गंगे तव दर्शनात मुक्तिः! यानी गंगा मां के दर्शन से मुक्ति मिलती है। विष्णुपदी मां गंगा के धरती पर आने का पर्व है गंगा दशहरा। ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन गंगा स्नान करने से व्यक्ति के दस प्रकार के पापों का नाश होता है। इन दस पापों में तीन पाप कायिक, चार पाप वाचिक और तीन पाप मानसिक होते हैं। इन सभी से व्यक्ति को मुक्ति मिलती है। इस दिन ऊं नमः शिवाय नारायण्यै दशहरायै गंगायै स्वाहा मंत्रों द्वारा गंगा का पूजन करने से जीव को मृत्युलोक में बार-बार भटकना नहीं पड़ता। निष्कपट भाव से गंगा मां के दर्शन करने मात्र से जीव को कष्ट से मुक्ति मिल जाती है
गंगा दशहरा यानी मां गंगा के धरती पर आने का दिन। यह दिन है कामनाओं को पूरा करने का। मां से वरदान पाने का। इस बार यह पर्व गुरुवार, 28 मई 2015 को है। इस बार बृहस्पतिवार दशमी तिथि के साथ सिद्धि योग का विशेष संयोग बन रहा है। खास इसलिए भी कि उस दिन उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र के साथ कन्या राशि में चंद्रमा और वृष राशि में सूर्य हैं। इस मौके पर पतित पावनी गंगा में लगाई गई एक डुबकी, स्नान-दान, जप, गंगा पूजन, ध्यान आदि से न सिर्फ सब सिद्ध होगा, बल्कि मां के चाहने वालों की किस्मत भी बदल सकती है। गंगा दशहरा को बाबा रामेश्वर महादेव की प्राण प्रतिष्ठा का दिन भी माना जाता है। इस बार उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र गुरुवार को पड़ने की वजह से गंगा दशहरा पर दस गुना अधिक फल तो मिलेगा ही, दूर हो जायेंगे हर तरह के सभी पाप। सिद्धियोग के प्रभाव से आनेवाली खरीफ और रबी की फसल बेहतर होगी। आयु में वृद्धि, धन अचल संपत्ति में भी लाभ होगा। ज्योतिषि रामदुलार उपाध्याय के मुताबिक 35 साल बाद गंगा दशहरा पर सात योगों का महासंयोग बन रहा है। इस दौरान गुरु, गंगा, शिव, ब्रह्मा, सूर्य और हिमालय का पूजन विशेष फलदायी होगा। इस दिन दानपुण्य और गंगा स्नान करने का विशेष महत्व है। यह पर्व 10 महायोग के संयोग से बनता है। दशहरा जितना बलवान होगा, देश के लोगों को उतना ही लाभ होगा। इस बार गंगा दशहरा पर 10 में से 7 योग घटित हो रहे हैं। ये योग ज्येष्ठ माह, शुक्ल पक्ष, दशमी तिथि, हस्त नक्षत्र (सुबह 11.25 बजे के बाद), गर-करण, कन्या राशि में चंद्र, वृष राशि में सूर्य प्रमुख हैं। कहते है गंगा के कपिल मुनि के आश्रम पहुंचने और गंगाजल के स्पर्शमात्र से मगीरथ के साठ हजार पूर्वजों की मुक्ति हुई तथा वे सभी दिव्यरूप धारण कर दिव्यलोक को चले गए।
श्री उपाध्याय के मुताबिक इसमें स्नान, दान, रूपात्मक व्रत होता है। स्कन्दपुराण में कहा गया है कि ज्येष्ठ शुक्ला दशमी संवत्सरमुखी मानी गई है इसमें स्नान और दान तो अवश्य करना चाहिए। किसी भी नदी या गंगा में जाकर अघ्र्य एवं तिलोदक (तीर्थ प्राप्ति निमित्तक तर्पण) करना चाहिए। ऐसा करने वाला महापातकों के बराबर के दस पापों से छूट जाता है। यदि ज्येष्ठ शुक्ला दशमी के दिन गुरुवार रहता हो व उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र तिथि हो तो यह सब पापों के हरने वाली होती है। वराह पुराण में कहा गया है कि नक्षत्र में श्रेष्ठ नदी स्वर्ग से अवतीर्ण हुई थी वह दस पापों को नष्ट करती है। इस कारण उस तिथि को दशहरा कहते हैं। ज्येष्ठ मास, शुक्ल पक्ष, गुरुवार, फाल्गुनी नक्षत्र, गर, आनंद, व्यतिपात, कन्या का चंद्र, वृषभ के सूर्य इन दस योगों में मनुष्य स्नान करके सब पापों से छूट जाता है।खास बात यह है कि जो मनुष्य इस दशहरा के दिन गंगा के पानी में खड़ा होकर दस बार गंगा मंत्रों का जाप करता है वह चाहे दरिद्र हो, चाहे असमर्थ हो, वह भी प्रयत्नपूर्वक गंगा की पूजा कर उस फल को पाता है। मनुस्मृति में 10 प्रकार के कायिक, वाचिक और मानसिक पाप कहे गए हैं। बिना आज्ञा दूसरे की वस्तु लेना, शास्त्र वर्जित हिंसा, परस्त्री गमन ये तीन प्रकार के कायिक (शारीरिक) पाप हैं। कटु बोलना, असत्य भाषण, परोक्ष में किसी की निंदा करना, निष्प्रयोजन बातें करना ये चार प्रकार के वाचिक पाप हैं। परद्रव्य को अन्याय से लेने का विचार करना, मन में किसी का अनिष्ट करने की इच्छा करना, असत्य हठ करना ये तीन प्रकार के मानसिक पाप हैं।
पूजन विधि
गंगा के स्वर्ग से पृथ्वी पर अवतरण का पौराणिक महत्व है। ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को हस्त नक्षत्र में गंगा पृथ्वी पर अवतरित हुई थीं। अतः इस दिन को उनके नाम से गंगा दशहरा के रूप में जाना जाता है। इस दिन स्नान, दान, जप, तप, व्रत और उपवास का विशेष महत्व है। गंगा दशहरा को गंगा नदी में स्नान करने मात्र से पापों का नाश होता है तथा अनंत पुण्यफल की प्राप्ति होती है। इस दिन गंगा नदी में अथवा समीप की अन्य किसी नदी या सरोवर में जाकर स्नान करें। मान्यता है कि गंगा दशहरा का व्रत भगवान विष्णु को खुश करने के लिए किया जाता है। प्रातः काल गंगा में 10 डुबकी लगाएं। घर में हों तो पानी में गंगाजल डालकर 10 लोटे जल से स्नान करें। भगवान सूर्य को अघ्र्य दें। मकरवाहिनी गंगा का चित्र रखकर पूजा करें। पूजा में 10 तरह के फूल, फल, मिठाई चढ़ाएं। धूप, दीप, नवैद्य अर्पित करें। ऊं ऐं ह्रीं श्रीं भगवती गंगे नमो नमः व ऊं नमः शिवाय नारायणाय दशहरायै गंगायै नमः मंत्र के एक माला जप करें। गंगा जी का ध्यान करते हुए षोडशोपचार से पूजन करना चाहिए। 10 ब्राह्मणों को वस्त्र दान करें। लक्ष्मी पीपल का पेड़ लगाएं। मान्यता है कि ऐसा करने से सुख-सौभाग्य घर में बढ़ जाएगा और धन की वर्षा होगी। सनातन धर्म में भी गंगा जल के विशेष महत्व का वर्णन है। अविरल गंगा बहती रहे, इसके लिए लोगों को गंगा दशहरा के दिन गंगा की स्वच्छता पवित्रता बनाए रखने का भी संकल्प लेना चाहिए। ऐसी मान्यता है कि गंगा दशहरा के दिन गंगा स्नान पूजन से 10 तरह के पापों का शमन होता है। इस दिन दान में सत्तू, मटका और हाथ का पंखा दान करने से दुगुना फल प्राप्त होता है। इस दिन भगवान विष्णु की पूजा-अर्चना की जाती है। इस दिन लोग व्रत करके पानी भी (जल का त्याग करके) छोड़कर इस व्रत को करते हैं। ग्यारस (एकादशी) की कथा सुनते हैं और अगले दिन लोग दान-पुण्य करते हैं। इस दिन जल का घट दान करके फिर जल पीकर अपना व्रत पूर्ण करते हैं। इस दिन दान में केला, नारियल, अनार, सुपारी, खरबूजा, आम, जल भरी सुराई, हाथ का पंखा आदि चीजें भक्त दान करते हैं। गंगा दशहरे के दिन श्रद्धालु जन जिस भी वस्तु का दान करें उनकी संख्या दस होनी चाहिए और जिस वस्तु से भी पूजन करें उनकी संख्या भी दस ही होनी चाहिए। ऐसा करने से शुभ फलों में और अधिक वृद्धि होती है। यदि कोई व्यक्ति पूजन के बाद दान करना चाहता है तब वह भी दस प्रकार की वस्तुओं का करता है तो अच्छा होता है लेकिन जौ और तिल का दान सोलह मुठ्ठी का होना चाहिए। दक्षिणा भी दस ब्राह्मणों को देनी चाहिए। जब गंगा नदी में स्नान करें तब दस बार डुबकी लगानी चाहिए।
पौराणिक महत्व
पुराणों के अनुसार गंगा दशहरा के दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व है। इस दिन स्वर्ग से गंगा का धरती पर अवतरण हुआ था, इसलिए यह महापुण्यकारी पर्व माना जाता है। गंगा दशहरा के दिन सभी गंगा मंदिरों में भगवान शिव का अभिषेक किया जाता है। वहीं इस दिन मोक्षदायिनी गंगा का पूजन-अर्चना भी किया जाता है। कहते हैं भगवान राम के रघुवंश में उनके एक पूर्वज हुए हैं महाराज सगर, जो चक्रवर्ती सम्राट थे। एक बार महाराज सगर ने अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान किया। उसके लिए अश्व को छोड़ा गया। इंद्र ने अश्वमेघ यज्ञ के उस घोड़े को ले जाकर कपिल मुनि के आश्रम में पाताल में बांध दिया। तपस्या में लीन होने के कारण कपिल मुनि को इस बात का पता नहीं चला। महाराज सगर के साठ हजार पुत्र थे, जो स्वभाव से उद्दंड एवं अहंकारी थे। मगर उनका पौत्र अंशुमान धार्मिक एवं देव-गुरु पूजक था। सगर के साठ हजार पुत्रों ने पूरी पृथ्वी पर अश्व को ढूंढा परंतु वह उन्हें नहीं मिला। उसे खोजते हुए वे पाताल में कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचे, जहां उन्हें अश्व बंधा हुआ दिखाई दिया। यह देख सगर के पुत्र क्रोधित हो गए तथा शस्त्र उठाकर कपिल मुनि को मारने के लिए दौड़े। तपस्या में विघ्न उत्पन्न होने से जैसे ही कपिल मुनि ने अपनी आंखें खोलीं, उनके तेज से सगर के सभी साठ हजार पुत्र वहीं जलकर भस्म हो गए! इस बात का पता जब सगर के पौत्र अंशुमान को चला, तो उसने कपिल मुनि से प्रार्थना की, जिससे प्रसन्ना होकर कपिल मुनि ने अंशुमान से कहा, श्जाओ, यह घोड़ा ले जाओ और अपने पितामह का यज्ञ संपन्न कराओ। महाराज सगर के ये साठ हजार पुत्र उद्दंड एवं अधार्मिक थे, अतः इनकी मुक्ति तभी हो सकती है, जब गंगाजल से इनकी राख का स्पर्श होगा। महाराज सगर के बाद अंशुमान ही राज्य के उत्तारधिकारी बने किंतु उन्हें अपने पूर्वजों की मुक्ति की चिंता सतत बनी रही। कुछ समय बाद गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के लिए अंशुमान राज्य का कार्यभार अपने पुत्र दिलीप को सौंपकर वन में तपस्या करने चले गए तथा तप करते हुए ही उन्होंने शरीर त्याग दिया। महाराज दिलीप ने भी पिता का अनुसरण करते हुए राज्यभार अपने पुत्र भगीरथ को सौंपकर तपस्या की, किंतु वे भी गंगा को पृथ्वी पर नहीं ला सके। सूर्यवंशी महाराजा भागीरथ ने अपने पितामहों का उद्धार करने का संकल्प लेकर हिमालय पर्वत पर घोर तपस्या की। इससे ब्रह्माजी प्रसंन होकर भगीरथ से कहा, हे भगीरथ! मैं गंगा को पृथ्वी पर मेज तो दूंगा, पर उनके वेग को कौन रोकेगा? इसलिए तुम्हें देवादिदेव महादेव की आराधना करनी चाहिए। इस पर भगीरथ ने एक पैर पर खड़े होकर भगवान शंकर की आराधना की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी ने गंगा को अपनी जटाओं में रोक लिया और उसमें से एक जटा को पृथ्वी की ओर छोड़ दिया। इस प्रकार गंगा का पृथ्वी पर अवतरण हुआ। अब आगे-आगे भगीरथ का रथ और पीछे-पीछे गंगाजी चल रही थीं। शिव की जटाओं से होकर ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की दशमी को हस्त नक्षत्र, बृषभ राशिगत सूर्य एवं कन्या राशिगत चन्द्र की यात्रा के मध्य गंगा का स्वर्ग से धरती पर पहाड़ों से उतर कर हरिद्वार ब्रह्मकुंङ में आईं थीं। मार्ग में जह्नुऋषि का आश्रम था। गंगा उनके कमंडल, दंड आदि को भी अपने साथ बहाकर ले जाने लगीं। यह देख ऋषि ने उन्हें पी लिया। राजा भगीरथ ने जब पीछे मुड़कर देखा, तो गंगा को नहीं पाकर उन्होंने जह्नुऋषि से प्रार्थना की तथा उनकी वंदना करने लगे। प्रसन्न होकर ऋषि ने अपनी पुत्री बनाकर गंगा को अपने दाहिने कान से निकाल दिया। इसीलिए गंगा को जाह्नवी के नाम से भी जाना जाता है। भगीरथ की तपस्या से अवतरित होने के कारण उन्हें भागीरथी भी कहा जाता है। जिसके बाद मां गंगा के पावन चरणों की धूली पाकर राजा सगर के 60 हजार पुत्रों का उद्धार हुआ था। तभी से इस दिन को गंगा दशहरा के रूप में मनाया जाने लगा। इनकी महिमा का गुणगान करते हुए भगवान महादेव श्रीविष्णु से कहते हैं- हे हरे! ब्राह्मण की शापाग्नि से दग्ध होकर भारी दुर्गति में पड़े हुए जीवों को गंगा के सिवा दूसरा कौन स्वर्गलोक में पहुंचा सकता है, क्योंकि गंगा शुद्ध, विद्यास्वरूपा, इच्छा ज्ञान एवं क्रियारूप, दैहिक, दैविक और भौतिक तीनों तापों को शमन करने वाली, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थो को देने वाली शक्ति स्वरूपा हैं। इसीलिए इन आनंदमयी, शुद्ध धर्मस्वरूपिणी, जगत्धात्री, ब्रह्मस्वरूपिणी अखिल विश्व की रक्षा करने वाली गंगा को मैं अपने मस्तक पर धारण करता हूं। कलियुग में काम, क्रोध, मद, लोभ, मत्सर, ईष्या आदि अनेकानेक विकारों का समूल नाश करने में गंगा के समान कोई और नहीं है। विधिहीन, धर्महीन, आचरणहीन मनुष्यों को भी गंगा का सान्निध्य मिल जाए तो वे मोह एवं अज्ञान के भव सागर से पार हो जाते हैं।
गंगा कथा
इस दिन सुबह स्नान, दान तथा पूजन के उपरांत कथा भी सुनी जाती है जो इस प्रकार से है-प्राचीनकाल में अयोध्या के राजा सगर थे। महाराजा सगर के साठ हजार पुत्र थे। एक बार सगर महाराज ने अश्वमेघ यज्ञ करने की सोची और अश्वमेघ यज्ञ के घोडे. को छोड़ दिया। राजा इन्द्र यह यज्ञ असफल करना चाहते थे और उन्होंने अश्वमेघ का घोड़ा महर्षि कपिल के आश्रम में छिपा दिया। राजा सगर के साठ हजार पुत्र इस घोड़े को ढूंढते हुए आश्रम में पहुंचे और घोड़े को देखते ही चोर-चोर चिल्लाने लगे। इससे महर्षि कपिल की तपस्या भंग हो गई और जैसे ही उन्होंने अपने नेत्र खोले राजा सगर के साठ हजार पुत्रों में से एक भी जीवित नहीं बचा। सभी जलकर भस्म हो गये। राजा सगर, उनके बाद अंशुमान और फिर महाराज दिलीप तीनों ने मृतात्माओं की मुक्ति के लिए घोर तपस्या की ताकि वह गंगा को धरती पर ला सकें किन्तु सफल नहीं हो पाए और अपने प्राण त्याग दिए। गंगा को इसलिए लाना पड़ रहा था क्योंकि पृथ्वी का सारा जल अगस्त्य ऋषि पी गये थे और पुर्वजों की शांति तथा तर्पण के लिए कोई नदी नहीं बची थी। महाराज दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए उन्होंने गंगा को धरती पर लाने के लिए घोर तपस्या की और एक दिन ब्रह्मा जी उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर प्रकट हुए और भगीरथ को वर मांगने के लिए कहा तब भगीरथ ने गंगा जी को अपने साथ धरती पर ले जाने की बात कही जिससे वह अपने साठ हजार पूर्वजों की मुक्ति कर सकें। ब्रह्मा जी ने कहा कि मैं गंगा को तुम्हारे साथ भेज तो दूंगा लेकिन उसके अति तीव्र वेग को सहन करेगा? इसके लिए तुम्हें भगवान शिव की शरण लेनी चाहिए वही तुम्हारी मदद करेगें। अब भगीरथ भगवान शिव की तपस्या एक टांग पर खड़े होकर करते हैं। भगवान शिव भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर गंगाजी को अपनी जटाओं में रोकने को तैयार हो जाते हैं। गंगा को अपनी जटाओं में रोककर एक जटा को पृथ्वी की ओर छोड. देते हैं। इस प्रकार से गंगा के पानी से भगीरथ अपने पूर्वजों को मुक्ति दिलाने में सफल होता है।
सुरेश गांधी
वाराणसी
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