बेटी की बलि ही क्यूँ? - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 8 मार्च 2015

बेटी की बलि ही क्यूँ?

हाल ही में निर्भया कांड का एक प्रमुख आरोपी मुकेश ने जिस निर्लज्जता से घटना के लिए निर्भया को ही ज़िम्मेदार ठहराया, वह किसी भी सभ्य समाज के मुंह पर एक करारा तमाचा है. फांसी के फंदे का इंतज़ार कर रहे इस आरोपी का बयान दरअसल हमारे घिनौने समाज का चेहरा उजागर करता है, जिसका सामना एक नारी रोज़ करती है. भले ही हम महिला सुरक्षित समाज की बात करते हों लेकिन वास्तविकता इससे कोसों दूर है. हर साल 8 मार्च को अंतरराश्ट्रीय महिला दिवस भी मनांते है। इस दिन को मनाने का मुख्य उद्देष्य महिलाओं को हर क्षेत्र में समान अधिकार दिलाने के साथ उनकी सुरक्षा भी सुनिष्चित करना है। इस दिन को पूरे विष्व की महिलाएं जात-पात, रंग-भेद, वेष-भूशा, भाशा से परे एकजुट होकर इस दिन को मनाती हैं। महिला दिवस महिलाओं को अपनी दबी-कुचली आवाज़ को अपने अधिकारों के प्रति बुलंद करने की प्रेरणा भी देता है. लेकिन अब भी यह रस्मी कार्यक्रम से अधिक कुछ नहीं बन सका है.

इसमें कोई शक नहीं कि महिलाएं हर क्षेत्र में मर्दों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ रही हैं। लेकिन 21 वीं सदी के इस दौर में जहां एक तरफ महिला सषक्तिकरण की बातें हो रहीं है, वहीं लाखों महिलाएं आज भी अपने मूलभूत अधिकारों से वंचित हैं। हमारे देश  में महिलाओं के साथ भेदभाव की कहानी पारिवारिक स्तर से शुरू हो जाती है। कई बार तो लड़की को दुनिया में आने से पहले ही बोझ समझकर गर्भ में खत्म कर दिया जाता है। अगर लड़की परिवार में जन्म ले भी लेती है तो लड़के के मुकाबले उसके साथ हर स्तर पर भेदभाव किया जाता है और तो और लड़कों के मुकाबले लड़कियों को षिक्षा देने में भी कमी की जाती है। इसके पीछे रूढ़िवादी समाज की सोच यह होती है कि लड़की पढ़ लिखकर क्या करंेगी, इसको तो षादी कर अपने घर जाना है? घर का सारा काम करने के बावजूद आज भी ज़्यादातर परिवारों में महिलाएं पुरूशों के बाद ही खाना खाती है। लड़कियों के अधिकारों का हनन तो सबसे पहले पारिवारिक स्तर पर ही होता है।

कहने को ज़माना बदल चुका है लेकिन कुछ लोग आज भी पुरानी सोच के साथ जी रहे हैं। लड़कियों को आज भी समाज में बुरी नज़र से देखा जाता है। इस आधुनिक दौर में भी कुछ लोग ऐसा करने से बाज़ नहीं आ रहे हैं। ऐसे परिवारों में अगर लड़का होता है तो पूरे घर में खुषी का माहौल छा जाता है। लेकिन लड़की पैदा हो जाए तो मातम सा छा जाता है। आखिर ऐसा क्यों? जंग का मैदान हो या खेल का मैदान या राजनीति अथवा कोई भी प्रतिस्पर्धा वाला क्षेत्र, लड़कियां हर क्षेत्र में लड़कों के कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ रही हैं। इसके बावजूद लड़कियों को परिवार या समाज में उनका अधिकार मिलना तो दूर उन्हें जन्म से पहले ही मां के गर्भ में खत्म कर देने का घिनौना पाप जारी है। इसके अलावा अगर लड़की जन्म ले भी लेती है तो उसकी भावनाओं का हर पल गला घोटा जाता है। हमारे देश में आज भी ऐसे कई परिवार हैं जहां लड़कियां अपनी इच्छा के कपड़े भी नहीं पहन सकतीं। इसके अलावा कुछ परिवारों में लड़की को नाना-नानी और दूसरे रिष्तेदारों के यहां भी जाने की इजाज़त नहीं क्योंकि माता-पिता को हमेषा इस बात का डर रहता है कि यदि उनकी बेटी बाहर निकली तो उसके साथ कहीं कुछ गलत न हो जाए। ऐसी बातें सुनते-सुनते लड़कियां स्वयं भी घर से बाहर जाने से डरने लगी हैं। इसके पीछे बहुत से कारण है क्योंकि घर के साथ-साथ समाज में महिलाओं के साथ छेड़-छाड़ की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। अब समय की मांग है कि एक ऐसा वातावरण तैयार किया जाये जहाँ नारी के अधिकारों का हनन करने वालों का सामाजिक बहिष्कार किया जाए. इसके लिए स्वयं महिलाओं को ही आगे आना होगा।

राजस्थान के बीकानेर से 100 किलोमीटर दूर बज्जु नामी एक गांव की निशा इसकी मिसाल है. यह वह क्षेत्र हैं जहाँ आज भी लड़कियों के जन्म पर आंसू बहाये जाते हैं. गैर सरकारी संगठन उरमुल सीमांत से जुड़ी निषा महिलाओं के खिलाफ अत्याचार को रोकने के लिए पिछले कई सालों से काम कर रही हैं। निषा अपने स्तर पर लड़कियों के साथ अत्याचार को रोकने के लिए हर संभव प्रयास करती हैं। वह लड़कियों केे भेदभाव करने वाले लोगों को घृणा की निगाहों से देखती हैं। निषा ने फैसला किया कि वह अपने गांव में जन्म से पहले मार देने वाली बच्चियों को मरने से बचाएंगी। इसका एक जिंदा उदाहरण एक पांच साल की बच्ची है जिसकी पालन-पोशण वह स्वयं कर रही हैं। यह कहानी भी हमारे समाज की बच्चियों के प्रति घृणित सोच का उजागर करती है। निषा को जब इस बच्ची के जन्म से पहले पता चला कि इसकी मां गर्भवती है तो उसने इसकी मां की निगरानी शुरू कर दी. जब उसे डिलीवरी के लिए अस्पताल ले जाया गया तो उस महिला ने इस बच्ची को जन्म दिया। घर वाले बच्ची के पैदा होने से खुष नहीं थे। निषा ने उन्हें बहुत समझाया कि लड़की घर की लक्ष्मी होती है। इस बच्ची को आप लोग अपना लीजिए। निषा के लाख समझाने पर भी वह लोग नहीं माने और उल्टा निषा को ही कहने लगे कि अगर तुम्हें यह बच्ची इतनी पसंद है तो तुम्ही इसे गोद क्यों नहीं ले लेती? परिवार वालों के बच्ची को ठुकराने के बाद निषा ने बच्ची को गोद ले लिया और आज वह बच्ची पांच साल की है।

आप सोच सकते हैं कि आज भी हमारे देष में इस तरह की सोच रखने वालों की एक बड़ी तादाद है जो बच्ची को जन्म से पहले ही ठुकरा देते हैं या जन्म के बाद। निषा आज उन लोगों के लिए एक प्रेरणा है जो लड़की को बोझ समझकर ठुकरा देते हैं। निषा ने बिना सोच समझे उस बच्ची को गोद लिया जिसे उसने जन्म भी नहीं दिया है। हमें अपनी सोच को बदलना होगा और लड़कियों को ठुकराने के बजाय उन्हें अपनाना होगा। निषा जैसी बनकर हर बच्ची को बचाना होगा। सबसे पहले हमें बेटी बचानी होगी और उसके बाद उसे अच्छी षिक्षा के साथ-साथ अच्छे संस्कार देने होंगे तभी हम एक सभ्य समाज का निर्माण कर सकते हैं। कहते एक मां के पढ़ने से एक पीढ़ी शिक्षित होती है क्योंकि बच्चे की परविष और उसको अच्छा-बुरा बनाने में मां का एक अहम योगदान होता है।
           
लड़कियों के पैदा होने पर खुष न होने की एक बड़ी वजह यह भी होती है कि अक्सर माता-पिता सोचते हैं कि गरीबी में हमारा जिंदगी गुज़रना मुष्किल हो रहा है। ऐसे में इसके बड़े होने पर हम इसकी षादी कैसे करेंगे। इसके विपरीत बेटे के प्रति अक्सर माता-पिता की सोच होती है कि यह पढ़ लिखकर हमारे बुढ़ापे का सहारा बनेगा। यही वजह है बेटों के मुकाबलेे बेटियों से भेदभाव होता है। हमें अपनी इस सोच को बदलना होगा। राज्य सरकारों, केंद्र सरकार, तमाम सरकारी व गैर सरकारी संगठनों के लाख प्रयासों के बावजूद कन्या भ्रूण-हत्या के मामलों में लगातार वृद्धि हो रही है। दुर्भाग्य से शिक्षित और संपन्न तबके में यह कुरीति ज्यादा है। गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, 1994 के अन्‍तर्गत, गर्भाधारण पूर्व या बाद लिंग चयन और जन्‍म से पहले कन्‍या भ्रूण-हत्या के लिए लिंग परीक्षण करना, इसके लिए सहयोग देना व विज्ञापन करना कानूनी अपराध है, जिसमें 3 से 5 वर्ष तक की जेल व 10 हजार से 1 लाख रूपये तक का जुर्माना हो सकता है। इस कानून के तहत लिंग जांच करवाने वाले व करने वाले दोनों ही दोशी होते हैं। कानून के अनुसार लिंग जांच करने वाले चिकित्सक का पंजीयन हमेषा के लिए रद्द हो सकता है। बावजूद इसके कन्या भ्रूण-हत्या के मामलों में लगातार इजाफा होता जा रहा है। कन्या भ्रूण-हत्या के बढ़ते मामलों की वजह से स्त्री-पुरूश लिंगानुपात में कमी हो रही है और यह समाज के लिए एक बड़ा खतरा बनती जा रही है।

2011 की जनगणना के अनुसार राश्ट्रीय स्तर पर जहां एक हजार पुरूशों के मुकाबले 940 महिलाएं हैं वहीं जबकि 2001 की जनगणना के अनुसार यह संख्या 922 थी। इसका मुख्य कारण यह है कि गर्भावस्था के दौरान ही बहुत से लोग यह पता करने की कोषिष करते हैं कि मां जिस बच्चे को जन्म देने वाली है वह लड़का है या लड़की। अगर वह लड़की होती है तो दुनिया में आने से पहले ही मां के गर्भ में खत्म कर दिया जाता है। यही वजह है कि देष में स्त्री-पुरूश अनुपात घट रहा है। हालांकि इसमें कमी अवश्य आई है. परंतु इसे अधिक संतोषप्रद नहीं कहा जा सकता है. इसके लिए अभी भी बहुत कुछ करने की ज़रूरत है। इसके लिए राज्य सरकारों, केन्द्र सरकार और गैर सरकारी संगठनो को एक मंच पर आकर साथ काम करना होगा। भारतीय दंड संहिता की धारा 315 एवं 316 के अनुसार जन्म से पहले व जन्म के बाद कन्या षिषूू हत्या कानूनी अपराध है। लिंग चयन का मूल कारण पुरूष-प्रधान समाज में महिलाओं और लड़कियों की निम्‍न स्थिति है जो लड़कियों के साथ भेदभाव करता है। पुत्र को महत्व देने की संस्‍कृति के चलते लिंग निर्धारण के लिए अल्‍ट्रासाउंड तकनीक का प्रयोग किया जाता है, जिसके बाद प्रायः कन्‍या भ्रूण की हत्‍या कर दी जाती है। लिंग चयन दहेज प्रथा का समाधान नहीं है। दहेज प्रथा तब तक कायम रहेगी जब तक लोग बेटियों को भार समझते रहेंगे। इसके लिए आवश्यक है कि समाज में महिलाओं को दोयम स्थिति से निकालकर बराबरी का दर्जा दिया जाए। लड़कियों को संपत्ति में बराबर का हिस्सा मिले तो दहेज की मांग रूकने के साथ उन्हें बराबरी का दर्जा भी मिलेगा। इससे लोग बेटियों को बोझ नहीं समझेंगे जिससे कन्या भ्रूण हत्या पर भी लगाम लग सकेगी।
             
खतरे की घंटी बज चुकी है, इससे पहले की खतरा सिर पर आ जाए हमें इसके लिए जरूरी कदम उठाने होंगे। सोनोग्राफी के गलत इस्तेमाल को रोकने के लिए सरकार की ओर से बहुत सारे कदम उठाए गए हैं। बावजूद इसके इस तकनीक का गलत इस्तेमाल आज भी जारी है। जो लोग समाज और इंसानियत के कातिल हैं और जिन लोगों ने लड़कियों के कत्ल को अपना पेषा बना लिया है, उनके खिलाफ सख्त से सख्त कानूनी कार्रवाई की जानी चाहिए। लोगों को भी चाहिए कि वह मिलकर रोषनी की एक नई षमा जलाएं और समाज को रूढि़वादी सोच से निकालकर बुलंदी की ओर ले जाएं। हमें गंभीरता से सोचना होगा कि यदि हम घर में खुशियां चाहते हैं तो केवल लक्ष्मी की पूजा से यह संभव नहीं है। हमें बेटियों के जीवन और उसकी महत्ता को समझना होगा। वंश की चाहत में अंधे समाज को समझना होगा कि बेटी को जि़दगी दिये बिना बेटे के जन्म का सपना हक़ीक़त में नहीं बदल सकता। इस महत्ता को जितनी जल्दी समझा जायेगा भविष्य को उतना ही बेहतर बनाया जा सकेगा। (चरखा फीचर)

-रूखसार कौसर महर-

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