विशेष : भस्मासुरों से सावधान हैं मोदी - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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सोमवार, 25 मई 2015

विशेष : भस्मासुरों से सावधान हैं मोदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार का एक वर्ष का कार्यकाल पूर्ण होने के उपलक्ष्य में उसका हिसाब किताब आंकने का क्रम शुरू हो गया है। इसमें एक पहलू मीडिया के साथ मौजूदा सरकार के रिश्ते का भी है। मीडिया के संदर्भ में यह सरकार कई मामलों में मूर्ति भंजक भूमिका अदा कर रही है। हालांकि भारत की मीडिया जिसका चरित्र मूल रूप से जातिवादी और सांप्रदायिक है अपनी इसी तासीर के कारण अभी भी कुल मिलाकर नरेंद्र मोदी के प्रति अपनी आसक्ति को भुला नहीं पाई है जिसकी वजह से उसकी खामियां उजागर करने में वह पैनापन नहीं दिखा पा रही लेकिन प्रधानमंत्री मीडिया के वर्ग हितों के लिए जिस तरह से बहुत खामोशी के साथ घातक प्रक्रियाओं को आगे बढ़ा रहे हैं उस पर देर सवेर मीडिया की ओर से गंभीर प्रतिक्रिया लाजिमी है।

नरेंद्र मोदी ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने अपना कोई मीडिया सलाहकार नियुक्त नहीं किया है जबकि हर प्रधानमंत्री किसी दिग्गज पत्रकार को मीडिया सलाहकार बनाता जा रहा है। प्रधानमंत्री ने इस परंपरा को तोड़कर जगदीश ठक्कर को जनसंपर्क के लिए अपने कार्यालय में नियुक्त किया है। नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे उस समय भी जगदीश ठक्कर उनके जनसंपर्क अधिकारी के रूप में कार्यरत रहे थे। जगदीश ठक्कर की विशेषता यह है कि पत्रकारों के लिए उनकी उपलब्धता दुष्कर रहती है। वे अपना सेल नंबर तक पत्रकारों को नहीं देते जिससे पत्रकार जब चाहें तब उनसे संपर्क कर सकेें। यह तो दूर पत्रकार अगर उनको किसी मौके पर बात करने के लिए ढूंढेंं तो भी उनका तलाश पाना मुश्किल ही होगा। अलबत्ता प्रधानमंत्री कार्यालय को कवर करने वाले पत्रकारों को रचनात्मक सूचनाओं के पचास साठ एसएमएस रोजाना भेजने की व्यवस्था मोदी ने करवा रखी है। मोदी ने यह भी किया है कि प्रधानमंत्री के साथ उनकी विदेश यात्रा में अब पत्रकार ढोकर नहीं ले जाए जाते। दूरदर्शन और आकाशवाणी के ही संवाददाता उनको कवर करते हैं। फिर उनका कार्यक्रम देश में हो या विदेश में। उन्होंने निजी टेलीविजन चैनल कैमरों के सामने बोलने की बजाय आकाशवाणी से मन की बात को लोगों से संवाद का जरिया बना रखा है।

मोदी सरकार में पत्रकारों की यह सुनियोजित उपेक्षा इसके बावजूद हो रही है कि जब उन्होंने चुनाव अभियान छेड़ा था तब पत्रकार उनकी जय जयकार करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। मोदी की नवटाटी में जो पत्रकार सबसे आगे थे उन्हें यह उम्मीद थी कि जब वे प्रधानमंत्री बनेंगे तो उनकी दसों उंगलियां घी में होंगी। उनके सामने राजीव गांधी की सरकार के अंतिम दिनों का उदाहरण था। जब सारे पत्रकार वीपी सिंह के पक्ष में लामबंद हो गए थे। ऐसे में डूबते का तिनका सहारा बने दो पत्रकारों ने उनकी भड़ैती का ठेका ले लिया और इस वजह से वे पीएमओ में जबरदस्त सिक्का जमाने में सफल हो गए। इस प्रभाव का फायदा उन्होंने अंबानी ग्रुप को दिलाया और बदले में वे भी दौलत के समुंदर में नहाने लगे। उनमें से एक पत्रकार तो दिवगंत हो चुके हैं लेकिन दूसरे पत्रकार केेंद्रीय सरकार का हिस्सा बनने से लेकर दौलतमंदों के सबसे चहेते खेल के सर्वेसर्वा बनने तक का सफर तय कर चुके हैं। भड़ैती की पत्रकारिता के मील के पत्थर के रूप में स्थापित हो चुके इन महाशय के मुकाम तक पहुंचना उनके नक्शे कदम पर आगे बढऩे वाले हर पत्रकार का सबसे प्यारा सपना होता है। बहरहाल मोदी जब प्रधानमंत्री बन गए तो उनमें से सभी की उम्मीदों को जबरदस्त ठेस लगी। पीएमओ को अपनी उंगली पर नचा सकेें उनका यह सपना पूरा होना तो दूर रहा। वे लोग कई महीनों प्रधानमंत्री के एक इंटरव्यू तक के लिए तरसते रहे। आखिर में भरपूर बेइज्जत कर लेने के बाद दीपावली पर भाजपा मुख्यालय पर नरेंद्र मोदी ने उनके साथ जब गपशप की और खाना खाया तो वे सारा अपमान भूलकर निहाल हो उठे।

खैर मोदी जो काम कर रहे हैं वह कट्टर साम्यवादी शासन की रीति नीति के अनुरूप है जहां मुनाफाखोर मीडिया सिर उठा सके यह तो दूर उसे पनपने तक नहीं दिया जाता। उच्छृंखल मीडिया किस तरह शासन व्यवस्था को कमजोर करती है इसका स्वाद हाल में सबसे ज्यादा अरविंद केजरीवाल ने चखा है। अपने पहले मुख्यमंत्रित्व काल में केजरीवाल सरकार की कारगुजारियों को लेकर हर क्षण मीडिया के सवालों का जवाब देने को प्रस्तुत रहते थे। इस अति में उनकी सरकार की छवि कठघरे में खड़े मुजरिम जैसी हो गई थी। साथ ही उनकी सरकार छिद्रान्वेषण की चपेट में आकर पूरी तरह बर्बाद होने को भी अभिशप्त रही। आखिर इस बार उनकी सरकार ने शुरू से ही पत्रकारों के मामले में सतर्कता बरतना शुरू किया। उनके द्वारा दूरी बनाने से आहत मीडिया उनके मामले में खूंखार हो गई। यह दूसरी बात है कि मीडिया उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाती लेकिन सत्ता के मद में केजरीवाल ने पथ भ्रष्ट होकर मीडिया को अपना शिकार करने का मौका दे दिया। पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र के मामले में उनकी करतूतों से मीडिया में उनका इस कदर चीरहरण हो चुका है कि अब दिल्ली के लोगों को उनसे कोई सहानुभूति नहीं बची है।

जिन मारीच शक्तियों से नरेंद्र मोदी को अब परहेज हो रहा है वे उन्हीं के कंधों पर चढ़कर सत्ता के शिखर तक पहुंचे हैं। याद करिए जनलोकपाल के मुद्दे पर जब मनमोहन सरकार के खिलाफ अरविंद केजरीवाल अन्ना हजारे को आगे करके तूफानी आंदोलन चलाए हुए थे तो भाजपा को उसकी पूरी शह थी क्योंकि भाजपा के रणनीतिकारों को मालूम था कि इसका प्रभाव सबसे ज्यादा उसे लाभान्वित करने वाला रहेगा। इस आंदोलन के पीछे विदेशी फंडिंग से पोषित एनजीओ नेटवर्क की ताकत थी। इस नाते शुरू में यह अनुमान होना स्वाभाविक था कि नरेंद्र मोदी एनजीओ नेटवर्क के प्रति लचर रहेंगे पर सत्ता में आते ही वे सबसे पहले विदेशी फंडिंग से पोषित एनजीओ के प्रति आक्रामक हुए। यह एनजीओ साम्राज्यवादी शक्तियों के एजेंडे को आगे बढ़ाने और सरकारों को उन पर चलने के लिए बाध्य करने वाले दबाव समूह का काम करते हैं। इस एजेंडे से विकसित देशों के स्वार्थ अपने राष्ट्रीय हितों की कीमत पर पूरे किए जाते हैं। नरेंद्र मोदी को इसका एहसास है। साथ ही वे इस ख्याल के भी हैं कि किसी स्वाभिमानी सरकार को बाहरी शक्तियों से निर्देशित नहीं होना चाहिए। ग्रीन पीस और फोर्ड फाउंडेशन का उनकी सरकार द्वारा मान मर्दन अवांछनीय तत्वों को डराने के लिए कौए मारकर पेड़ पर टांग देने जैसा मनोवैज्ञानिक लक्ष्य संधान है।

अब उनकी सरकार में बारी मुनाफाखोर मीडिया की है जिसकी नाक में नकेल डालने के लिए वे बिना किसी शोरशराबे के जुट पड़े हैं। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया है लेकिन यह मुहावरा तभी सार्थक हो सकता है जब उसकी कार्य पद्धति लोगों के वास्तविक सरोकारों से जुड़ी हो। आज मीडिया का प्रमुख उद्देश्य आम जनता के हितों की रखवाली करना न होकर विज्ञापन देने वाली कंपनियों के मुनासिब गैर मुनासिब प्रोडक्ट की ज्यादा से ज्यादा बिक्री बढ़ाने का माहौल पैदा करना है। मीडिया केवल व्यापारिक व्यवसायिक शक्तियों के मोहरे के रूप में काम कर रही है। चौबीस घंटे के न्यूज चैनल इसलिए नहीं हैं कि जनता को इतनी सूचना दी जाए जिससे वह अपने अधिकारों के साथ किसी भी प्रतिष्ठानों को खिलवाड़ न करने दे। चौबीस घंटे की न्यूज में उनकी चेतना के चक्षु नहीं खोले जाते बल्कि चटपटी न्यूजें दी जाती हैं जिससे वे टेलीविजन स्क्रीन पर अटके रहें। किसी मुद्दे के साथ तभी न्याय हो सकता है जब उसे संपूर्णता में प्रस्तुत किया जाए लेकिन किसी प्रसंग विशेष को यह जानते हुए भी सुर्खी बना देना कि उससे अर्थ का अनर्थ हो जाएगा पीत पत्रकारिता का एक उदाहरण है। आज पूरी मीडिया मनोरंजन उद्योग का पर्याय बनकर रह गई है। जिन दिनों रेडियो पर निजी चैनलों को अनुमति देने की बहस छिड़ी हुई थी उन दिनों आकाशवाणी के छतरपुर केेंद्र की एक परिचर्चा में इन पंक्तियों के लेखक ने कहा था कि जन संचार के सबसे सशक्त माध्यम को मुनाफाखोरों के हाथ सौंपने का लोकतंत्र पर बहुत बुरा प्रभाव होगा। आज यह चरितार्थ दिखाई दे रहा है। जो सूचनाएं जनता को चाहिए वे सनसनीखेज न होने की वजह से इलेक्ट्रानिक चैनलों और अखबारों से गायब हो रही हैं। विज्ञापन दाता कंपनियों से निर्देशित होने के कारण मीडिया सांस्कृतिक अपदूषण फैलाने में भी भूमिका अदा कर रही है। अब इस बात की चर्चा होने लगी है कि भारत जैसे देश में कितना उन्मुक्त लोकतंत्र हो। कितनी उन्मुक्त मीडिया हो। इसकी सीमा का विवेकपूर्ण निर्धारण होना चाहिए अन्यथा शासन करने वाली संस्थाएं जाने अनजाने में इनके द्वारा अक्षम होती जाएंगी और इसका प्रभाव अंतर्राष्ट्रीय जगत में राष्ट्रीय दबदबे पर पड़ेगा। व्यक्तिगत स्तर पर भी मीडिया की हालत खराब है। पहले राजनीतिक सामाजिक कार्यकर्ता पत्रकार बनते थे जबकि आज रंगदारों को पत्रकार बनाया जा रहा है जो कि अपनी बेजा हरकतों से समाज के हर वर्ग को बेइज्जत करके ब्लैकमेल करने की क्षमता रखते हों। आज संपादक ऐसे हो गए हैं जिन्हें संवाददाताओं से उसी तरह महीना चाहिए जिस तरह से पुलिस के अफसरों को थानाध्यक्षों से दरकार होती है। यह मीडिया का सबसे बुरा समय है। शोषक वर्ग मीडिया का इस्तेमाल अपने उपकरण के रूप में न कर पाए इसलिए साम्यवादी शासन में उस पर नियंत्रण रहता है जिसकी दुनिया के दूसरे देशों को अपना चारागाह समझने वाले अमेरिका जैसे उपनिवेशवादी देशों द्वारा न केवल आलोचना की जाती है बल्कि पूरे विश्व जनमत को ऐसी व्यवस्था की खिलाफत के लिए उकसाया जाता है पर न केवल साम्यवादी शासन बल्कि कोई भी ऐसा शासन जिसकी अपनी विचारधारा हो वह अराजक मीडिया को बर्दाश्त नहीं कर सकता इसलिए मोदी ने मीडिया को हद में रखने के लिए जो ब्यूह रचना तैयार की है प्रारंभिक तौर पर वह काफी हद तक ठीक है। मीडिया से लेकर किसी भी संस्था की स्वतंत्रता राष्ट्रीय हित और जनहित की सीमा तक ही संभव है। कोई संस्था राष्ट्रीय हित और जनहित से परे अपनी स्वतंत्रता और स्वायत्तता की मांग करने का अधिकार नहीं रखती। यह ध्रुव सत्य है।



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के  पी  सिंह
ओरई

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