ताजपोशी के तुरंत बाद जम्मू-कश्मीर के नव-निर्वाचित मुख्यमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने जो बयान दिया,वह मीडिया में विवाद का विषय तो बना ही,लोकसभा में भी विपक्ष ने सरकार एवं भाजपा को जमकर निशाने पर लेते हुए इस मामले में प्रधानमंत्री से स्पष्टीकरण देने एवं निंदा प्रस्ताव पारित करने की मांग पर सदन से वॉकआउट किया। दरअसल,शपथ-ग्रहण के बाद अपने पहले सम्बोधन में सीएम मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने जम्मू-कश्मीर में शांतिपूर्वक सम्पन्न हुए चुनावों के लिए वादी की अलगाववादी ताकतों(हुर्रियत) और खास तौर पर पाकिस्तान के सहयोगपूर्ण रवैये की सरहाना की थी.हालांकि सरकार एवं प्रधानमंत्री से सदन में स्पष्टीकरण देने की मांग पर गृह मंत्री ने कहा कि सरकार और उनकी पार्टी (भाजपा) सईद के बयान से अपने आप को पूरी तरह से ‘अलग’ करती है. गृहमंत्री ने यह भी स्पष्ट किया कि चुनावों की सफलता के लिए राज्य की जनता, सुरक्षा बलों एवं चुनाव आयोग को ही श्रेय जाता है.
असल बात तो यह है कि मुफ़्ती साहब की मजबूरी यह है कि उनको सत्तासुख भी भोगना है और परंपरा से चली आ रही कश्मीरियों के दिलों में बसी पृथकतावादी और भारत-विरोधी भावनाओं की कद्रदानी भी करनी है।प्रदेश में पिछले तीन-चार दशकों से ऐसा ही कुछ होता आया है और प्रायः हर मुख्य-मंत्री ने ऐसा ही किया है: पैकेज पर पैकेज लेते जाओ और नाइंसाफी की दुहाई भी देते जाओ।चाहे खुद दो या फिर अलगाववादियों से दिलवाओ।देखना अब यह है कि क्या नयी सरकार वादी के अलगवादी संगठनों पर शिकंजा कसेगी?अगर नहीं तो फिर पुरानी सरकारों और नई सरकार में फर्क क्या रहा?
इधर,सुना है पीडीपी के कई विधायकों ने अफ़जल गुरु को लगी फांसी को भी विवाद का मुद्दा बना लिया है.अगर इसी तरह से दोनों बीजेपी और पीडीपी के बीच बदमज़गी बढती गयी और दोनों पार्टियों के बीच विवाद गहराता गया तो कोई आश्चर्य नहीं कि जम्मू-कश्मीर में पीडीपी/बीजेपी के नवगठित संगठन में तगड़ी दरार पड़ जाय.
शिबन कृष्ण रैणा
अलवर
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