वैसे तो द्वितीय विष्वयुद्ध का प्रथम प्रहार 1 सितम्बर, 1939 को ही आरंभ हो चुका था, किन्तु 22 जून, 1941 को तत्कालीन सोवियत संघ पर हिटलर के आक्रमण ने पूरे परिदृष्य को नया आयाम दे दिया। सोवियत संघ पर उक्त हमले से पूर्व हिटलर की फौज ने मात्र 35 दिनों के अंदर पोलैंड को, 44 दिनों में फ्रांस को धूल चटा दिया और बेल्जियम को तो एक ही दिन में परास्त कर दिया, नार्वे, नीदरलैंड, डेनमार्क जैसे देष भी उसके षिकार बन चुके थे। हिटलर का आकलन था कि वह सोवियत संघ को कुछ हफ्तों की कार्रवाई के जरिए बर्बाद कर देगा। 1941 की गर्मियों तक नाजी़ जर्मनी ने यूरोप के अधिकांष भागों पर कब्जा जमा लेने के उपरांत जिस योजना का उद्घोष किया था उसके तहत ईरान, इराक व मिस्र पर कब्जा जमाने के साथ-साथ ब्रिटेन और अमरीका पर हमला करते हुए भारत में प्रवेष करने का लक्ष्य निर्धारित था। अपने फासीवादी मंसूबों को मूत्र्त रूप देने के लिए हिटलर ने पीले बालू और उगते सूर्य की पृष्ठभूमि में ताड़ के पेड़ पर काले स्वस्तिक का प्रतीक चिह्न भी बना लिया था।
अपनी मंषा को जगजाहिर करते हुए हिटलर ने कहा था ‘‘हमें रूसी सेना को तहस-नहस करने, लेनिनग्राद, मास्को और काॅकेसस पर कब्जा करने से ज्यादा कुछ करना है। हमें पृथ्वी से उस देष का नामो निषान मिटाना है और वहाँ की जनता को मौत की नींद सुला देना है।’’ यह तो सर्वविदित है कि द्वितीय विष्वयुद्ध के दौरान प्रायः साढ़े पांच करोड़ लोगों की जानें गयी और 2.8 करोड़ लोग अपंग हो गये जिसमें से दो करोड़ लोग तो सिर्फ सोवियत संघ के थे, जो न सिर्फ अपने समाजवादी देष की वरन् विष्व सभ्यता की फासीवाद से रक्षा के लिए शहीद हुए। 1941 में 1945 के बीच चार वर्षों तक सोवियत संघ की बहादुर जनता ने फासीवाद के खिलाफ दुर्घर्ष संघर्ष किया, लाल सेना ने नाजी सेना की 607 टुकडि़यों को नष्ट कर दिया जो उत्तरी अफ्रीका, इटली और पष्चिमी यूरोप के मोर्चों पर नाजी सेना को हुए नुकसान से तीगुनी संख्या थी। सोवियत सेना को इस दौरान 1418 दिनों तक 3000 से 6200 कि॰मी॰ की सीमा पर जंगजू संघर्ष करना पड़ा। यह इतिहास का सर्वाधिक खूनी व विनाषकारी युद्ध था जिसका दूरगामी परिणाम मानवजाति की भावी पीढि़यों को देखने को मिला। सोवियत संघ ने फासीवाद को षिकस्त देकर न सिर्फ समाजवाद के प्रथम दुर्ग की हिफाजत की बल्कि पूरी दुनिया में राष्ट्रीय मुक्ति संग्रामों को नई ऊर्जा, गति और संदर्ष मुहैय्या कराया।
द्रष्टव्य है कि 1933 में जर्मनी की सत्ता पर काबिज होने के साथ ही हिटलर ने सोवियत राज्य सत्ता को मटियामेट करने, अंतरराष्ट्रीय मजदूर वर्ग और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों को कुचलने तथा कम्युनिस्टों व फासिज्म़ के अन्य विरोधियों को मिटा देने के अपने मंसूबों को जाहिर कर दिया था। इतना ही नहीं अपने मकसद को प्राप्त करने के लिए उसने तीस के दषक में अनेक सैन्य-राजनैतिक गठजोड़ों का सहारा लिया जिनमें सबसे महत्वपूर्ण थी ‘कमिंटर्न विरोधी संघि’(1936)। पहले इसमें जर्मनी और जापान शामिल हुए, 1937 में इटली के शामिल होने के बाद यह एक खतरनाक ‘धुरी’ बन गयी, 1939 आते-आते हंगरी, मनचुकुओ (चीन से निकला कठपुतली राज्य), स्पेन, बल्गेरिया, फिनलैंड, रोमानिया, डेनमार्क और स्लोवाकिया, क्रोषिया व नानकिंग की कठपुतली सरकारें भी इस सैन्य गठजोड़ का हिस्सा बन गयीं।
तत्कालीन वैष्विक परिदृष्य का जायजा लेते हुए 1936 में ही कांग्रेस के लखनाऊ और फैजपुर अधिवेषनों की अध्यक्षता करते हुए पंडित जवाहर लाल नेहरू ने स्पष्ट उल्लेख किया कि दुनिया दो खेमों में बंटी हुई थी। एक फासीवाद व साम्राज्यवाद का खेमा और दूसरा, समाजवाद व राष्ट्रीय मुक्ति का खेमा। 1941 में सोवियत संघ पर नाज़ी हमले को इसी पृष्ठभूमि में देखते हुए कलकत्ता में फ्रेंड्स आॅफ सोवियत यूनियन नामक मैत्री संगठन की प्रथम इकाई गठित की गयी जिसमें सरोजिनी नायडू, जवाहरलाल नेहरू, कवि गुरू रवीन्द्र नाथ टैगोर के साथ-साथ प्रो॰ हीरेन मुखर्जी, भूपेष गुप्त आदि ने अहं भूमिका निभाई थी। भारतीय कवियों श्री श्री, मखदूम मोहीउद्दीन और षिवमंगल सिंह सुमन ने फासीवाद से जुझ रहे सोवियत सैनिकें और जनता की वीर गाथाओं को अपनी कृतियों में उकेरा। भारतीयों को तब यह भी मालूम नहीं था कि हिटलर ने अपने ‘निर्देष -32’ (जिसे बाद में ‘आॅपरेषन ओरिएंट’ कहा गया) में सोवियत सेना को नेष्तनाबूत कर काॅकेसस के रास्ते भारत पर फासिज्म़ की विजय पताका फहराने का ब्लूप्रिंट पेष किया था। परंतु तब साम्राज्यवाद और फासिस्ट प्रतिक्रयावाद के विरूद्ध निर्मित भारतीय मानस ने सबको प्रेरित किया था। इतना ही नहीं सोवियत संघ पर नाज़ी हमले के समय तक युद्ध की स्थितियां इस कदर बिगड़ चुकी थीं कि आरंभिक हिलाल-हुज्जत, टालमटोल और वाग्चातुर्य को दरकिनार करते हुए ब्रिटिष प्रधानमंत्री विंसटन चर्चिल को यह घोषणा करनी पड़ी कि ‘रूस के समक्ष मौजूद खतरा खुद हमारा खतरा है’ आगे चलकर अमरीकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट को भी फासीवाद के बढ़ते खतरे के दुष्परिणामों की चिंता हुई और 1944 आते-आते ऐतिहासिक विकासक्रम में पष्चिमी देषों को भी फासीवाद विरोधी गठजोड़ मंें शामिल होने को विवष होना पड़ा।
बहरहाल सोवियत जनगणों और लाल सेना ने फासीवाद के विरूद्ध अपने महान देष-भक्तिपूर्ण युद्ध में 9 मई, 1945 को विजय हासिल की और बर्लिन के पतन के उपरांत विष्व सभ्यता के नये युग का सूत्रपात हुआ, दुनियाभर में राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों और नई सामाजिक आर्थिक व्यवस्थाओं के निर्माण की प्रक्रिया को नई ऊर्जा मिली तथा साम्राज्यवाद के मुकाबले नई विष्व व्यवस्था का मार्ग प्रषस्त हुआ। इस प्रकार फासीवाद पर विजय के बाद के दषकों में एषिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के अनेकानेक देषों ने उपनिवेषवाद और नवउपनिवेषवाद को एक-एक करके उखाड़ फेंका।
सारतः फासीवाद पर विजय और नई विष्व व्यवस्था की ओर प्रस्थान बीसवीं सदी में मानवजाति की सबसे बड़ी उपलब्धि रही। बिडंबना, फिर भी, यह कि फासीवाद पर विजय के 70 वर्ष पूरे होने के बाद भी हम देख रहे हैं कि विष्व के बदलते शक्ति संतुलन और पूंजीवादी जगत में उभरते एक के बाद दूसरे आर्थिक संकट के मद्देनजर पूंजीवाद ने अपने पैंतरे बदलने आरंभ कर दिए हैं और बीती सदी के आठवें दषक से ही दुनिया के समक्ष भूमंडलीकरण का सपना परोसते हुए आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण और मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के ऐसे युग का सूत्रपात किया है जिसने भूमंडलीय काॅरपोरेट (निगमित) साम्राज्यवाद का दानवी रूप ग्रहण कर लिया है और एकध्रुवीय विष्व के नाम पर संयुक्त राज्य अमेरिका की दादागिरी का षिकार बनाया जाने लगा है जिसके अनेक नमूने विगत तीन दषकों में देखने को मिले हैं। इस नई परिमार्जित और परिष्कृत योजना के तहत काॅरपोरेट औद्योगिक पूंजी और अंतराष्ट्रीय वित्त पूंजी के सहमेल (गठजोड़) से देषी-विदेषी काॅरपोरेट पूंजी ने विष्व की विकासषील अर्थव्यवस्थाओं पर अपना संकट उड़ेलना शुरू कर दिया है। काॅरपोरेट पंूजी और अंतराष्ट्रीय वित्त पंूजी के गठजोड़ ने दुनिया को एक बार फिर फासीवाद के मुहाने पर ला खड़ा कर दिया है जिससे कि दुनिया में उसका राजनीतिक और आर्थिक वर्चस्व कायम हो सके। और इस उद्देष्य को प्राप्त करने के लिए युद्ध और तनाव थोपे जा रहे हैं, पर्यावरण को नष्ट किया जा रहा है, सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ को पुनर्जीवित किया जा रहा है, भांति-भांति की विघटनकारी, विभाजक और कट्टरपंथी शक्तियों व प्रवृतियों को बढ़ावा दिया जा रहा है, ‘पहल लोकतंत्र’ के छद्म के पीछे से लोकतंत्र की हत्या करने का सिलसिला जारी है। फासीवाद की कथनी और करनी में ऐसा ही अंतर होता है - हिटलर ने भी खुद को राष्ट्रीय सोषलिस्ट घोषित किया था मगर एवज मंे जो कुछ दुनिया को दिया वह था दुर्दांत नाजीवाद/ फासीवाद का एक और घिनौना रूप।
वैष्विक स्तर पर हो रहे इन खतरनाक बदलावों की पृष्ठभूमि में देखें तो हमारे देष भारत में फासीवाद का खतरा त्वरित दस्तक दे रहा है, हालिया भूकंप के अनवरत पुनरावृत हो रहे झटकों की तरह। केन्द्रीय सत्ता प्रतिष्ठान पर नरेंद्र मोदी के काबिज होने के उपरांत सांप्रदायिक विभाजन और उन्माद को जिस ढंग से बढ़ावा दिया जा रहा है उसे यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उन्मादी हिन्दुत्ववादी विचाराधारा द्वारा संचालित और देषी-विदेषी काॅरपोरेट पूंजी द्वारा संपोषित ढ़ाँचे के अंतर्गत देखंे तो फासीवाद का खतरा आसन्न दिखाई पड़ेगा। यह महज एक संयोग नहीं कि आर॰एस॰एस॰ के प्रचारक भी काले रंग की टोपी पहनते हैं, स्वस्तिक चिह्न का उपयोग करते हैं और बारंबार एक ही झूठ को प्रचारित कर उसे सच बनाने का वैसा ही यत्न करते हैं जैसा नाजी प्रचार तंत्र का प्रमुख गोवेल्स किया करता था। नवउदारवादी मुक्त बाजारी अर्थव्यवस्था के पैरोकारों और उनकी नियति के नियंता संयुक्त राज्य अमरीका व उसके सहभागियों के डार्लिंग बने नरेन्द्र मोदी जिस षिद्दत और रफ्तार से विष्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विष्व व्यापार संगठन के नुस्खे पर दृढ़तापूर्वक चल रहे हैं वह भारतीय राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम की विरासत, देष की गंगा-जमुनी संस्कृति, स्वावलंबन और स्वराज सबके लिए खतरे की घंटी हैं और इसलिए यह सभी देषभक्तों, प्रगतिषील, वामपंथी व लोकतांत्रिक शक्तियों के लिए गंभीर चुनौती है।
इसी पृष्ठभूमि में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की पहल पर आयोजित यह पटना कन्वेंषन (29 मई, 2015) समस्त फासीवाद विरोधी शक्तियों से गोलबंद होकर निर्णायक संघर्ष की तैयारी में जुट जाने का आह्वान करता है। और सभी वामपंथी दलों, धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक दलों, सामाजिक सौहार्द, शांति व एकजुटता के लिए कार्यरत संगठनों, जनसंगठनो,ं गैर सरकारी सामाजिक संगठनों के साथ-साथ समस्त देषभक्त शक्तियों से अपील करता है कि वे पारस्परिक संपर्क संवाद स्थापित कर इस अभियान को वृहतर आयाम मुहैय्या करें। इस कार्य में हमें 1975 में पटना में आयोजित विष्व फासीवाद विरोधी सम्मेलन से प्रेरणा लेनी चाहिए क्योंकि तबके छिपे रूस्तम फासीवादी आज प्रकट और मुखर होकर न सिर्फ सामने खड़े हैं, बल्कि खुलेआम चुनौती दे रहे हैं। फासीवाद पर विजय की 70वीें सालगिरह के उपलक्ष्य में आयोजित कन्वेंषन फासिज्म़ के नये अवतारों के विरूद्ध निर्णायक संकल्प के साथ यह पटना डेक्लेयरेषन स्वीकृत एवं जारी करता है।
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