में सिविल वर्क पूरा होने के बाद सबसे अहम रोलिंग स्टॉक और सिग्नलिंग का टेंडर होगा। एलएमआरसी ने अपने टेंडर डॉक्यूमेंट में इसके लिए 66 हफ्ते यानी करीब 13 महीने में रोलिंग स्टॉक (मेट्रो के डिब्बे) और सिग्नलिंग का काम करने की शर्त रखी है लेकिन कंपनियां इसके लिए करीब दो साल का समय चाहती हैं। ऐसे में टेंडर में होने वाली देर सरकार की ओर से तय टाइमलाइन पर भी पड़ेगी। माना जा रहा है यह 3 लाख करोड़ का बजट में सपाई माफिया जमकर बंदरबांट करने के साथ ही वर्ष 2017 में होने वाले चुनाव खर्च की राशि की भरपाई अभी से कर लेंगे। हालांकि लैपटॉप-कन्या विद्याधन योजना सहित कुछ योजनाओं का बजट सही भी है, क्योंकि इसमें माफिया जनप्रतिनिधियों व भ्रष्ट अधिकारियों की दाल नहीं गल पायेगी। राज्य की विकास दर 5 फीसदी तो बताया गया है, लेकिन विकास यादव सिंह जैसे अधिकारियों व बाहुबलि विधायकों व सपा ठेकेदारों के सिवाय किसी का नहीं। बजट में सिर्फ लोक-लुभावने वादों के सिवाय कुछ भी नहीं है। 






सुरेश गांधी 
लेखक आज तक टीवी न्यूज चैनल से है 

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